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Showing posts from July, 2020

इस दुनिया में कोई गरीब नहीं is duniya mein koi garib Nahin

एक समय की बात है भगवान गौतम बुद्ध एक गाँव में धर्म सभा को संबोधित कर रहे थे। लोग अपनी विभिन्न परेशानियों को लेकर उनके पास जाते और उसका हल लेकर खुशी - खुशी वहां से लौटते। उसी गांव के सड़क के किनारे एक गरीब व्यक्ति बैठा रहता तथा महात्मा बुद्ध के उपदेश शिविर में आने जाने वाले लोगों को बड़े ध्यान से देखता। उसे बड़ा आश्चर्य होता कि लोग अंदर तो बड़े दुःखी चेहरें लेकर जाते है लेकिन जब वापस आते है तो बड़े खुश और प्रसन्न दिखाई देते है। उस गरीब को लगा कि क्यों न वो भी अपनी समस्या को भगवान के समक्ष रखे ? मन में यह विचार लिए वह भी महात्मा बुद्ध के पास पहुंचा। लोग पंक्तिबध खड़े होकर अपनी समस्या को बता रहे थे। जब उसकी बारी आई तो उसने सबसे पहले महात्मा बुद्ध को प्रणाम किया और फिर कहा - भगवान इस गाँव में लगभग सभी लोग खुश और समृध है। फिर मैं ही क्यो गरीब हूं ? इस पर उन्होने मुस्कुराते हुए कहा - तुम गरीब और निर्धन इसलिए हो क्योंकि तुमने आज तक किसी को कुछ दिया ही नहीं। इस पर वह गरीब व्यक्ति बड़ा आर्श्चयचकित हुआ और बोला - भगवान , मेरे पास भला दूसरों को देने के लिए क्या होगा। मेरा तो स्वयं का गुजारा बहुत मुश्

सीमा में रहना ही ठीक है। Seema mein rahana hi theek hai.

       सड़क किनारे एक बुढ़िया अपना ढाबा चलाती थी। एक मुसाफिर आया। दिन भर का थका , उसने विश्राम करने की सोची। बुढिया से कहा , ' क्या रात्रि भर यहां आश्रय मिल सकेगा ? ' बुढ़िया ने कहा , क्यों नहीं , आराम से यहां रात भर सो सकते हो। '    यात्री ने पास में पड़ी चारपाइयों की ओर संकेत कर कहा‌ , ' इस पर सोने का क्या चार्ज लगेगा? ' बुढ़िया ने कहा , ' चारपाई के सिर्फ आठ आना।' यात्री ने सोचा रात भर की ही तो बात है। बेकार में अठन्नी क्यों खर्च की जाए। आंगन में काफी जगह है , वहीं सो जाऊंगा।      यह सोचकर उसने फिर कहा , ' और अगर चारपाई पर न सोकर आंगन की भूमि पर ही रात काट लूं तो क्या लगेगा? ' ' फिर पूरा एक रूपया लगेगा। ' बुढ़िया ने कहा।    बुढ़िया की बात सुन यात्री को उसके दिमाग पर संदेह हुआ। चारपाई पर  सोने का आठ आना और भूमि पर चादर बिछाकर सोने का एक रूपया। यह तो बड़ी विचित्र बात है। उसने बुढिया से पूछा , ' ऎसा क्यों ? '     बुढ़िया ने कहा‌ , ' चारपाई की सीमा है। तीन फुट चौड़ी , छह फुट लंबी जगह ही घेरोगे। बिना चारपाई सोओगे तो पता नहीं कितन

बुराई को जड़ से ख़त्म करो burai ko jad se khatm karo

बुराई की ऊपरी कांट - छांट से वह नहीं मिटती ,उसे तो उसकी जड़ से मिटाना होता है। जब तक जड़ को नष्ट नहीं किया जाएगा तब तक कोई लाभ नहीं होगा। किसी नगर में एक आदमी रहता था। उसके आँगन में एक पौधा उग आया। कुछ दिनों बाद वह बड़ा हो गया और उस पर फल लगने लगे। एक बार एक फल पककर नीचे गिर गया। उस फल को एक कुत्ते ने खा लिया। जैसे ही कुत्ते ने फल खाया , उसके प्राण निकल गए। आदमी ने सोचा - कोई बात होगी जिससे कुत्ता मर गया। पर उसने पेड़ के फल पर ध्यान नहीं दिया। कुछ समय बाद उधर से एक लड़का निकला। फल देखकर उसके मन में लालच आ गया और उसने किसी तरह फल तोड़कर खा लिया। फल को खाते ही लड़का मर गया। मरे हुए लड़के को देख आदमी की समझ में आ गया कि यह जहरीला पेड़ है। उसने कुल्हाड़ी ली और वृक्ष के सारे फल काटकर गिरा दिए। थोड़े दिन बाद पेड़ में फिर फल लग गए। लेकिन इस बार पहले से भी ज्यादा बड़े फल लगे थे। आदमी ने फिर कुल्हाड़ी से फल के साथ - साथ शाखाओं को भी काट दिया। परंतु कुछ दिन बाद पेड़ फिर फलों से लद गया। अब आदमी की समझ में कुछ नहीं आया। वह परेशान हो गया। तभी उसके पड़ोसी ने उसे देखा और उसकी परेशानी का कारण पूछा। आदमी न

त्याग में ही सुख है। Tyag mein hi sukh hai.

     कौशांबी में संत रामानंद नगर के बाहर एक कुटिया में अपने शिष्य गौतम के साथ रहते थे। नगरवासी उनका सम्मान करते हुए उन्हें पर्याप्त दान-दक्षिण दिया करते थे। एक दिन अचानक संत ने गौतम से कहा - यहां बहुत दिन रह लिया। चलो अब कहीं और रहा जाए। गौतम ने जवाब दिया - गुरुदेव , यहां तो बहुत चढ़ावा आता है। कुछ दिन बाद चलेंगे। संत ने समझाया - बेटा , हमें धन और वस्तुओं के संग्रह से क्या लेना - देना , हमें तो त्याग के रास्ते पर चलना है। यह कहकर संत गौतम को लेकर चल पड़े।    गौतम ने जमा किए अपने कुछ सिक्के झोले में छिपा लिए। दोनों नदी तट पर पहुंचे। वहां उन्होंने नाव वाले से नदी पार कराने की प्रार्थना की। नाव वाले ने कहा - मैं नदी पार कराने के दो सिक्के लेता हूं। आप लोग साधु - महात्मा हैं। आपसे एक ही लूंगा। संत के पास पैसे नहीं थे। वे वहीं आसन जमा कर बैठ गए। शाम हो गई। नाव वाले ने कहा - यहां रुकना खतरे से खाली नहीं है। आप कहीं और चले जाएं। सिक्के हों तो मैं नाव पार करा दूंगा। खतरे की बात सुनकर गौतम घबरा गया। उसने झट अपने झोले से दो सिक्के निकाले और नाव वाले को दे दिए।     नाव वाले ने उन्हें नदी पार कर
कवि की बेटी एक बार कवि धनपाल राजा भोज को अपना कथा ग्रंथ सुना रहे थे। जब धनपाल पूरी कथा सुना चुके तो राजा भोज बोले, 'कथा में विनता का जो वर्णन आया है-उसे हटाकर अवन्ति तथा शुक्रावतार तीर्थ को बदलकर महाकाल नाम दे दें तो यह कथा हमारे राज्य और सीधे हमसे जुड़ सकती है। इसके बदले आप जो भी पुरस्कार चाहें, हम देंगे।' राजा भोज की बात सुनकर कवि धनपाल बोले, 'महाराज ! धन के लिए ग्रंथ में परिवर्तन करना मेरे लिए संभव नहीं है। यह मेरी आत्मा को कभी भी स्वीकार्य नहीं होगा। मैं मन से लिखता हूं। लिखते समय मेरे मन में पैसे की लालसा जरा भी नहीं रहती।' कवि धनपाल का यह जवाब राजा भोज को चुभ गया। उन्होंने इसमें अपना अपमान महसूस किया और देखते-देखते क्रोध में धनपाल का वह नवीन ग्रंथ उन्होंने आग में डाल दिया। कुछ ही देर में वह ग्रंथ जलकर राख बन गया। इसके बाद धनपाल दुखी मन से घर लौटे और उदास होकर एक ही स्थान पर बैठे रहे। धनपाल की बेटी तिलक मंजरी से पिता की उदासी छिप नहीं पाई। उसने अपने पिता को इतना हताश और उदास कभी नहीं देखा था। उसने पूछा, 'क्या हो गया ? ग्रंथ कहां है?' धनपाल ने दुखी म

कर्म करने का एक अलग ही सुख है। karam karne ka ek alag hi sukh hai.

