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मृत्यु आती है तो कोई परिजन आदि काम नहीं आते

पतचरा श्रावस्ती के नगरसेठ की पुत्री थी। किशोरवय होने पर वह अपने घरेलू नौकर के प्रेम में पड़ गई। जब उसके माता - पिता उसके विवाह के लिए उपयुक्त वर खोज रहे थे तब वह नौकर के साथ भाग गई। दोनों अपरिपक्व पति - पत्नी एक छोटे से नगर में जा बसे। कुछ समय बाद पतचरा गर्भवती हो गई। स्वयं को अकेले पाकर उसका दिल घबराने लगा और उसने पति से कहा – “ हम यहाँ अकेले रह रहे हैं। मैं गर्भवती हूँ और मुझे किसी की सहायता की आवश्यकता है। यदि आप आज्ञा दें तो मैं अपने माता - पिता के घर चली जाऊं ? ” पति पतचरा को उसके मायके नहीं भेजना चाहता था इसलिए उसने कोई बहाना बनाकर उसका जाना स्थगित कर दिया। लेकिन पतचरा के मन में माता - पिता के घर जाने की इच्छा बड़ी बलवती हो रही थी। एक दिन जब उसका पति काम पर गया हुआ था तब उसने पड़ोसी से कहा – “ आप मेरे स्वामी को बता देना कि मैं कुछ समय के लिए अपने माता - पिता के घर जा रही हूँ । ” जब पति को इसका पता चला तो उसे बहुत बुरा लगा। उसे अपने ऊपर ग्लानि भी हुई कि उसके कारण ही इस कुलीन कन्या की इतनी दुर्गति हो रही है। वह उसे ढूँढने के लिए उसी मार्ग पर चल दिया। रास्ते में पतचरा उसे मिल गई। पति
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संत ज्ञानेश्वर ने किया चांगदेव के अहंकार का नाश Sant gyaneshwar ne Kiya changdev ke ahankar ka naash

