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Showing posts from May, 2020

जीवन में प्राकृतिक सौंदर्य से बड़ी कोई अनुभूति नहीं jivan mein prakrutik soundarya se badi koi anubhuti Nahin

बहुत ही पुराने समय की बात है । मिस्र देश का एक राजा था। जिस पर देवता प्रसन्न हो गये और उसके पास आये और उसे उपहार स्वरुप एक चमत्कारी तलवार दी और उसे बोले कि जाओ और दुनिया फतह करो । इस पर राजा ने भगवान से सवाल किया कि ” भगवन आप भी कमाल करते है भला मुझे किस चीज़ की कमी है जो मैं पूरी दुनिया को फतह करूँ । ” इस पर देवता ने फिर से कुछ सोचकर : " पारसमणी " देते हुए राजा से कहा ये लो पारसमणि और जितना चाहे उतना धन की प्राप्ति करो । ” इस पर राजा ने फिर से सवाल किया ” भगवान मैं इतना धन प्राप्त करकर क्या करूँगा बताओ । ” राजा ने वो लेने से भी मना कर दिया । इस पर देवता ने उसे एक अप्सरा देते हुए कहा " ये लो मैं तुम्हे तुम्हारे साथ रहने को ये खूबसूरत अप्सरा देता हूँ । ” इस पर राजा ने कहा भगवान मुझे ये भी नहीं चाहिए आपके पास इन सब से कुछ बेहतर हो तो बताओ । देवता अब सोच में पड़ गया और कहने लगा सभी मनुष्य तो यही सब पाने के लिए संघर्ष करते है और मैं तुम्हे सहर्ष इतना सब दे रहा हूँ फिर भी तुम मना कर रहे हो तो तुम ही बताओ मैं तुम्हारे लिए किस चीज़ की व्यवस्था करूँ जो तुम्हे पसंद हो । राजा

भगवान को पाने के लिए किसी भी ज्ञान की जरूरत नहीं होती। Bhagwan ko pane ke liye Kisi bhi gyan ki jarurat Nahin Hoti.

एक पंडित जी थे। उन्होंने एक नदी के किनारे अपना आश्रम बनाया हुआ था। पंडित जी बहुत विद्वान थे। उनके आश्रम में दूर-दूर से लोग ज्ञान प्राप्त करने आते थे। नदी के दूसरे किनारे पर लक्ष्मी नाम की एक ग्वालिन अपने बूढ़े पिताश्री के साथ रहती थी। लक्ष्मी सारा दिन अपनी गायों को देखभाल करती थी। सुबह जल्दी उठकर अपनी गायों को नहला कर दूध दोहती , फिर अपने पिताजी के लिए खाना बनाती , तत्पश्चात् तैयार होकर दूध बेचने के लिए निकल जाया करती थी। पंडित जी के आश्रम में भी दूध लक्ष्मी के यहाँ से ही आता था। एक बार पंडित जी को किसी काम से शहर जाना था। उन्होंने लक्ष्मी से कहा कि उन्हें शहर जाना है , इसलिए अगले दिन दूध उन्हें जल्दी चाहिए। लक्ष्मी अगले दिन जल्दी आने का वादा करके चली गयी। अगले दिन लक्ष्मी ने सुबह जल्दी उठकर अपना सारा काम समाप्त किया और जल्दी से दूध उठाकर आश्रम की तरफ निकल पड़ी। नदी किनारे उसने आकर देखा कि कोई मल्लाह अभी तक आया नहीं था। लक्ष्मी बगैर नाव के नदी कैसे पार करती ? फिर क्या था , लक्ष्मी को आश्रम तक पहुँचने में देर हो गयी। आश्रम में पंडित जी जाने को तैयार खड़े थे। उन्हें सिर्फ लक्ष्मी का इन्त

सबसे बड़ा पुण्यात्मा कौन है। Sabse bada punyatma kaun hai.