एक राजा राजकाज से मुक्ति चाहते थे। एक दिन उन्होंने राजसिंहासन अपने उत्तराधिकारी को सौंपा और राजमहल छोड़ चल पड़े। उन्होंने विद्वानों के साथ सत्संग किया , तपस्या की पर उनके मन में अतृप्ति बनी रही। मन में खिन्नता का भाव लिए वे तीर्थयात्रा पर निकल पड़े। एक दिन चलते - चलते वह काफी थक गए और भूख के कारण निढाल होने लगे। पगडंडी से उतर एक खेत में रुके और एक पेड़ के नीचे बैठकर सुस्ताने लगे। खेत में आए पथिक को देखकर एक किसान उनके पास जा पहुंचा। वह उनका चेहरा देखकर ही समझ गया कि यह व्यक्ति थका होने के साथ ही भूखा भी है। किसान ने हांडी में उबालने के लिए चावल डाले , फिर राजा से कहा , ' उठो , चावल पकाओ। जब चावल पक जाएं तब मुझे आवाज दे देना। हम दोनों इससे पेट भर लेंगे। ' राजा मंत्रमुग्ध होकर किसान की बात सुनते रहे। किसान के जाने के बाद उन्होंने चावल पकाने शुरू कर दिए। जब चावल पक गए , तो उन्होंने किसान को बुलाया और दोनों ने भरपेट चावल खाए। भोजन के बाद किसान काम में लग गया और राजा को ठंडी छांव में गहरी नींद आ गई। सपने में उन्होंने देखा कि एक दिव्य पुरुष खड़ा होकर कह रहा है , '

सुख और शांति की खोज ,उसी में है मौज। Sukh aur shanti ki khoj , usi mein hai mauj.

संत सिद्धेश्वर एक दिन एक टीले पर बैठे थे। तभी एक व्यक्ति उनके पास आया और बोला , ' प्रणाम , मैं सेठ मणिमल हूं। मेरा एक मित्र है सुखीराम। उसका नाम तो सुखीराम है लेकिन उसके जीवन में सुख का अभाव है। मैं विश्व भ्रमण करके लौट रहा हूं। जब मैंने अपने मित्र से पूछा था कि मैं उसके लिए क्या उपहार लेकर आऊं तो उसने मुझसे सुख और शांति मांगी। मैं समझ नहीं पाया कि ये वस्तुएं उसे कैसे दूं। लेकिन मुझे अच्छा नहीं लगा कि मैं अपने दु:खी मित्र को और निराश करूं सो मैंने सोचा कि उसे उपहार दूंगा अवश्य। लेकिन कौन सी वस्तु दूं जिससे सुख और शांति प्राप्त हो , यह नहीं समझ सका। उसके पास धन की कोई कमी तो है नहीं फिर उसे क्या दिया जाए , यह समझ में नहीं आ रहा था। मैंने बाजारों की खाक छानी पर कुछ नहीं मिला। किसी ने आपके पास आने का सुझाव दिया और कहा कि आप मुझे अवश्य सुख और शांति दे सकते हैं। ' संत ने उससे कागज और कलम मांगी। वह उस पर कुछ लिखकर देते हुए बोले , ' इसमें सुख और शांति मौजूद है। लेकिन इसे आप तब तक मत पढ़ना जब तक आपका मित्र इसे न पढ़े क्योंकि यह उसी के लिए है। ' संत की बात सुनकर सेठ

चिंता की मार सबसे बड़ा प्रहार chinta ki maar sabse bada prahar

दो वैज्ञानिक बातचीत कर रहे थे। उनमें एक वृद्ध और एक युवा था। वृद्ध वैज्ञानिक ने कहा , ' चाहे विज्ञान कितनी भी प्रगति क्यों न कर ले , लेकिन वह अभी तक ऐसा कोई उपकरण नहीं ढूंढ पाया , जिससे चिंता पर लगाम कसी जा सके। ' युवा वैज्ञानिक मुस्कराते हुए बोला , ' आप भी कैसी बातें करते हैं। अरे चिंता तो मामूली सी बात है। भला उसके लिए उपकरण ढूंढने में समय क्यों नष्ट किया जाए? ' वृद्ध वैज्ञानिक ने कहा , ' चिंता बहुत भयानक होती है। यह व्यक्ति का सर्वनाश कर देती है । ' लेकिन युवा वैज्ञानिक उनसे सहमत नहीं हुआ। वृद्ध वैज्ञानिक उसे अपने साथ घने जंगलों की ओर ले गए। एक विशालकाय वृक्ष के आगे वे खड़े हो गए। युवा वैज्ञानिक बोला , ' आप मुझे यहां क्यों लाए हैं ? ' वृद्ध वैज्ञानिक ने कहा , ' जानते हो , इस वृक्ष की उम्र चार सौ वर्ष बताई गई है। ' युवा वैज्ञानिक बोला , ' अवश्य होगी। ' वृद्ध वैज्ञानिक ने समझाते हुए कहा , ' इस वृक्ष पर चौदह बार बिजलियां गिरी। चार सौ वर्षों से अनेक तूफानों का इसने सामना किया। ' अब युवा वैज्ञानिक ने झुंझला कर कहा , ' आ

प्रभु उसको प्रेम करते हैं जो गरीबों से प्रेम करते हैं। Prabhu usko Prem karte Hain jo garibon se Prem karte Hain.

एक संत ने एक रात स्वप्न में देखा कि उनके पास एक देवदूत आया है। देवदूत के हाथ में एक सूची थी। उसने कहा , ' यह उन लोगों की सूची है , जो प्रभु से प्रेम करते हैं। ' संत ने कहा , ' मैं भी प्रभु से प्रेम करता हूं। मेरा नाम तो इसमें अवश्य होगा। ' देवदूत बोला , ' नहीं , इसमें आप का नाम नहीं है। ' संत उदास हो गए। फिर उन्होंने पूछा , ' इसमें मेरा नाम क्यों नहीं है ? मैं ईश्वर से ही प्रेम नहीं करता बल्कि गरीबों से भी प्रेम करता हूं। मैं अपना अधिकतर समय निर्धनों की सेवा में लगाता हूं। उसके बाद जो समय बचता है उसमें प्रभु का स्मरण करता हूं। ' तभी संत की आंख खुल गई। दिन में वह स्वप्न को याद कर उदास थे। एक शिष्य ने उदासी का कारण पूछा तो संत ने स्वप्न की बात बताई और कहा , ' लगता है सेवा करने में कहीं कोई कमी रह गई है। ' दूसरे दिन संत ने फिर वही स्वप्न देखा। वही देवदूत फिर उनके सामने खड़ा था। इस बार भी उसके हाथ में कागज था। संत ने बेरुखी से कहा , ' अब क्यों आए हो मेरे पास ? मुझे प्रभु से कुछ नहीं चाहिए। ' देवदूत ने कहा , ' आपको प्रभु से कु

हम अपने दुःखों एवं समस्याओं के लिए स्वयं ही जिम्मेदार हैं। Ham Apne dukkho avm samasyaon ke liye swayam hi jimmedar hai

एक दिन ऊंटों का एक कारवां एक धर्मशाला के पास आकर ठहरा। ऊंट वाला एक एक खूंटा गाड़ता जाता और उस के साथ हर ऊंट को बांधता जा रहा था। निन्यानवे खूंटे गाड़ चुका और उतने ही ऊंट बांध चुका था। पर उस के पास एक खूंटा कम पड़ गया। वह धर्मशाला के व्यवस्थापक के पास गया और उसे अपनी समस्या कह सुनाई। व्यवस्थापक भी खूंटा ढूंढने में असफल रहा। इस पर ऊंट वाला परेशान हो गया कि इस ऊंट का क्या किया जाए। इस बीच व्यवस्थापक को कुछ सूझा और उसने ऊंट वाले को एक तरकीब सुझाई। तरकीब के अनुसार उसने ऊंट के पास जाकर झूठमूठ का एक अभिनय किया , जैसे कि वह सचमुच ही खूंटा गाड़ रहा हो। फिर उसने अभिनय किया मानो वह रस्सी से उसे खूंटे के साथ बांध रहा हो। सुबह ऊंट वाले को आगे जाना था। उसने सभी ऊंटो को खोला तो वे खड़े हो गए और चलने को तैयार हो गए , लेकिन सौवां ऊंट टस से मस नहीं हुआ। आखिर हारकर वह फिर व्यवस्थापक के पास पहुंचा और उसे अपनी विपदा कह सुनाई। व्यवस्थापक ने उस से कहा - जैसे तुमने बांधने का अभिनय किया था , अब ठीक वैसे ही खोलने का अभिनय करो। तभी वह ऊंट उठेगा। ठीक वही हुआ। ऊंट वाले ने व्यवस्थापक के बताए अनुसार ठ