चांगदेव नाम के एक हठयोगी थे इन्होंने योग सिद्धि से अनेको सिद्धियाँ प्राप्त कर रखी थी तथा मृत्यु पर भी विजय प्राप्त कर ली थी उनकी उम्र 1400 वर्ष हो गई थी। चांगदेव को यश-प्रतिष्ठा का बहुत मोह था। वह अपने आप को सबसे महान मानते थे। इन्होंने जब संत ज्ञानेश्वर की प्रशंसा सुनी तो उनका मन संत ज्ञानेश्वर के प्रति ईर्ष्या से भर उठा उन्होंने सोचा की 16 वर्ष की उम्र में संत ज्ञानेश्वर क्या मेरे से बड़े सिद्ध हो सकते है ऐसा उनकों मानने में न आया क्योंकि इन्होंने 1400 वर्ष साधना करके मृत्यु को जीता था तथा प्रत्येक जीव जंतु उनके वश में थे तथा एक सोलह साल का व्यक्ति उनसें सिद्धि में बड़ा हो सकता है यह बात उनके गले न उतरी परन्तु जब बार-बार संत ज्ञानेश्वर की प्रशंसा सुनी तो उन्होंने मन में सोचा की संत ज्ञानेश्वर से मिला जाए इसलिए उन्होने संत ज्ञानेश्वर को पत्र लिखने का सोचा। जब वह पत्र लिखने बैठे तो सोच में पड़ गए कि संत ज्ञानेश्वर को क्या संबोधन करू। पुज्य ,आदरणीय आदि से संबोधन भी नहीं कर सकते थे क्योंकि वह तो 1400 वर्ष के थे तथा संत ज्ञानेश्वर सोलह वर्ष के तो चिरंजीव भी नहीं लिख सकते थे क्योंकि ज्ञान
खाना-पीना,खेलना,वंश वृद्धि करना यह सभी कार्य तो पशु भी करते है।मनुष्य भी यहीं कार्य करे तो उसमें तथा पशु में अंतर क्या रहेगा। मानव-जीवन का लक्ष्य होना चाहिए परमात्मा का अनुभव करना, अपनी आत्मा को परमात्मा में लीन कर देना। मानव शरीर जो तुम्हें मिला है केवल भोग भोगने के लिए नहीं मिला है वरन् आप कौन हो इसकी पहचान कर सको तथा परमात्मा का अनुभव कर उसके साथ एकाकार हो सको ताकि तुम्हें मुक्ति प्राप्त हो जाए। चौरासी लाख योनियों के पश्चात यह मानव जीवन मिला है इसको व्यर्थ जाने नहीं देना चाहिए। सभी से प्रेम करना है जब तुम आत्मा के संपर्क में कुछ क्षण के लिये ही आओगें तो तुम्हारे अंदर प्रेम का झरना बहने लगेगा तथा जो तुम्हारे अंदर प्रेम का झरना बहने लगेगा तथा जो तुम्हारे सम्पर्क में आएगा वह तुम्हारे अंदर प्रेम का जो झरना बह रहा है उसका अनुभव होगा। जैसे चुम्बक लोहे को अपनी ओर आकर्षित करता है उसी प्रकार तुम्हारे मन से निकलने वाली प्रेम धारा तुम्हारे सम्पर्क में आने वाले को प्रभावित करेगी। सभी संतो ने कहा प्रेम करो। प्रेम से परमात्मा को प्राप्त किया जा सकता है। गोपियों ने केवल प्रेम से कृष्ण को प्राप्त क
खाना-पीना,खेलना,वंश वृद्धि करना यह सभी कार्य तो पशु भी करते है।मनुष्य भी यहीं कार्य करे तो उसमें तथा पशु में अंतर क्या रहेगा। मानव-जीवन का लक्ष्य होना चाहिए परमात्मा का अनुभव करना, अपनी आत्मा को परमात्मा में लीन कर देना। मानव शरीर जो तुम्हें मिला है केवल भोग भोगने के लिए नहीं मिला है वरन् आप कौन हो इसकी पहचान कर सको तथा परमात्मा का अनुभव कर उसके साथ एकाकार हो सको ताकि तुम्हें मुक्ति प्राप्त हो जाए। चौरासी लाख योनियों के पश्चात यह मानव जीवन मिला है इसको व्यर्थ जाने नहीं देना चाहिए। सभी से प्रेम करना है जब तुम आत्मा के संपर्क में कुछ क्षण के लिये ही आओगें तो तुम्हारे अंदर प्रेम का झरना बहने लगेगा तथा जो तुम्हारे अंदर प्रेम का झरना बहने लगेगा तथा जो तुम्हारे सम्पर्क में आएगा वह तुम्हारे अंदर प्रेम का जो झरना बह रहा है उसका अनुभव होगा। जैसे चुम्बक लोहे को अपनी ओर आकर्षित करता है उसी प्रकार तुम्हारे मन से निकलने वाली प्रेम धारा तुम्हारे सम्पर्क में आने वाले को प्रभावित करेगी। सभी संतो ने कहा प्रेम करो। प्रेम से परमात्मा को प्राप्त किया जा सकता है। गोपियों ने केवल प्रेम से कृष्ण को प्राप्त क
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केवल अपना कर्म करों दुसरो से आशा मत रखो keval apna karam karo dusron se Asha mat rakho

आज हम जब भी किसी के लिए कुछ भी करते है तो हम दुसरे से भी यही अपेक्षा रखते है कि वो भी हमारे लिए वहीं करे …पर आप बताएं क्या यह सही है ..आपके संस्कार ,आपकी विशेषताएं ,आपका अनुभव‌ ,आपका नज़रियां दुनिया से अलग है आप जैसा करे वैसा दुसरे भी करे ये संभव नहीं है । इसलिए जब आप किसी के आने पर उसका आदर सत्कार करते है या उन्हें चाय पिलाते है खाना खिलाते है और जब आप उनकें यहां जाते है तो हो सकता है वे आपको कुछ ना खिलाए…उस समय आपको बुरा लगेगा कि मैनें तो उनके लिए इतना सब कुछ किया और उन्होंने तो कुछ भी नहीं किया। अगली बार जब वो फिर से आपके यहां आएगा तो आप उसके लिए कुछ भी नहीं करेंगे…और आप खुद को शाबाशी देंगे कि मैने उसे अच्छा सबक सिखाया पर क्या आपको लगता है कि यह सही है ? ये पुरी दुनिया इसी उलझन में फंस कर रह गयी है। हर बार कोई दुसरों से आशाएं लगा कर रहता है ओर खुद नहीं देखता कि हमने क्या किया है किसी के लिए… और अगर आप किसी के लिए कुछ करते भी है तो वो आपके संस्कार है जो आपको कभी छोड़ने नहीं चाहिए। दोस्तों में यह बात मानता हूं कि यह थोड़ा मुश्किल है… पर इससे आपको बहुत नुकसान उठाना पड़ता है वो आप नहीं