काशी प्राचीन समय से प्रसिद्ध है। संस्कृत विद्या का वह पुराना केन्द्र है। इसे भगवान् विश्वनाथ की नगरी या विश्वनाथपुरी भी कहा जाता है। विश्वनाथजी का वहाँ बहुत प्राचीन मन्दिर है। एक दिन विश्वनाथ मंदिर के पुजारी ने स्वप्न देखा कि भगवान् विश्वनाथ उससे मन्दिर में विद्वानों तथा धर्मात्मा लोगों की सभा बुलाने को कह रहे हैं। पुजारी ने दूसरे दिन सबेरे ही सारे नगर में इसकी घोषणा करवा दी। काशी के सभी विद्वान् , साधु और अन्य पुण्यात्मा दानी लोग भी गंगा जी में स्नान करके मन्दिर में आये। सबने विश्वनाथ जी को जल चढ़ाया , प्रदिक्षणा की और सभा- मण्डप में तथा बाहर खड़े हो गये। उस दिन मन्दिर में बहुत भीड़ थी। सबके आ जाने पर पुजारी ने सबसे अपना स्वप्न बताया। सब लोग हर- हर महादेव की ध्वनि करके शंकर जी की प्रार्थना करने लगे। जब भगवान् की आरती हो गयी घण्टे- घड़ियाल के शब्द बंद हो गये और सब लोग प्रार्थना कर चुके , तब सबने देखा कि मन्दिर में अचानक खूब प्रकाश हो गया है। भगवान् विश्वनाथ की मूर्ति के पास एक सोने का पात्र पड़ा था , जिस पर बड़े- बड़े रत्न जड़े हुए थे। उन रत्नों की चमक से ही मन्दिर में प्रकाश हो रहा था

इंसानियत की कद्र करना इनसे सीखें insaniyat ki Kadar karna in se sikhen

एक बार एक नवाब की राजधानी में एक फकीर आया। फकीर की कीर्ति सुनकर पूरे नवाबी ठाठ के साथ भेंट के थाल लिए हुए वह फकीर के पास पहुंचा। तब फकीर कुछ लोगों से बातचीत कर रहे थे। उन्होंने नवाब को बैठने का निर्देश दिया। जब नवाब का नंबर आया तो फकीर ने नवाब की ओर भेंट का थाल बढ़ा दिया। भेंट के हीरे-जवाहरातों को भरे थालों को फकीर ने छुआ तक नहीं , हां बदले में एक सूखी रोटी नवाब को दी , कहां इसे खा लो। रोटी सख्त थी , नवाब से चबायी नहीं गई। तब फकीर ने कहा जैसे आपकी दी हुई वस्तु मेरे काम की नहीं उसी तरह मेरी दी हुई वस्तु आपके काम की नहीं। हमें वही लेना चाहिए जो हमारे काम का हो। अपने काम का श्रेय भी नहीं लेना चाहिए। नवाब फकीर की इन बातों को सुनकर काफी प्रभावित हुआ। नवाब जब जाने के लिए हुआ तो फकीर भी दरवाजे तक उसे छोड़ने आया। नवाब ने पूछा , मैं जब आया था तब आपने देखा तक नहीं था , अब छोड़ने आ रहे हैं ? फकीर बोला , बेटा जब तुम आए थे तब तुम्हारे साथ अहंकार था। अब तो चोला तुमने उतार दिया है तुम इंसान बन गए हो। हम इंसानियत का आदर करते हैं। नवाब नतमस्तक हो गया।

सत्संग से आनंद ही आनंद satsang se Anand hi Anand

हकीम लुकमान के जीवन से जुडी घटना है। जब वे मृत्यु शैय्या पर अंतिम सांस ले रहे थे तो उन्होंने अपने पुत्र को पास बुला कर कहा - बेटा मैं जाते - जाते एक अंतिम महत्वपूर्ण शिक्षा देना चाहता हूँ। इतना कहकर लुकमान ने पुत्र से धूपदान लाने के लिए कहा। जब वह धूपदान लेकर आया तो लुकमान ने उसमें से चुटकी भर चंदन लेकर उसके हाथ में थमाया और संकेत से उसे कोयला लाने के लिए कहा। जब पुत्र कोयला लेकर आया तो उन्होंने दूसरे हाथ में कोयले को रखने का आदेश दिया। कुछ देर बाद फिर लुकमान ने कहा - अब इन्हें अपने - अपने स्थान पर वापस रख आओ। पुत्र ने वैसा ही किया। उसकी जिस हथेली में चंदन था , वह उसकी सुगंध से अब भी महक रही थी और जिस हाथ में कोयला था , वह हाथ काला दिखाई पड़ रहा था। लुकमान ने पुत्र को समझाया - बेटे अच्छे व्यक्तियों का साथ चंदन जैसा होता है। जब तक उनका साथ रहेगा , तब तक तो सुगंध मिलेगी ही , किंतु साथ छूटने के बाद भी उनके सदविचारो की सुवास से जिंदगी तरोताजा बनी रहेगी। जबकि दुर्जनों का साथ कोयले जैसा है। कुसंगति से प्राप्त कुसंस्कारो का प्रभाव आजीवन बना रहता है। इसलि