खराब विचार हमारे शत्रु है kharab vichar hamare shatru Hain

आंखें बंद करें और सोचे कि " हमारे सुख के शत्रु कौन हैं ? " तो हमारे आंखों के समक्ष दरिद्रता , शरीर की रोगिष्ट अवस्था , निष्फलता , उपेक्षा , अपमान इत्यादि तत्व आ जाएंगे , पर वास्तविकता यह है कि हमारे पास सद् विचारों की पूंजी न होने के कारण इन सब तत्वों में हमें " शत्रु " के दर्शन होते हैं। वरना , यदि सद् विचारों की पूंजी हमारे पास हो तो इनमें से एक भी तत्व ऐसा नहीं है जो हमें प्रसन्नता का अनुभव करने से रोक सके। याद रखना , बाल्टी में पानी वही आता है जो कि नल में होता है पर नल में तो वही पानी आता है जो टंकी में होता है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि , मन में आने वाले विचार " टंकी " के स्थान पर हैं , जिव्हा पर प्रकट होने वाले शब्द " नल " के स्थान पर हैं और काया में प्रकट होने वाले आचरण " बाल्टी " के स्थान पर हैं। इसका अर्थ है ? यही कि यदि तुमने मन को संभाल लिया तो वचन और काया संभल गए समझो और यदि मन को संभालने में तुम कमजोर साबित हो तो समझ लेना कि वचन और काया को संभालने में भी तुम कमजोर ही साबित हो जाओगे। याद रखना , मन की प्रसन्

अपने विवेक को हमेशा जागृत रखो। Apne Vivek ko hamesha jagrit rakho.

पाटलिपुत्र की एक नगरवधू थी। उसकी सुंदरता की चर्चा दूर - दूर तक होती थी। उसकी एक मुस्कान पर बड़े - बड़े लोग सब कुछ लुटाने को तैयार रहते थे। एक दिन शाल्वन बुद्ध पीठ के मठाधीश वसंत गुप्त उधर से निकले तो नगरवधू पर उनकी नजर पड़ी। उन्होंने उसे देखा तो सब कुछ भूल गए। वे उसी संत वेश में नगरवधू के घर जा पहुंचे। नगरवधू का अनुमान था कि वे भिक्षा के लिए आए होंगे , इसलिए उसने उनका खूब स्वागत - सत्कार किया और अपनी एक सेविका को उन्हें भिक्षा देने के लिए कहा। पर वसंत गुप्त का इरादा तो कुछ और ही था। वह तो प्रणय निवेदन कर रहे थे। नगरवधू के लिए यह किसी आघात से कम न था। पर उसने तिरस्कार करना तो ठीक न समझा , पर शर्त लगा दी कि इतना धन वे दे सकें , तो ही उनकी मनोकामना पूर्ण हो सकेगी। वसंत गुप्त चल दिए और जिन धनिकों से उनका परिचय था , उन सभी से रत्न मांगकर उन्होंने उतनी संपदा जुटा ली। फिर वे लंबे डग भरते हुए आए और वह सब कुछ नगरवधू के चरणों में रख दिया। नगरवधू ने उन रत्नों से अपने पैर रगड़ - रगड़ कर घिसे और उन्हें नाली में फेंक दिया। यह देख वसंत गुप्त घबराए। नगरबधू ने उनसे कहा , ' देव !

कर्म से पहले अंजाम सोचे karm se pahle anjam soche

एक बार राजा नगरचर्या में निकले। रास्ते में देखा कि एक बैरागी चिल्ला रहा था , ' एक सुवचन एक लाख । ' राजा को जिज्ञासा हुई। राजा ने बैरागी से पूछा , तो जवाब मिला कि यदि आप धनराशि दे , तो ही आपको सुवचन प्राप्त होगा। राजा ने अपने वजीर से कहकर धनराशि बैरागी को दी और सुवचन के रूप में , कागज का एक टुकड़ा प्राप्त किया। कागज पर लिखा था , ' कर्म करने से पहले उसके परिणाम को सोच। ' राजा ने बैरागी से पूछा , ' इसके लिए इतनी धनराशि आपने ली? ' बैरागी ने मुस्कुराते हुए कहा , ' यही सुवचन एक दिन आपके प्राण बचाएगी। ' राजा ने महल में जगह - जगह इस सुवचन को फ्रेम करवाकर लगवा दिया। कुछ दिनों के पश्चात राजा बीमार पड़ा , तो वजीर के मन में बड़ा लालच पैदा हुआ और वह राजा का खून करने के लिए उनके खंड में पहुंच गया। ज्यों ही वह राजा पर हमला करने के लिए आगे बढ़ा , उसकी नजर बैरागी के दिए हुए संदेश पर पड़ी , जिसमें लिखा था , ' कर्म करने से पहले अंजाम को सोच । ' वजीर ने परिणाम के बारे में सोचा और थम गया। उसने तुरंत राजा के पैरों में गिरकर माफी मांगी। यदि हम पर

पर - कष्ट निवारे वही शिक्षा है। Per - kasht niwari vahi shiksha hai.

परीक्षा लिए बिना जब गुरु ने अपने तीनों शिष्यों की शिक्षा पूरी होने की बात बताकर घर जाने को कहा तो उन्हें आश्‍चर्य तो हुआ किंतु गुरु को प्रणाम कर तीनों चलें। मार्ग में एक जगह कांटे बिखरे पड़े थे। इसे देखकर एक बार तो तीनों शिष्य रुक गये। पर कुछ देर बाद तीनों की अलग - अलग प्रतिक्रिया हुई। पहले ने कहा , हमें इन कांटों से बचकर चलना चाहिए और वह धीरे - धीरे बचता हुआ पार हो गया। दुसरा जो एक अच्छा खिलाड़ी था , कूदता - फाँदता उन काँटों से बचकर निकल गया। किंतु तीसरे ने अपना सामान वहीं उतार कर रास्ते में बिखरे कांटों को चुन - चुन कर हटाना शुरू कर दिया। उसके हाथ - पांव में कुछ कांटे चुभे भी , खून भी निकला किंतु उसने कोई परवाह नहीं की। दोनों साथी कह रहे थे - ‘ क्यों परेशान होते हो। बचकर निकल आओ। ’ किंतु वह लगा रहा और धीरे - धीरे सब काँटे साफ कर दिये। इतने में उन्होंने देखा कि गुरुदेव खड़े हैं। उन्होंने प्रथम दोनों शिष्यों से कहा - ‘ तुम दोनों की शिक्षा पूरी नहीं हुई है। तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए मैंने ही ये काँटे बिछाये थे। परीक्षा में तुम उत्तीर्ण नहीं हो सके। रास्ते के काँटों को चुनक

“ ऐसी दशा हो भगवन जब प्राण तन से निकले… ” “ aisi dasha ho bhagwan jab pran tan se nikale... ”

“ ऐसी दशा हो भगवन जब प्राण तन से निकले… ”  यह स्तवन तो सुना ही होगा ! पर कभी विचार किया है की जीवन के अंतिम समय में भगवन की भक्ति और धार्मिक प्रवत्ति अनिवार्य क्यों बताई जाती है ? आज आपको बताते हैं की जो आज हमारे मित्र और शत्रु हैं दरअसल उनका और हमारा शायद पूर्व भव का भी कुछ सम्बन्ध है – सम्यक्त्त्व की प्राप्ति के पहले के भव में  श्री पार्श्वनाथ भगवान का “ जीव ”  मरते समय अर्थात जीवन के “ अंतिम समय ” में  अपने भाई के प्रति क्रोध  को नहीं रोक पाया , उसी भाई ने आगे आने वाले 9 भवों तक उनके साथ बैर नहीं छोड़ा और तो और अपने अंतिम भव के अंतिम समय में भी   “ कमठ ”  बनकर भी पीछे लगा रहा। ज्ञानी पुरुषों ने बताया है की  आने वाले भव (Next Birth) का “ आयुष्य बंध ”  इस जीवन के  “ हर तीसरे भाग ”  में हो सकता है वो भी विशेषत:  “ पर्व तिथियों ”  पर इसीलिए पर्व तिथियाँ जैसे आठम , चौदस , पांचम आदि पर अधिक धर्म करने का कहा जाता है। अब अगर माना जाए कि  कुल उम्र 75 वर्ष  की है तो  25 , 50 या 75 वर्ष  में आयुष्य बंध होता है और यदि ऐसा नहीं भी होता है तो जीवन के  “ अंतिम समय ” में अगले भव का आयुष्य - बंध हो

स्वस्थ रहने के लिए यही मूल मंत्र हैं। Swasth rahane ke liye yahi mul mantra hai.

