जब पश्चिम के देशों में ज्ञान-विज्ञान का विकास प्रारम्भ भी नहीं हुआ था और मानव ने संस्कृति के क्षेत्र में प्रवेश भी नहीं किया था उस समय भारतवर्ष में दार्शनिक और योगी मानव मनोविज्ञान के विभिन्न पहलुओं और समस्याओं पर गम्भीतापूर्वक विचार कर रहे थे।
फिर भी पाश्चात्य विज्ञान की छत्रछाया में पले हुए और उसके प्रकाश से चकाचौंध वर्तमान भारत के मनोवैज्ञानिक भारतीय मनोविज्ञान का अस्तित्व तक मानने को तैयार नहीं हैं। यह खेद की बात है।
भारतीय मनोवैज्ञानिकों ने चेतना के चार स्तर माने हैं - जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय।
पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक प्रथम तीन स्तर को ही जानते हैं। पाश्चात्य मनोविज्ञान नास्तिक है। भारतीय मनोविज्ञान ही आत्मविकास और चरित्र-निर्माण में सबसे अधिक उपयोगी सिद्ध हुआ है क्योंकि यह धर्म से अत्यधिक प्रभावित है।
भारतीय मनोविज्ञान आत्मज्ञान और आत्म-सुधार में सबसे अधिक सहायक सिद्ध होता है। इसमें बुरी आदतों को छोड़ने और अच्छी आदतों को अपनाने तथा मन की प्रक्रियाओं को समझने तथा उसका नियंत्रण करने के महत्त्वपूर्ण उपाय बताये गये हैं। इसकी सहायता से मनुष्य सुखी, स्वस्थ और सम्मानित जीवन जी सकता है।
पश्चिम की मनोवैज्ञानिक मान्यताओं के आधार पर विश्वशांति का भवन खड़ा करना बालू की नींव पर भवन-निर्माण करने के समान है।
पाश्चात्य मनोविज्ञान का परिणाम पिछले दो विश्वयुद्धों के रूप में दिखलायी पड़ता है। यह दोष आज पश्चिम के मनोवैज्ञानिकों की समझ में आ रहा है। जबकि भारतीय मनोविज्ञान मनुष्य का दैवी रूपान्तरण करके उसके विकास को आगे बढ़ाना चाहता है। उसके 'अनेकता में एकता ' के सिद्धान्त के आधार पर ही संसार के विभिन्न राष्ट्रों, वर्गों, धर्मों और प्रजातियों में सहिष्णुता ही नहीं, सक्रिय सहयोग उत्पन्न किया जा सकता है। भारतीय मनोविज्ञान में शरीर और मन पर भोजन का क्या प्रभाव पड़ता है इसकी चर्चा से लेकर शरीर में विभिन्न चक्रों की स्थिति, कुण्डलिनी की स्थिति, वीर्य को ऊर्ध्वगामी बनाने की प्रक्रिया आदि की चर्चा विस्तारपूर्वक की गई है।
पाश्चात्य मनोविज्ञान मानव-व्यवहार का विज्ञान है। भारतीय मनोविज्ञान मानस विज्ञान के साथ-साथ आत्मविज्ञान है। भारतीय मनोविज्ञान इन्द्रिय-नियंत्रण पर विशेष बल देता है जबकि पाश्चात्य मनोविज्ञान केवल मानसिक क्रियाओं या मस्तिष्क - संगठन पर बल देता है। उसमें मन द्वारा मानसिक जगत का ही अध्ययन किया जाता है। उसमें भी फ्रायड का मनोविज्ञान तो एक रूग्ण मन के द्वारा अन्य रूग्ण मनों का ही अध्ययन है जबकि भारतीय मनोविज्ञान में इन्द्रिय-निरोध से मनोनिरोध और मनोनिरोध से आत्मसिद्धि का ही लक्ष्य मानकर अध्ययन किया जाता है।
पाश्चात्य मनोविज्ञान में मानसिक तनावों से मुक्ति का कोई समुचित साधन परिलक्षित नहीं होता जो उसके व्यक्तित्व में निहित निषेधात्मक परिवेशों को स्थायी निदान प्रस्तुत कर सके। इसलिए फ्रायड के लाखों बुद्धिमान अनुयायी भी पागल हो गये।
' संभोग से समाधि ' के मार्ग पर चलकर कोई भी व्यक्ति योगसिद्ध महापुरुष नहीं हुआ। उस मार्ग पर चलने वाले पागल हुए हैं। ऐसे कई नमूने हमने देखे हैं। इसके विपरीत भारतीय मनोविज्ञान में मानसिक तनावों से मुक्ति के विभिन्न उपाय बतलाये गये हैं यथा योगमार्ग, साधन-चतुष्टय, शुभ संस्कार, सत्संगति, अभ्यास, वैराग्य, ज्ञान, भक्ति, निष्काम कर्म आदि। इन साधनों के नियमित अभ्यास से संगठित एवं समायोजित व्यक्तित्व का निर्माण संभव है। इसलिए भारतीय मनोविज्ञान के अनुयायी पाणिनी और महाकवि कालिदास जैसे प्रारम्भ में अल्पबुद्धि होने पर भी महान विद्वान हो गये।
भारतीय मनोविज्ञान ने इस विश्व को हजारों महान भक्त, समर्थ योगी तथा ब्रह्मज्ञानी महापुरुष दिये हैं।
अतः पाश्चात्य मनोविज्ञान को छोड़कर भारतीय मनोविज्ञान का आश्रय लेने में ही व्यक्ति, कुटुम्ब, समाज, राष्ट्र और विश्वमानव का कल्याण निहित है।
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