अभिमान अक्ल को खा जाता है abhiman akal ko kaha jata hai

एक घर के मुखिया को यह अभिमान हो गया कि उसके बिना उसके परिवार का काम नहीं चल सकता। उसकी छोटी सी दुकान थी। उससे जो आय होती थी , उसी से उसके परिवार का गुजारा चलता था। चूंकि कमाने वाला वह अकेला ही था इसलिए उसे लगता था कि उसके बगैर कुछ नहीं हो सकता। वह लोगों के सामने डींग हांका करता। एक दिन वह एक संत के सत्संग में पहुंचा। संत कह रहे थे , " दुनिया में किसी के बिना किसी का काम नहीं रुकता। यह अभिमान व्यर्थ है कि मेरे बिना परिवार या समाज ठहर जाएगा। सभी को अपने भाग्य के अनुसार प्राप्त होता है। " सत्संग समाप्त होने के बाद मुखिया ने संत से कहा , " मैं दिन भर कमाकर जो पैसे लाता हूं उसी से मेरे घर का खर्च चलता है। मेरे बिना तो मेरे परिवार के लोग भूखे मर जाएंगे। " संत बोले , " यह तुम्हारा भ्रम है । हर कोई अपने भाग्य का खाता है। " इस पर मुखिया ने कहा , " आप इसे प्रमाणित करके दिखाइए। " संत ने कहा , " ठीक है। तुम बिना किसी को बताए घर से एक महीने के लिए गायब हो जाओ। " उसने ऐसा ही किया। संत ने यह बात फैला दी कि उसे बाघ ने अपना भोजन बना लिया है। मुखिया के प

जैसा ध्यान - वैसा निर्माण jaisa dhyan - vaisa nirman

महाप्रलय की रात्रि का चौथा चरण - प्रजापति ब्रह्मा की निद्रा टूटी। परमेश्वर का स्मरण कर पुनः सृष्टि का रचना की इच्छा से उन्होंने शैया - त्याग की और बाहर आए तो देखा कि सृष्टि तो पहले से ही तैयार है। " जिस सृष्टि की रचना की बात मेरे मन में आ रही थी , वह तो पहले से ही तैयार है। ’’ यह सोचकर ब्रह्मा को बड़ा विस्मय हुआ , उन ने सूर्य भगवान् से प्रश्न किया - ‘‘ देव ! मैं यह क्या देख रहा हूँ , सृष्टि निर्माण की क्षमता और अधिकारी तो केवल मुझ प्रजापति को ही है , फिर यह सृष्टि किसने रचकर कैसे कर दी ?" जगदात्मा सविता देवता हँसे और बोले - ‘‘ महापुरुष !  यह तो आपने एक ओर ही देखा। अभी आपने आग्नेय , दक्षिण नैऋत्य , पश्चिम , वायव्य , उत्तर , ईशान ऊर्ध्व और अधः दिशाओं की ओर भी तो दृष्टिपात   करें । ’’        प्रजापति ने दशों दिशाओं की ओर घूमकर देखा तो उन्हें सर्वत्र एक - एक सृष्टि के दर्शन हुए। इससे उनका असमंजस और भी गहरा होता गया ! विस्मित ब्रह्मा ने कहा - ‘‘ भगवन् ! अब और अधिक पहेली मत बुझाइए। कृपया यह बताइए कि ये सब सृष्टियाँ रचीं किसने ? मुझ जैसी क्षमता किसी में आई तो कैसे आई ? ’’      सूर्

घने अंधेरे में भी एक उम्मीद की किरण जरूर होती है। Ghane andhere mein Bhi ek ummid ki Kiran jarur hoti hai.