महाराज शीलभद्र वन - उपवनों में होते हुए तीर्थयात्रा के लिए जा रहे थे। रात्रि को उन्होंने एक आश्रम के निकट अपना पड़ाव डाला। आश्रम में आचार्य दम्पत्ति अपने कुछ शिष्यों के साथ निवास करते थे। शिष्यों का शिक्षण , ईश्वर आराधना , जीवन निर्वाह के लिए शरीर श्रम , इन्हीं में आश्रमवासियों का दिनभर का समय बीतता। उस समय पर राजा शीलभद्र बीमार हो गए। चिकित्सकों के लिए दौड़ - भाग शुरू हुई। कुशल वैद्य चिकित्सकों ने उन्हें स्वस्थ कर दिया। राजा ने आश्रमवासियों के एकांत जीवन पर विचार किया तो उन्होंने एक वैद्य स्थायी रूप से आश्रमवासियों की चिकित्सा के लिए रख दिया। वैद्य को वहाँ रहते काफी समय बीत गया , किंतु कोई भी शिष्य या आचार्य अपनी चिकित्सा के लिए उनके पास नहीं आया। वैद्यराज अपने निष्क्रिय जीवन से क्षुब्ध हो गए। एक दिन उकता कर वह आचार्य के पास गए और बोले - गुरुदेव मुझे इतना समय हो गया यहाँ रहते किंतु कोई भी विद्यार्थी मरे पास चिकित्सा के लिए नहीं आया , इसका क्या कारण है ? ’’ ‘‘ वैद्यराज ! भविष्य में भी शायद ही कोई आपके पास चिकित्सा के लिए आएगा। प्रत्येक आश्रमवासी के सुबह से सायं तक श्रम

तीन अजब बातों का गजब चमत्कार‌ teen ajab baton ka gajab chamatkar

न्यायप्रिय राजा हरि सिंह बेहद बुद्धिमान था। वह प्रजा के हर सुख - दु:ख की चिंता अपने परिवार की तरह करता था। लेकिन कुछ दिनों से उसे स्वयं के कार्य से असंतुष्टि हो रही थी। उसने बहुत प्रयत्न किया कि वह अभिमान से दूर रहे पर वह इस समस्या का हल निकालने में असमर्थ था। एक दिन राजा जब राजगुरु प्रखरबुद्धि के पास गए तो राजगुरू राजा का चेहरा देखते ही उसके मन मे हो रही इस परेशानी को समझ गए। उन्होंने कहा , ' राजन् यदि तुम मेरी तीन बातों को हर समय याद रखोगे तो जिंदगी में कभी भी असफल नहीं हो सकते। प्रखरबुद्धि बोले , ' पहली बात , रात को मजबूत किले में रहना। दूसरी बात , स्वादिष्ट भोजन ग्रहण करना और तीसरी , सदा मुलायम बिस्तर पर सोना। ' गुरु की अजीब बातें सुनकर राजा बोला , ' गुरु जी , इन बातों को अपनाकर तो मेरे अंदर अभिमान और भी अधिक उत्पन्न होगा। ' इस पर प्रखरबुद्धि मुस्करा कर बोले , ' तुम मेरी बातों का अर्थ नहीं समझे। मैं तुम्हें समझाता हूं। पहली बात - सदा अपने गुरु के साथ रहकर चरित्रवान बने रहना। कभी बुरी आदत के आदी मत होना। दूसरी बात , कभी पेट भरकर मत खाना जो भी मिले उसे प्र

उत्तराधिकारी घोषित करने हेतु योग्य वर की तलाश uttaradhikari ghoshit karne hitu yogya var ki talash.

बहुत पुराने समय की बात है जब भारत देश छोटे - छोटे राज्यों में बंटा हुआ था। एक राज्य के राजा थे विक्रम सिंह। सावित्री देवी पत्नी के रूप में रानी थी। उनकी एक ही बेटी थी राजकुमारी मनीषा जो बहुत ही समझदार और सुन्दर थी। राज्य के सभी कार्य सुचारू रुप से चल रहे थे। राजकुमारी मनीषा की आयु शादी लायक हो गई तो उनकी शादी की बात होने लगी। योग्य वर ढूंढने के लिए राजा विक्रम सिंह ने चारों दिशाओं में विश्वसनीय आदमी भेजे। दो माह पश्चात् सभी आदमी वापस आ गए पर किसी को योग्य वर नहीं मिला। राजा विक्रम सिंह अत्यंत बुद्धिमान वर चाहते थे , जो हर समस्या का समाधान निकाल सकता हो। राजा ने अपने मंत्रियों के साथ बैठक की और योग्य वर ढूंढने के लिए एक बहुत ही विचित्र फैसला लिया। राज्य में मुनादी करवा दी गई कि , जो नौजवान राजा जी को पहेली पूछेगा अगर उस पहेली का उत्तर राजा जी ने दे दिया तो नौजवान को बीस वर्ष का कठोर कारावास भुगतना पड़ेगा और अगर राजा पहेली का उत्तर न दे पाए तो उस नौजवान से राजकुमारी मनीषा की शादी कर दी जाएगी एवं राज्य का उतराधिकारी भी बनाया जाएगा। इस मुनादी से सभी अचम्भित हुए कि राजा विक्रम सिंह ने यह

शिष्य की गुरु भक्ति और आत्मसमर्पण shishya ki guru bhakti aur atmasamarpan

इस दुनिया में सबसे बड़ा गुरु को माना गया है। गुरु की महिमा शब्दों की मोहताज नहीं होती। भारतीय साहित्य गुरु और शिष्य की कथाओं से परिपूर्ण है। चाहे वो कबीर - रामानन्द हों , एकलव्य - द्रोणाचार्य हों या विवेकानंद - रामकृष्ण हों। जिसने भी अपने गुरु की सेवा और उनकी आज्ञा का पालन मन लगा कर किया है। उनका सदा ही उद्धार हुआ है। सच्चा शिष्य वही है जो गुरु की हर बात को सत्य माने और उनके किये गए कार्यों पर प्रश्न न उठाये। इस तरह वो गुरु की नजरों में भी सच्चे शिष्य बन जाते हैं और गुरु को उसे अपना शिष्य बताने में गर्व महसूस करते हैं। ऐसी ही एक घटना अमीर खुसरो के साथ भी हुयी थी। जिसके बाद हजरत निजामुद्दीन को औलिया अमीर खुसरो की गुरु भक्ति देख कर बहुत प्रसन्नता हुयी। आइये पढ़ते हैं गुरु और शिष्य की कहानी :- गुरु और शिष्य की कहानी अमीर खुसरो की गुरु भक्ति हजरत निजामुद्दीन औलिया के कई हजार शागिर्द थे। लेकिन जैसा कि हर गुरु के साथ होता है कि कोई न कोई उनका प्रिय शिष्य होता है। ऐसे ही हजरत निजामुद्दीन औलिया के 22 बहुत ही करीबी शिष्य थे। वो शिष्य अपने गुरु को अल्लाह का ही एक रूप मानते थे। एक बार हजरत न

दुसरो की रक्षा करना ही मानव धर्म है। Dusron ki Raksha karna hi manav dharm hai.

एक राजा अपनी प्रजा के कष्टों का पता लगाने के लिए रात में अकेले घूमा करता था। एक बार वह एक जंगल से जा रहा था। शाम हो चुकी थी। तभी उसे एक गाय के रंभाने की आवाज सुनाई दी। वह उस ओर दौड़ा। वहां जाकर देखा कि एक गाय दलदल में फंसी हुई थी। राजा ने उसे बाहर निकालने का बहुत प्रयास किया , किंतु सफल नहीं हुआ। गाय का रंभाना सुनकर एक शेर वहां आ पहुंचा। अंधेरा होने के कारण राजा अब कुछ कर नहीं सकता था , इसलिए तलवार लेकर गाय की रक्षा करने लगा , जिससे शेर उस पर आक्रमण न कर दे। नाले के पास एक वट वृक्ष था , जिस पर बैठे तोते ने कहा - राजन , गाय तो मरेगी ही , अभी नहीं तो कल तक दलदल में डूबकर मर जाएगी। उसके लिए तुम अपने प्राण क्यों दे रहे हो। इस सिंह के अलावा और दूसरे जंगली जानवर आ गए तो तुम भी नहीं बचोगे। राजा बोला - अपनी रक्षा तो सभी करते हैं किंतु दूसरों की रक्षा में जो प्राण देते है वे ही धन्य होते है। मैं राजा हूं। मेरा कर्त्तव्य है प्रजा की रक्षा करना। यह गाय भी तो मेरी प्रजा है। अपने प्राण देकर भी मैं इसे बचाने का प्रयास करूंगा। पूरी रात राजा गाय की रक्षा करता रहा। पौ फटते ही कुछ लोग उधर

एक ही घड़ी मुहूर्त में जन्म लेने पर भी… ek hi ghadi muhurt mein janm Lene per bhi....