दो राजाओं में युद्ध हुआ। विजयी राजा ने हारे हुए राजा के किले को घेर लिया और उसके सभी विश्वासपात्र अधिकारियों को बंदी बनाकर कारागृह में डाल दिया। उन कैदियों में पराजित राजा का युवा मंत्री और उसकी पत्नी भी थे। दोनों को किले के एक विशेष हिस्से में कैद कर रखा गया था। कैदखाने के दरोगा ने उन्हें आकर समझाया कि हमारे राजा की गुलामी स्वीकार कर लो नहीं तो कैद में ही भूखे-प्यासे तड़प-तड़पकर मर जाओगे। किन्तु स्वाभिमानी मंत्री को गुलामी स्वीकार नहीं थी , इसलिए चुप रहा। दरोगा चला गया। इन दोनों को जिस भवन में रखा गया था , उसमें सौ दरवाजे थे। सभी दरवाजों पर बड़े-बड़े ताले लगे हुए थे। मंत्री की पत्नी का स्वास्थ्य लगातार गिरता जा रहा था और वह बहुत घबरा गई थी , किन्तु मंत्री शांत था। उसने पत्नी को दिलासा देते हुए कहा - निराश मत हो। गहरे अंधकार में भी रोशनी की एक किरण अवश्य होती है। ऐसा कहकर वह एक - एक दरवाजे को धकेलकर देखने लगा। दरवाजा नहीं खुला। लगभग बीस-पच्चीस दरवाजे देखे , किन्तु कोई भी दरवाजा नहीं खुला।                            मंत्री थक गया और उसकी पत्नी की निराशा बढ़ती गई। वह बोली - तुम्हारा दिमाग तो

आप की कुल आयु कितने वर्ष की होगी ? Aap ki kul aayu kitne varsh ki hogi ?

राजा नौशेरवाँ को जो भी मिले उसी से कुछ न कुछ सीखने का स्वभाव हो गया था। अपने इस गुण के कारण ही उन्होंने अपने जीवन के स्वल्प काल में महत्त्वपूर्ण अनुभव अर्जित कर लिए थे। राजा नौशेरवाँ एक दिन वेष बदलकर कहीं जा रहे थे। मार्ग में उन्हें एक वृद्ध किसान मिला। किसान के बाल पक गए थे पर शरीर में जवानों जैसी चेतना विद्यमान थी। उसका रहस्य जानने की इच्छा से नौशेरवाँ ने पूछा - ‘‘ महानुभाव ! आपकी आयु कितनी होगी ? ’’ वृद्ध ने मुस्कान भरी दृष्टि नौशेरवाँ पर डाली और हँसते हुए उत्तर दिए - ‘‘ कुल ४ वर्ष ’’ नौशेरवाँ ने सोचा बूढ़ा दिल्लगी कर रहा है पर सच-सच पूछने पर भी जब उसने चार वर्ष ही आयु बताई तो उन्हें कुछ क्रोध आ गया। एक बार तो मन में आया कि उसे बता दू कि मैं साधारण व्यक्ति नहीं नौशेरवाँ हूँ। ’’ पर उन्होंने अपने विवेक को सँभाला और विचार किया कि उत्तेजित हो उठने वाले व्यक्ति सच्चे जिज्ञासु नहीं हो सकते , किसी के ज्ञान का लाभ नहीं ले सकते , इसलिए उठे हुए क्रोध का उफान वहीं शांत हो गया। अब नौशेरवाँ ने नए सिरे से पूछा - ‘‘ पितामह ! आपके बाल पक गए , शरीर में झुर्रियाँ पड़ गईं , लाठी लेकर चलते हैं , मेरा

समस्या और परिस्थिति का डटकर सामना करें samasya aur paristhiti Ka datkar samna Karen

समस्याओं से घबराकर भागने से उनका निराकरण नहीं होता। डटकर सामना करने से ही समस्याओं पर काबू पाया जा सकता है। एक प्रसिद्ध वक्ता एक बार एक सरोवर के किनारे चले जा रहे थे। वे किसी गंभीर चिंतन में उलझे हुए थे। सरोवर से कुछ ही दूरी पर पेड़ों का समूह था , जिस पर कई बन्दर रहा करते थे। बंदरों के झुण्ड ने वक्ता को देखा तो वे उन्हें डराने के लिए उनकी तरफ बढ़े। जब बंदरों का झुण्ड उनके नजदीक आ गया , तब अचानक वक्ता का ध्यान टूटा। उन्होंने देखा कि लाल मुँह के विशाल व विकराल बन्दर उनसे अधिक दूरी पर नहीं थे। उन्हें अपनी ओर आते देख वक्ता घबरा गए और पलटकर भागने लगे। बन्दर भी उनके पीछे -पीछे भागे। वक्ता को लगा कि अब उनकी जिंदगी नहीं बचेगी।   तभी,         उधर से किसी बुजुर्ग का गुजरना हुआ। उन्होंने वक्ता को भागते देखा और उसके पीछे पड़े बंदरों के झुण्ड को भी। वे तुरंत समझ गए कि माजरा क्या है? अनुभवी बुजुर्ग ने वक्ता से जोर से चिल्लाकर कहा - वहीँ रुक जाओ भागो मत। वह पीछे पलटकर बंदरों के सामने खड़े हो गए। उनके इस तरह खड़े हो जाने से बंदरों का झुण्ड रुक गया। वे उसी तरह सीधे खड़े रहे तो बंदरों का झुण्ड वहाँ से भाग गया

भाग्य से बढ़कर पुरूषार्थ है bhagya se badhkar purusharth hai

राजा विक्रमादित्य के पास सामुद्रिक लक्षण जानने वाला एक ज्योतिषी पहुँचा। विक्रमादित्य का हाथ देखकर वह चिंतामग्न हो गया। उसके शास्त्र के अनुसार तो राजा दीन , दुर्बल और कंगाल होना चाहिए था , लेकिन वह तो सम्राट थे , स्वस्थ थे। लक्षणों में ऐसी विपरीत स्थिति संभवतः उसने पहली बार देखी थी। ज्योतिषी की दशा देखकर विक्रमादित्य उसकी मनोदशा समझ गए और बोले कि ' बाहरी लक्षणों से यदि आपको संतुष्टि न मिली हो तो छाती चीरकर दिखाता हूँ , भीतर के लक्षण भी देख लीजिए ।' इस पर ज्योतिषी बोला - 'नहीं , महाराज ! मैं समझ गया कि आप निर्भय हैं , पुरूषार्थी हैं , आपमें पूरी क्षमता है। इसीलिए आपने परिस्थितियों को अनुकूल बना लिया है और भाग्य पर विजय प्राप्त कर ली है। यह बात आज मेरी भी समझ में आ गई है कि ' युग मनुष्य को नहीं बनाता , बल्कि मनुष्य युग का निर्माण करने की क्षमता रखता है यदि उसमें पुरूषार्थ हो , क्योंकि एक पुरूषार्थी मनुष्य में ही हाथ की लकीरों को बदलने की सामर्थ्य होती है।' अर्थात स्थिति एवं दशा मनुष्य का निर्माण नहीं करती, यह तो मनुष्य है जो स्थिति का निर्माण करता है। एक दास स्वतंत्र व

इस दुनिया में श्रेष्ठ और महान कौन ? Is duniya mein shreshth aur mahan kaun ?

एक बार मगध के सम्राट बिम्बिसार संत सत्यकेतु के आश्रम में पहुंचे और दण्डवत होकर निवेदन किया कि भगवन इस विश्व में श्रेष्ठ और महान व्यक्ति कौन है ? सत्यकेतु ने सामने खेत में काम कर रही एक अधिक उम्र की वृद्धा की ओर संकेत करते हुए कहा- ' उधर देखिए, उस वृद्धा के शरीर में शक्ति नहीं है, लेकिन कुदाली चला रही है। जानते हो क्यों ? तब सम्राट ने पूछा - क्यों ? सत्यकेतु ने समझाया सौ वर्ष की अशक्त वृद्धा कुंआ अपने लिए नहीं खोद रही है। आप अपने लिए जीते हैं। मैं दूसरों के लिए जीता हूं। लेकिन यह वृद्धा मानव जाति के लिए जीना चाहती है। कुंआ खोदकर यह आते-जाते राहगीरों को पानी पिलाएगी। इसमें शक्ति नहीं है और ना ही इसे कुएं की आवश्यकता है। फिर भी लोक कल्याण की भावना इसमें कितनी है और यह भविष्य की सोच रखने वाली है। इसलिए कहता हूं कि वह विश्व की महानतम प्राणी है। संक्षेप में: आप अपने लिए जीते हैं। अगर आप दूसरों के लिए जीते हैं तो इस तरह जीने का एक अलग मजा होता है इसे आप देख, सुन नहीं सकते बल्कि इसे महसूस कर सकते हैं।