एक ही घड़ी मुहूर्त में जन्म लेने पर भी सबके कर्म और भाग्य अलग अलग क्यों ? एक बार एक राजा ने विद्वान ज्योतिषियों की सभा बुलाकर प्रश्न किया - मेरी जन्म पत्रिका के अनुसार मेरा राजा बनने का योग था मैं राजा बना , किन्तु उसी घड़ी मुहूर्त में अनेक जातकों ने जन्म लिया होगा जो राजा नहीं बन सके क्यों .. ? इसका क्या कारण है ? राजा के इस प्रश्न से सब निरुत्तर हो गये .. अचानक एक वृद्ध खड़े हुये बोले – महाराज आपको यहाँ से कुछ दूर घने जंगल में एक महात्मा मिलेंगे उनसे आपको उत्तर मिल सकता है ..... राजा ने घोर जंगल में जाकर देखा कि एक महात्मा आग के ढेर के पास बैठ कर अंगार ( गरमा गरम कोयला ) खाने में व्यस्त हैं...... राजा ने महात्मा से जैसे ही प्रश्न पूछा महात्मा ने क्रोधित होकर कहा “ तेरे प्रश्न का उत्तर आगे पहाड़ियों के बीच एक और महात्मा हैं , वे दे सकते हैं । ” राजा की जिज्ञासा और बढ़ गयी , पहाड़ी मार्ग पार कर बड़ी कठिनाइयों से राजा दूसरे महात्मा के पास पहुंचा..... राजा हक्का बक्का रह गया , दृश्य ही कुछ ऐसा था, वे महात्मा अपना ही माँस चिमटे से नोच नोच कर खा रहे थे..... राजा को महात्मा ने भी डांटते हुए

मनुष्य कर्म से बनता है महान manushya karm se banta hai mahan

स्वामी दयानंद का घर तब फर्रुखाबाद में था। एक दिन एक व्यक्ति एक थाली में दाल - भात परोसकर ले आया। वह व्यक्ति घर - गृहस्थीवाला था और मेहनत मजदूरी करके अपना और अपने परिवार का पेट भरता था। उच्च कुल का नहीं होने के बावजूद स्वामीजी ने जब उसके हाथ का अन्न ग्रहण किया , तो ब्राह्मणों को बुरा लगा। नाराज होकर वे स्वामी जी से बोले , आपको इसका भोजन स्वीकार नहीं करना चाहिए था। इस हीन व्यक्ति का भोजन करने के कारण आप भ्रष्ट हो गए हैं। इस पर स्वामी जी ने हंसकर कहा , क्या आप लोग जानते हैं कि अन्न जल दूषित कैसे होता है ? लोगों द्वारा कोई जबाव नहीं दिए जाने पर उन्होंने कहा , नहीं जानते न , तो लीजिए में हीं बताता हूं। वह बोले , अन्न दो प्रकार के होते हैं। एक तो वह , जहां दूसरे को दुख देकर अन्न प्राप्त किया जाता है और दूसरा अन्न वह है जहां उसमें कोई मलिन या अभक्ष्य वस्तु पड़ जाती है। मगर इस व्यक्ति का अन्न तो इन दोनों श्रेणियों में नहीं आता है। इस व्यक्ति द्वारा दिया गया अन्न परिश्रम से कमाए पैसे का है , तब यह दूषित कैसे हो सकता है। वास्तविकता तो यह है कि हमारा मन मलिन होता है और इस कारण हम दूसरों की चीजों

सुखी व्यक्ति की खोज sukhi vyakti ki khoj

चाँदपुर इलाके के राजा कुँवरसिंह जी बड़े अमीर थे। उन्हें किसी चीज़ की कमी नहीं थी , फिर भी उनका स्वास्थ्य अच्छा नहीं था। बीमारी के मारे वे सदा परेशान रहते थे। कई वैद्यों ने उनका इलाज किया , लेकिन उनको कुछ फ़ायदा नहीं हुआ। राजा की बीमारी बढ़ती गई। सारे नगर में यह बात फैल गई। तब एक बूढ़े ने राजा के पास आकर कहा , '' महाराज , आपकी बीमारी का इलाज करने की मुझे आज्ञा दीजिए। '' राजा से अनुमति पाकर वह बोला , '' आप किसी सुखी मनुष्य का कुरता पहनिए , अवश्य स्वस्थ हो जाएँगे। '' बूढ़े की बात सुनकर सभी दरबारी हँसने लगे , लेकिन राजा ने सोचा , ''इतने इलाज किए हैं तो एक और सही। '' राजा के सेवकों ने सुखी मनुष्य की बहुत खोज की , लेकिन उन्हें कोई पूर्ण सुखी मनुष्य नहीं मिला। सभी लोगों को किसी न किसी बात का दु:ख था। अब राजा स्वयं सुखी मनुष्य की खोज में निकल पड़े। बहुत तलाश के बाद वे एक खेत में जा पहुँचे। जेठ की धूप में एक किसान अपने काम में लगा हुआ था। राजा ने उससे पूछा , '' क्यों जी , तुम सुखी हो ?'' किसान की आँखें चमक उठी , चेहरा मुस्करा उठ

प्रजा का सच्चा प्रजापालक होना एक महान शासक की निशानी है। Praja ka saccha praja Palak Hona ek mahan shasak ki nishani hai.

एक बार महाराजा अशोक के राज्य में अकाल पड़ा। जनता भूख तथा प्यास से त्रस्त हो उठी। राजा ने तत्काल राज्य में अन्न के भंडार खुलवा दिए। सुबह से लेने वालों का ताँता लगता और शाम तक न टूटता। एक दिन संध्या हो गई। जब सब लेने वाले निपट गए तो एक कृशकाय बूढ़ा उठा और उसने अन्न माँगा। बाँटने वाले भी थक चुके थे अतः उन्होंने उसे डाँटकर कहा - कल आना आज तो अब खैरात बंद हो गई। ’’ तभी एक हृष्ट - पुष्ट शरीर के नवयुवक जैसा व्यक्ति आया और बाँटने वालों से बोला - बेचारा बूढ़ा है। मैं देख रहा हूँ बड़ी देर से बैठा है यह। शरीर से दुर्बल होने के कारण सबसे पीछे रह गया है। इसे अन्न दे दो। ’’ उसकी वाणी में कुछ ऐसा प्रभाव था कि बाँटने वालों ने उसे अन्न दे दिया। उस नवयुवक की सहायता से उसने गठरी बाँध ली। अब उठे कैसे? तब वही युवक बोला - लाओ मैं ही पहुँचाए देता हूँ। ’’ और गठरी उठाकर पीछे - पीछे चलने लगा।बूढ़े का घर थोड़ी दूर पर रह गया था। तभी एक सैनिक टुकड़ी उधर से गुजरी। टुकड़ी के नायक ने घोड़े पर से उतर कर गठरी ले जाने वाले का फौजी अभिवादन किया। उस व्यक्ति ने संकेत से आगे कुछ बोलने को मना कर दिया। फिर भी बूढ़े की समझ

श्रद्धा और विश्वास के बिना मंत्र भी फल नहीं देते। Shraddha aur vishwas ke Bina mantra bhi fal Nahin dete.

एक आवश्यक राज - काज के लिए मंत्री की तुरंत आवश्यकता पड़ी। उन्हें बुलाया गया तो मालूम पड़ा कि वे पूजा में बैठे हैं , इस समय न आ सकेंगे। काम जरूरी था , राजा ने स्वयं ही मंत्री के पास पहुँचना उचित समझा। राजा के पहुँचने पर भी मंत्री उपासना पूरी होने तक जप ध्यान में बैठे ही रहे। पूजा समाप्त होने पर जब मंत्री उठे तो राजा ने पूछा - भला ऐसी भी कौन महत्त्वपूर्ण बात है जिसके लिए तुम मेरी उपेक्षा करके भी लगे रहे ? ’’ मंत्री ने कहा - राजन मैं गायत्री जप कर रहा था। यह महामंत्र लोक और परलोक में कल्याण को सब साधन जुटाता है। इसका फल बहुत बड़ा है। इसी में मैं तन्मय होकर उपासना करता हूँ। ’’ राजा ने कहा - तब तो इसे हम भी सीखेंगे और वैसा ही लाभ हम भी उठावेंगे। ’’ मंत्री ने कहा - सीखने में हर्ज नहीं , पर आपको वैसा लाभ न मिल सकेगा जैसा बताया गया है। श्रद्धा और विश्वास के बिना मंत्र भी फल नहीं देते। मंत्र सीखने से पहले आपको श्रद्धा की साधना करनी चाहिए। ’’ राजा जिस काम से आए थे वह मंत्रणा करके वे वापस चले गए। पर उस मंत्र की बात उनके मस्तिष्क में जमी ही रही , जिसे मंत्री इतना महत्त्व देते हैं ।

भागवत् कथा धन के लिए नहीं लोक मंगल के लिए होनी चाहिए। Bhagwat Katha dhan ke liye Nahin Lok mangal ke liye honi chahie.