यौवन का मूलः संयम-सदाचार yovan ka mul: sayam - sadachar

जब पश्चिम के देशों में ज्ञान-विज्ञान का विकास प्रारम्भ भी नहीं हुआ था और मानव ने संस्कृति के क्षेत्र में प्रवेश भी नहीं किया था उस समय भारतवर्ष में दार्शनिक और योगी मानव मनोविज्ञान के विभिन्न पहलुओं और समस्याओं पर गम्भीतापूर्वक विचार कर रहे थे। फिर भी पाश्चात्य विज्ञान की छत्रछाया में पले हुए और उसके प्रकाश से चकाचौंध वर्तमान भारत के मनोवैज्ञानिक भारतीय मनोविज्ञान का अस्तित्व तक मानने को तैयार नहीं हैं। यह खेद की बात है। भारतीय मनोवैज्ञानिकों ने चेतना के चार स्तर माने हैं - जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय। पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक प्रथम तीन स्तर को ही जानते हैं। पाश्चात्य मनोविज्ञान नास्तिक है। भारतीय मनोविज्ञान ही आत्मविकास और चरित्र-निर्माण में सबसे अधिक उपयोगी सिद्ध हुआ है क्योंकि यह धर्म से अत्यधिक प्रभावित है। भारतीय मनोविज्ञान आत्मज्ञान और आत्म-सुधार में सबसे अधिक सहायक सिद्ध होता है। इसमें बुरी आदतों को छोड़ने और अच्छी आदतों को अपनाने तथा मन की प्रक्रियाओं को समझने तथा उसका नियंत्रण करने के महत्त्वपूर्ण उपाय बताये गये हैं। इसकी सहायता से मनुष्य सुखी, स्वस्थ और सम्मानित जीवन जी

सुखी और शांतिपूर्ण जीवन का रहस्य sukhi aur shantipurn jivan Ka rahasya

हर व्यक्ति सुखी एवं शांतिपूर्ण जीवन की चाह रखता है, लेकिन उसके प्रयास अपनी इस इच्छा के अनुरूप नहीं होते। यह एक सत्य है कि शरीर में जितने रोम होते हैं, उनसे भी अधिक होती हैं- इच्छाएं। ये इच्छाएं सागर की उछलती-मचलती तरंगों के समान होती हैं। मन-सागर में प्रति क्षण उठने वाली लालसाएं वर्षा में बांस की तरह बढ़ती ही चली जाती हैं। अनियंत्रित कामनाएं आदमी को भयंकर विपदाओं की जाज्वल्यमान भट्टी में फेंक देती हैं। वह प्रतिक्षण बेचैन, तनावग्रस्त, बड़ी बीमारियों का उत्पादन केंद्र बनता देखा जा सकता है। वह विपुल आकांक्षाओं की सघन झाड़ियों में इस कदर उलझ जाता है कि निकलने का मार्ग ही नहीं सूझता। वह परिवार से कट जाता है, स्नेहिल रिश्तों के रस को नीरस कर देता है, समाज-राष्ट्र की हरी-भरी बगिया को लील देता है। न सुख से जी सकता है, न मर सकता है। आज का आदमी ऐसा ही जीवन जी रहा है, वह भ्रम में जी रहा है। जो सुख शाश्वत नहीं है, उसके पीछे मृग-मरीचिका की तरह भाग रहा है। धन-दौलत, जर, जमीन, जायदाद कब रहे हैं इस संसार में शाश्वत? पर आदमी मान बैठा कि सब कुछ मेरे साथ ही जाने वाला है। उसको नहीं मालूम कि पूरी दुनिया पर विज

भौतिकता से परे आत्मिकता को पा लेना ही सच्चा सुख है। Bhautikta se pare atmakatha ko pa lena hi saccha sukh hai

एक गाँव के मंदिर में एक ब्रह्मचारी रहता था। लोभ,मोह से परे अपने आप में मस्त रहना उसका स्वभाव था। कभी-कभी वह यह विचार भी करता था कि इस दुनिया में सर्वाधिक सुखी कौन है? एक दिन एक रईस उस मंदिर में दर्शन हेतु आया। उसके मंहगे वस्त्र,आभूषण,नौकर-चाकर आदि देखकर बह्मचारी को लगा कि यह बड़ा सुखी आदमी होना चाहिए। उसने उस रईस से पूछ ही लिया। रईस बोला - मैं कहाँ सुखी हूँ भैया! मेरे विवाह को ग्यारह वर्ष हो गए , किन्तु आज तक मुझे संतान सुख नहीं मिला। मैं तो इसी चिंता में घुलता जा रहा हूँ कि मेरे बाद मेरी सम्पति का वारिस कौन होगा और कौन मेरे वंश के नाम को आगे बढ़ाएगा ? पड़ोस के गांव में एक विद्वान पंडित रहते हैं। मेरी दृष्टि में वे ही सच्चे सुखी हैं। ब्रह्मचारी विद्वान पंडित से मिला , तो उसने कहा - मुझे कोई सुख नहीं है बंधु , रात-दिन परिश्रम कर मैंने विद्यार्जन किया , किन्तु उसी विद्या के बल पर मुझे भरपेट भोजन भी नहीं मिलता। अमुक गांव में जो नेताजी रहते हैं , वे यशस्वी होने के साथ-साथ लक्ष्मीवान भी है। वे तो सर्वाधिक सुखी होंगे। ब्रह्मचारी उस नेता के पास गया , तो नेताजी बोले - मुझे सुख कैसे मिले ? म

सेवा से ही मनुष्य को शान्ति प्राप्त हो सकती है। Seva se hi manushya ko shanti prapt ho sakti hai.

एक साधु स्वामी विवेकानन्द जी के पास आया। अभिवादन करने के बाद उसने स्वामी जी को बताया कि वह उनके पास किसी विशेष काम से आया है। " स्वामी जी, मैने सब कुछ त्याग दिया है,मोह माया के बंधन से छूट गया हूँ परंतु मुझे शांति नहीं मिली। मन  सदा भटकता रहता है। एक गुरु के पास गया था जिन्होंने एक मंत्र भी दिया था और बताया था कि इसके जाप से अनहदनाद सुनाई देगा और फिर शांति मिलेगी। बड़ी लगन से मंत्र का जाप किया, फिर भी मन शांत नहीं हुआ।अब मैं परेशान हूँ। " इतना कहकर उस साधु की आँखे गीली हो गई। " क्या आप सचमुच शान्ति चाहते हैं ", विवेकानन्द जी ने पूछा। बड़े उदासीन स्वर में साधु बोला , इसीलिये तो आपके पास आया हूँ। स्वामी जी ने कहा , "अच्छा , मैं तुम्हें शान्ति का सरल मार्ग बताता हूँ। इतना जान लो कि सेवा धर्म बड़ा महान है।घर से निकलो और बाहर जाकर भूखों को भोजन दो,प्यासों को पानी पिलाओ , विद्यारहितों को विद्या दो और दीन ,दुर्बल ,दुखियों एवं रोगियों की तन, मन और धन से सहायता करो। सेवा द्वारा मनुष्य का अंतःकरण जितनी जल्दी निर्मल,शान्त,शुद्ध एवं पवित्र होता है ,उतना किसी और काम से नहीं।

आहार का कुप्रभाव आपके मन की दशा को विचलित कर सकता है। Aahar ka Ku prabhav aapke man ki dasha ko vichalit kar sakta hai.

"किसी नगर में एक भिखारिन एक गृहस्थी के यहाँ नित्य भीख मांगने जाती थी। गृहिणी नित्य ही उसे एक मुठ्ठी चावल दे दिया करती थी। यह बुढ़िया का दैनिक कार्य था और महीनों से नहीं कई वर्षों से यह कार्य बिना रुकावट के चल रहा था। एक दिन भिखारिन चावलों की भीख लेकर ज्यों ही द्वार से मुड़ी,गली में गृहिणी का ढाई वर्ष का बालक खेलता हुआ दिखाई दिया। बालक के गले में एक सोने की जंजीर थी। भिखारिन बुढ़िया की नीयत बदलते देर न लगी। इधर-उधर दृष्टि दौड़ाई,गली में कोई और दिखाई नहीं पड़ा। बुढ़िया ने बालक के गले से जंजीर ले ली और चलती बनी। घर पहुँची,अपनी भीख यथा स्थान रखी और बैठ गई। सोचने लगी,"जंजीर को सुनार के पास ले जाऊंगी और इसे बेचकर पैसे खरे करुँगी।" यह सोचकर जंजीर एक कोने में एक ईंट के नीचे रख दी। भोजन बनाकर और खा पीकर सो गई। प्रातःकाल उठी,शौचादि से निवृत्त हुई तो जंजीर के सम्बन्ध में जो विचार सुनार के पास ले जाकर धन राशि बटोरने का आया था उसमें तुरंत परिवर्तन आ गया। बुढ़िया के मन में बड़ा क्षोभ पैदा हो गया। सोचने लगी-"यह पाप मेरे से क्यों हो गया? क्या मुँह लेकर उस घर पर जाऊंगी?" सोचते-सोचते बु