सोमदत्त नामक एक ब्राह्मण राजा के पास गया और बोला - महाराज आपकी आज्ञा हो तो उज्जयिनी के नागरिकों को भागवत् कथा सुनाऊँ। प्रजा का हित होगा और मुझ ब्राह्मण को यज्ञ के लिए दक्षिणा का लाभ भी मिल जाएगा। ’’ राजाभोज ने अपने नवरत्नों और सभासदों की ओर देखा और फिर सोमदत्त की ओर मुख करके बोले - आप अभी जाइए कुछ दिन भागवत् का और पाठ कीजिए। ’’ पहला अवसर था जब महाराज भोज ने किसी ब्राह्मण को यों निराश किया था। लोगों को शंका हुई कि महाराज की धर्म - बुद्धि नष्ट तो नहीं हो गई , उन्होंने विद्या का आदर करना तो नहीं छोड़ दिया। कई सभासदों ने अपनी आशंका महाराज से प्रकट भी की पर उन्होंने तत्काल कोई उत्तर नहीं दिया। ब्राह्मण निराश तो हुआ पर उसने प्रयत्न नहीं छोड़ा। उसने सारी भागवत् कंठस्थ कर डाली और फिर राजदरबार में उपस्थित हुआ। किंतु इस बार भी वही उपेक्षापूर्ण शब्द सुनने को मिले। भोज ने कहा - ब्राह्मणदेव अभी आप अच्छी तरह अध्ययन नहीं कर सके। जाकर अभी और अध्ययन कीजिए। ’’ इसी प्रकार सोमदत्त कई बार राजदरबार में उपस्थित हुआ पर उसे उपेक्षा ही मिली। ब्राह्मण ने इस बार भागवत् के प्रत्येक श्लोक को पढ़ा ही न

संकल्प शक्ति का चमत्कार sankalp Shakti Ka chamatkar

भिशक अनंगपाल के लिए यह कोई नई बात नहीं थी। वे जिस जल से स्नान करते थे , उसमें तो प्रत्येक ही दिन कोई न कोई इत्र , चंदन , अगरु , केवड़ा या गुलाब की सुवास मिलाई जाती थी पर जो मादकता और मधुरता आज के जल में थी , वह कभी भी नहीं मिली थी। विस्मित महाराज भिशक अनंगपाल ने परिचारिका को बुलाया और पूछा - आज जल - कलश में कौन सी सुवास मिलाई गई है। ’’ परिचारिका किसी अज्ञात भय से स्तब्ध हो गई। उसने कहा - क्षमा करें , महाराज! आज एक नई परिचारिका , जो कल ही नियुक्त की गई है , ने स्नान का प्रबंध किया था , आज्ञा हो तो सेवा में उसे ही उपस्थित करूँ। ’’ महाराज भिशक अनंगपाल ने उस दूसरी परिचारिका को बुलाकर पूछा तो वह सहास कर बोली - महाराज उस जल में तो कुछ भी नहीं मिलाया गया। हाँ , वह जल में स्वयं ही अपने साथ अपने मायके से लाई थी। ’’ महाराज की उत्सुकता और भी बढ़ी , उन्होंने पूछा - बताओ परिचारिके तुम्हारा पितृगृह कहाँ हैं क्या यह जल किसी कुएँ का है या पद्म पुष्पित किसी सरोवर का है? ’ ’ नहीं , नहीं महाराज! ऐसे किसी स्थान का जल नहीं था वह। मेरा घर गंधमादन पर्वत की तलहटी पर है और यह जल जो मैं अपने साथ लाई थी ।

लज्जा ही नारी का सच्चा आभूषण है। Lajja hi nari ka saccha abhushan hai.

मगध की सौंदर्य साम्राज्ञी वासवदत्ता उपवन विहार के लिए निकली। उसका साज शृंगार उस राजवधू की तरह था जो पहली बार ससुराल जाती है। एकाएक दृष्टि उपवन - ताल के किनारे स्फटिक शिला पर बैठे तरुण संन्यासी उपगुप्त पर गई। चीवरधारी ने बाह्य सौंदर्य को अंतर्निष्ठ कर लिया था और उस आनंद में कुछ ऐसा निमग्न हो गया कि उसे बाह्य जगत की कोई सुध न रही थी। हवा में पायल की स्वर झंकृति और सुगंध की लहरें पैदा करती वासवदत्ता समीप जा खड़ी हुई। भिक्षु ने नेत्र खोले। वासवदत्ता ने चपल - भाव से पूछा - महामहिम बताएँगे नारी का सर्वश्रेष्ठ आभूषण क्या है ? ’’ ‘‘ जो उसके सौंदर्य को सहज रूप से बढ़ा दे - उत्तर दिया। सहज का क्या अर्थ है ? चंचल नेत्रों को उपगुप्त पर डालती वासवदत्ता ने फिर प्रश्न दोहराया। उपगुप्त ने सौम्य मुस्कान के साथ कहा - देवी आत्मा जिन गुणों को बिना किसी बाह्य इच्छा , आकर्षण , भय या छल के अभिव्यक्ति करे , उसे ही सहज भाव कहते हैं। सौन्दर्य को जो बिना किसी कृत्रिम साधन के बढ़ाता हो , नारी का वह भाव ही सच्चा आभूषण है। ’’ किंतु वह भी वासवदत्ता समझ न सकी। उसने कहा - ‘‘ मैं स्पष्ट

एक दार्शनिक का संसार को देखने का नजरिया दुनिया के लोगों से अलग होता है। Ek darshnik ka sansar ko dekhne ka najriya duniya ke logon se alag hota hai.

एक दिन देवलोक से एक विशेष विज्ञप्ति निकाली गई। जिसने आकाश , पाताल तथा पृथ्वी तीनों लोकों में हलचल मचा दी। प्रसारण इस प्रकार था - ‘‘ अगले सात दिन तक लगातार श्री चित्रगुप्त जी की प्रयोगशाला के मुख्य द्वार पर कोई भी प्राणी असुन्दर वस्तु देकर उसके स्थान पर सुंदर वस्तु प्राप्त कर सकेगा। शर्त यही है कि वह विधाता की सत्ता में विश्वास रखता हो। इसकी परीक्षा वहीं कर ली जावेगी। " बस फिर क्या था , सभी अपनी - अपनी बदलने वाली वस्तुओं की सूची तैयार करने लगे। याद कर - कर के सबों ने अपनी वस्तुओं को लिख लिया जो उन्हें अरुचिकर या असुन्दर लगती थीं। निश्चित तिथि पर देवलोक से कई विमान भेजे गए , जो सुविधापूर्वक सबों को देवलोक पहुँचाने लगे। जब सब लोग वहाँ पहुँच गए तो विधाता ने अपने तीसरे नेत्र की योग दृष्टि से तीनों लोकों का अवलोकन किया कि कोई बचा तो नहीं आने से। उन्होंने पाया कि स्वर्ग तथा पाताल में कोई विशेष नहीं रहा , केवल पृथ्वी पर एक मनुष्य आराम से पड़ा मस्ती में डूबा आनंद मग्न है। पास जाकर उससे पूछा - तात तुमने हमारा आदेश नहीं सुना क्या ? तुम भी चित्रगुप्त के दरबार में क्यों नहीं चल

संसार के सुख , सम्पत्ति और भोग की गिनती में लोग भगवान् से प्रेम करना भूल जाते हैं। Sansar ke Sukh , sampatti aur bhog ki ginti mein log Bhagwan se Prem karna bhul jaate Hain.

गुरुकुल का प्रवेशोत्सव समाप्त हो चुका था , कक्षाएँ नियमित रूप से चलने लगी थीं। योग और अध्यात्म पर कुलपति स्कंधदेव के प्रवचन सुनकर विद्यार्थी बड़ा संतोष और उल्लास अनुभव करते थे। एक दिन प्रश्नोत्तर - काल में शिष्य कौस्तुभ ने प्रश्न किया - गुरुदेव क्या ईश्वर इसी जीवन में प्राप्त किया जा सकता है ? ’’ स्कंध एक क्षण चुप रहे । कुछ विचार किया और बोले - इस प्रश्न का उत्तर तुम्हें कल मिलेगा और हाँ आज सायंकाल तुम सब लोग निद्रादेवी की गोद में जाने से पूर्व १०८ बार वासुदेव मंत्र का जप करना और प्रातःकाल उसकी सूचना मुझे देना। ’’ प्रातःकाल के प्रवचन का समय आया। सब विद्यार्थी अनुशासनबद्ध होकर आ बैठे। कुलपति ने अपना प्रवचन प्रारंभ करने से पूर्व पूछा - तुममें से किस - किस ने कल सायंकाल सोने से पूर्व कितने - कितने मंत्रों का उच्चारण किया। ’’ सब विद्यार्थियों ने अपने - अपने हाथ उठा दिए। किसी ने भी भूल नहीं की थी। सबने १०८-१०८ मंत्रों का जप और भगवान् का ध्यान कर लिया था। किन्तु ऐसा जान पड़ा कि स्कंधदेव का हृदय क्षुब्ध है , वे संतुष्ट नहीं हुए। उन्होंने चारों ओर दृष्टि दौड़ाई कौस्तुभ नहीं था

परहित में जो सुख है उसके आगे कष्ट का कोई मोल नहीं perhit mein jo Sukh hai uske aage kasht ka koi mol nahin.

सर्दी का मौसम था। एक राजा अपने महल की खिड़की से बाहर का दृश्य देख रहा था। शाम ढलने को थी। तभी एक साधु आया और महल के सामने एक पेड़ के नीचे बैठ गया। उसके बदन पर एक लंगोटी को छोड़कर और कोई कपड़ा नहीं था। राजा को उस पर दया आ गई। राजा ने तुरंत एक नौकर के हाथ कुछ गरम कपड़े साधु के पास भेज दिए। थोड़ी देर बाद राजा ने फिर बाहर झांका। उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। साधु अब भी नंगे बदन बैठा था। राजा ने सोचा - साधु को अपने तप का घमंड है , इसलिए उसने कपड़ों का तिरस्कार किया। राजा को क्रोध आया पर उसने नियंत्रण रखा। तभी अंधेरा घिर आया। राजा ने खिड़की बंद कर दी। थोड़ी देर बाद वह सो गया। सुबह राजा घूमने निकला तो ठिठक गया। नंगे बदन साधु अब भी पेड़ के नीचे मौजूद था। राजा ने पूछा - कहिए , रात कैसी कटी ? साधु बोला - कुछ आप जैसी कटी और कुछ आप से अच्छी कटी। यह सुनकर राजा बोला - महाराज ! आप की बात मेरी समझ में नहीं आई। साधु बोला - आपने समझा होगा कि मैंने आपकी भेंट का अपमान किया , पर ऐसी बात नहीं थी। एक गरीब आदमी सर्दी से कांपता हुआ जा रहा था। वे कपड़े मैंने उसे दे दिए। परहित में जो सुख है , उसके आगे

मैं जो कल था आज वह में नहीं हुं main Jo kal tha aaj vah main Nahin hun

एक बौद्ध धर्मगुरु थे। उनके दर्शनों के लिए लोग अक्सर आश्रम में आते थे। स्वामीजी बड़ी उदारता से सबसे मिलते - बात करते और उनकी समस्याओं का समाधान करते। रोज स्वामीजी के पास दर्शनार्थी की भीड़ लगी रहती थी। स्वामीजी की प्रशंसा सुनकर एक साधारण ग्रामीण बहुत प्रभावित हुआ। वह भी स्वामीजी के दर्शानार्थ आश्रम पहुंचा। स्वामी जी की अलौकिक छबि की ओर देखते हुए उसने एक प्रश्न पूछा। स्वामीजी ने उसे उस समस्या का निराकरण बताया। घर पहुंचकर व्यक्ति के मन में कई तरह की शंकाएं उत्पन्न होने लगीं। उन शंकाओं के निवारण के लिए वह व्यक्ति फिर से दूसरे दिन उन्हीं स्वामीजी के पास पहुंचा। इस बार भी स्वामीजी ने शांत भाव से उस व्यक्ति को एक समाधान बताया। वह व्यक्ति हैरान था कि यह समाधान पहले दिन के समाधान से बिल्कुल विपरीत था। इस बात को लेकर वह व्यक्ति बहुत क्रोधित हुआ। स्वामीजी कल तो आप कुछ और ही उपाय बता रहे थे आज कुछ और । आप लोगों को बेवकूफ बनाते हैं। इस पर स्वामीजी ने शांत भाव से मुस्कुराए और कहा कि , ' जो मैं कल था आज मैं वह नहीं हूं। कल वाला मैं तो कल के साथ ही समाप्त हो गया , आज मै आज का नया व्यक्ति हूं। '

जो होता है अच्छे के लिए होता है, शुक्रिया करो रब का Jo hota hai acche ke liye hota hai, shukriya karo Rab Ka

अपने बचपन में एक कहानी सुनी होगी कि एक राजा का अंगूठा कट गया। उसने यह बात मंत्री को बताई। मंत्री ने कहा, 'उदास ना हो राजन जो होता है अच्छे के लिए होता है।' राजा यह बात सुनकर क्रोधित हो गया कि उसका तो अंगूठा कट गया और मंत्री कह रहा है जो होता है अच्छे के लिए होता है। उसने मंत्री को कारागार में डलवा दिया। कई दिन बीते, राजा जंगल में शिकार खेलने गया। सैनिक इधर-उधर भटक गए, वह अकेला चलता फिरता आदिवासियों की बस्ती में पहुंच गया। वे क्या जाने की कौन राजा कौन प्रजा ! उन्होंने उसे पकड़ लिया क्योंकि उन्हें किसी न किसी आदमी की बलि देनी थी। उनके गुरु ने कहा था कि अपना कार्य सिद्ध करना चाहते हो तो किसी श्रेष्ठ पुरुष की बलि दो, तुम्हारा काम सिद्ध हो जाएगा। आदिवासी उस राजा को पकड़कर गुरु के सामने लाए और कहा, 'लीजिए इस की बलि दीजिए।' राजा ने बहुत समझाया पर वह भीड़ कहां मानने को तैयार थी, गुरु ने मंत्रोच्चार आरंभ किए और आदेश दिया की बलि चढ़ाई जाए। तभी यकायक उसकी नजर पड़ी कि राजा का अंगूठा नहीं है। गुरु ने कहा, 'इसे छोड़ दो क्योंकि इसका अंग भंग है और जिसका अंग भंग हो उसकी बलि देवी स्

दुनिया का हर धर्म इंसान को इंसान से जोड़ने का काम करता है। Duniya Ka har dharm insan ko insan se jodne ka kam karta hai.

महाभारत में लिखा है - ' धर्मो रक्षति रक्षित:। ' मनुष्य धर्म की रक्षा करे तो धर्म भी उसकी रक्षा करता है। यह विनियम का सिद्धांत है। संसार में ऐसा व्यवहार चलता है। भौतिक सुख की चाह में लोग धर्म की ओर प्रवृत्त होते हैं। कुछ देने की मनौतियां - वायदे होते हैं , स्वार्थो का सौदा चलता है। पाप को छिपाने के लिए पुण्य का प्रदर्शन किया जाता है। यदि ऐसा होता है , तो धर्म से जुड़ी हर परंपरा , प्रयत्न और परिणाम गलत हैं , जो हमें साध्य तक नहीं पहुंचने देते। आचार्य तुलसी ने इसीलिए ऐसे धर्म को आडंबर माना। ' धर्मो रक्षति रक्षित: ' - यह एक बोधवाक्य है , जीवन का वास्तविक दर्शन है। मनुष्य की धार्मिक वृत्ति उसकी सुरक्षा करती है , यह व्याख्या सार्थक है। ऐसा इसलिए क्योंकि वास्तव में धर्म का न कोई नाम होता है और न कोई रूप। व्यक्ति के आचरण , व्यवहार या वृत्ति के आधार पर ही उसे धार्मिक या अधार्मिक होने का प्रमाणपत्र दिया जा सकता है। धार्मिक व्यक्ति के जीवन में किसी प्रकार का कष्ट नहीं आता , उसे बुढ़ापा , बीमारी या आपदा का सामना नहीं करना पड़ता , ऐसी बात नहीं है। धार्मिक व्यक्ति के जीवन में भी बुढ़

मैंने उसे सौ साल तक सहा किंतु तुम एक दिन भी न सह सके। Main use sau sal tak Saha kintu tum ek din Bhi Na Saha sake.

एक जंगल के निकट एक महात्मा रहते थे। वे बड़े अतिथि - भक्त थे। नित्य प्रतिदिन जो भी पथिक उनकी कुटिया के सामने से गुजरता था उसे रोककर भोजन दिया करते थे और आदरपूर्वक उसकी सेवा किया करते थे। एक दिन किसी पथिक की प्रतीक्षा करते - करते उन्हें शाम हो गई पर कोई राही न निकला। उस दिन नियम टूट जाने की आशंका में वे बड़े व्याकुल हो रहे थे। उन्होंने देखा कि एक सौ साल का बूढ़ा थका - हारा चला आ रहा है। महात्मा जी ने उसे रोककर पैर धुलाए और भोजन परोसा। बूढ़ां बिना भगवान् का भोग लगाए और धन्यवाद दिए तत्काल भोजन पर जुट गया। यह सब देख महात्मा को आश्चर्य हुआ और बूढ़े से इस बात की शंका की। बूढ़े ने कहा - मैं न तो अग्नि को छोड़कर किसी ईश्वर को मानता नहीं हूँ न किसी देवता को। ’’ महात्मा जी उसकी नास्तिकता पूर्ण बात सुनकर बड़े क्रुद्ध हुए और उसके सामने से भोजन का थाल खींच लिया तथा बिना यह सोचे कि रात में वह इस जंगल में कहाँ जाएगा , कुटीया से बाहर कर दिया। बूढ़ा अपनी लकड़ी टेकता हुआ एक ओर चला गया। रात में महात्मा जी को स्वप्न आया , भगवान् कह रहे थे - साधु उस बूढ़े के साथ किए तुम्हारा व्यवहार ने अति

संवेदनशील मन ही ईश्वर अनुभूति करता है samvedansheel man hi ishwar ki anubhuti karta hai

एक धार्मिक व्यक्ति था। भगवान में उसकी बड़ी श्रद्धा थी। उसने मन ही मन प्रभु की एक तस्वीर बना रखी थी। एक दिन भक्ति से भरकर उसने भगवान से कहा - भगवान मुझसे बात करो , और एक बुलबुल चहकने लगी लेकिन उस आदमी ने नहीं सुना। इसलिए इस बार वह जोर से चिल्लाया और आकाश में घटाएं उमङ़ने लगी , बादलो की गड़गडाहट होने लगी लेकिन आदमी ने कुछ नहीं सुना। उसने चारो तरफ निहारा , ऊपर - नीचे सब तरफ देखा और बोला , भगवान मेरे सामने तो आओ और बादलो में छिपा सूरज चमकने लगा। पर उसने नहीं देखा आखिरकार वह आदमी गला फाड़कर चीखने लगा भगवान मुझे कोई चमत्कार दिखाओ तभी एक शिशु का जन्म हुआ और उसका प्रथम रुदन गूंजने लगा किन्तु उस आदमी ने ध्यान नहीं दिया। अब तो वह व्यक्ति रोने लगा और भगवान से याचना करने लगा ' भगवान मुझे स्पर्श करो मुझे पता तो चले तुम यहां हो ,मेरे पास हो ,मेरे साथ हो और एक तितिली उड़ते हुए आकर उसके हथेली पर बैठ गई। लेकिन उसने तितली को उड़ा दिया , और उदास मन से आगे चला गया। भगवान इतने सारे रूपो में उसके सामने आए इतने सारे ढंग से उससे बात की पर उस आदमी ने पहचाना ही नहीं शायद उसके मन में प्रभु

दु:ख को तपस्या मानकर स्वीकार करो, तुम्हें सुख की अनुभूति होगी dukh ko Tapasya Mankar swikar karo tumhen Sukh ki Anubhuti hogi

अग्नि में तपने का दु:ख घड़े को, मजबूती का सुख देता है। ऑपरेशन का दु:ख मरीज को, स्वास्थ्य का सुख प्रदान करता है। प्रसूति का दु:ख स्त्री को, पुत्र दर्शन का सुख देता है। आग में तपने का दु:ख स्वर्ण को, विशुद्धि का सुख देता है। प्रश्न यह है कि दु:ख में हमें विहृलता के दर्शन होते हैं या तपस्या के ? दु:ख के प्रति हमारी शत्रु दृष्टि है या मित्रदृष्टि? संपत्ति में वस्तु को, सत्ता को, सौंदर्य को यावत् व्यक्ति को खरीदने की क्षमता निहित है इस बात का तो हमें ख्याल है, पर दु:ख में सद्गुणों को, समाधि को, सद् गति को यावत् परम परमगति को खरीदने की क्षमता निहित है इस बात का हमें ख्याल है भला ? याद रखना, इस दुनिया में सुख ने जितने व्यक्तियों को सज्जन बनाया है उससे कई गुना अधिक व्यक्तियों को दु:ख ने सज्जन बनाया है। सुखी मनुष्य ने दुनिया को यदि युद्धों की भेंट दी है तो दु:खी मनुष्यों ने दुनिया को शांति और सौहार्द्र की साम्राज्य की सौगात दी है। इसीलिए तो कहा गया है कि " दु:खम् जन्तो: परम धनम् " अर्थात् दु:ख मनुष्य का श्रेष्ठकोटि का धन है। यद्यपि, उसे सहन करना आए तो ! उसे पहचान ना आए तो ! और उसका सद

विट्ठल तो मुझे हमेशा से देख रहा है। Vitthal Tu mujhe hamesha se dekh raha hai.

नेत्रहीन विट्ठल भक्त कात्यान सुदूर पहाड़ी पर स्थित मंदिर में आयोजित एक मेले में अन्य ढेरों श्रद्धालुओं के साथ जा रहा था। वह पूरे उत्साह के साथ विट्ठल के भजन गा रहा था। भीड़ में हट्टे - कट्टे नौजवान भी थे और कई वयस्क स्त्री - पुरुष भी , जो हांफते हुए रास्ता पार कर रहे थे। कात्यान को देखकर एक युवक ने पूछा - पहाड़ी तो बहुत ऊंची है और अभी चौथाई रास्ता भी पार नहीं हो पाया है। तुम वहां तक कैसे पहुंच पाओगे ? कात्यान हंसते हुए बोला - मित्र , मैं तो केवल अपना शरीर ढो रहा हूं। मेरी आत्मा तो कब की ऊपर विट्ठल के पास जा चुकी है। इस जवाब ने युवक में जोश भर दिया और वह भी जयकारा लगाता हुआ ऊपर चढ़ने लगा। वह अपने सारे कष्ट भूल गया। हालांकि सबसे अधिक कष्ट कात्यान को ही हो रहा था। फिर भी वह अपनी गठरी और झोला संभाले चला जा रहा था। जब सब ऊपर मंदिर के पास पहुंच तो एक भक्त ने कात्यान से पूछा - आप इतने कष्ट उठाकर यहां तक क्यों आए ? आपकी तो आंखें ही नहीं हैं। भला आप क्या दर्शन करेंगे ? इस पर कात्यान ने थोड़ा भावुक होकर कहा - भाई मैं विट्ठल को न देख पाऊं तो क्या हुआ। मेरा विट्ठल तो मुझे पहाड़ी के नीचे

अपने अज्ञान को जानने वाला ही ज्ञानी होता है। Apne agyan ko janne wala hi Gyani hota hai.

यूनान की राजधानी एथेंस में एक दिन देववाणी हुई कि सुकरात सबसे बड़ा ज्ञानी है। लोग जो सुकरात के प्रशंसक थे , वे दौड़कर सुकरात के पास पहुंचे और उन्हें बताया कि आकाशवाणी हुई है कि आप सबसे बड़े ज्ञानी हैं। सुकरात ने कहा , ' यह बिल्कुल गलत बात है। तुम लोगों ने ठीक से नहीं सुना होगा। मैं सबसे बड़ा ज्ञानी नहीं हूं। मैं तो अपने को अज्ञानी मानता हूं । ' लोग लौटकर गए और देवी से पूछा , ' आपने कहा कि सुकरात सबसे बड़ा ज्ञानी है। ' जब यह बात हम लोगों ने उससे कही तो वह कहता है , झूठी बात है। मैं सबसे बड़ा ज्ञानी नहीं हूं , अज्ञानी हूं। आप बताएं सच्चाई क्या है ? देवी ने कहा , ' जो अपने अज्ञान को जानता है , वस्तुत: वही सबसे बड़ा ज्ञानी है। ' अपने अज्ञान को जानने वाला ही ज्ञानी होता है। जो ज्ञान का अहंकार करता है , वह कभी ज्ञानी नहीं होता। हर व्यक्ति अनुभव करे , अपने अज्ञान को देखे कि अभी मैं कितना कम जानता हूं। जानना बहुत कुछ है। कुछ लोग पढ़ - लिखकर अहंकारी हो जाते हैं , यह प्रवृत्ति ठीक नहीं है।