दृष्टिकोण बदलना जरूरी है drishtikon badalna jaruri hai

एक घटना, ससुराल से एक बहिन पीहर जा रही थी । प्रातःकाल का समय था । रियाँ-पीपाड़ की बात कहो या विजयनगर-गुलाबपुरा की । बीच में मात्र एक नदी पड़ती है । वह ग्राम के किनारे पर पहुँची ही थी कि अचानक हार्ट अटैक हुआ, धड़कन तेज हुई और एक झटका लगने के साथ वह पेड़ के सहारे बैठ गई, और चल बसी । शव पडा़ हुआ है, वह लाश है, नारी का कलेवर है । एक वासना का प्रेमी उधर से निकला, नजर पड़ी । पत़्नी तो मेरे भी है, वह काली कलुटी है, रात-दिन झगडा़ होता रहता है । मुझे ऐसी पत़्नी मिले तो मैं सुखी हो जाऊँ । वह मिलने वाली नहीं, वह तो कलेवर है, पर उसकी दृष्टि वासना वाली है, इसलिए वह उस लाश को देखकर क्या चिंतन कर रहा है ? विकार का, वासना का । उधर रात भर से घूमता-घामता एक चोर निकला । उसकी नज़र लाश के गहने पर है । चोर वहीं खडा़ हो गया । वह सोच रहा है कि यह आदमी यहाँ से निकल जाय तो मेरा काम मिनटों में हो जायेगा । मैं इसके सारे गहने लेकर धनवान बन जाऊँगा । दोनों व्यक्ति अपनी-अपनी दृष्टि से सोच रहे हैं। इतने में एक सियार आ गया । वह भूखा एवं माँस का लोभी था । जीभ लपलपाने लगा । सोचा – ये लोग यहाँ से चले जायें तो मूझे ताजा मा

आलस, यह जीवित व्यक्ति की मृत्यु है aalas, yah jeevit vyakti ki mrutyu hai

प्रमाद और आलस के बीच एक महत्वपूर्ण अंतर है। न करने जैसा करते रहना इसका नाम है प्रमाद और करने योग्य न करना इसका नाम है आलस। संसार की भाषा में कहना हो तो यह कहा जा सकता है कि, जुए में संपत्ति बर्बाद करना यह है प्रमाद और तेजी के समय में व्यापार पर ध्यान न देकर मौज - मजे करते रहना यह है आलस। और अध्यात्म की भाषा में कहना हो तो यह कहा जा सकता है कि, पापप्रवृत्तियां करते रहना यह है प्रमाद और धर्मप्रवृत्तियों के अवसर को गंवातें रहना यह है आलस। वास्तविकता यह है कि प्रमाद और आलस दोनों खतरनाक है। प्रमाद तुम्हें दुर्गति की ओर अग्रसर करता है और आलस तुम्हारे लिए खल सकने वाले सद्गति के द्वार पर ताला लगा देता है। प्रश्न मन में यह पैदा होता है कि वास्तविकता यह होने के बावजूद इंसान जान-बूझकर प्रमाद और आलसी क्यों बनता है ? एक दृष्टिकोण से यह प्रश्न का उत्तर यह हो सकता है कि पापप्रवृत्ति और धर्मप्रवृत्ति के फल पर हृदय में श्रद्धा का कोई भाव न होना। सत्कार्य से सद्गति और दुष्कार्य से दुर्गति, धर्म से सुख और पाप से दुःख। जहां यह श्रद्धा न हो वहां पाप से निवृत्त होने का और धर्म में प्रवृत्त होने का सवाल ही क

विद्वान और महान बनने का रहस्य vidwan aur mahan banne ka Rahasya

एक नवयुवक ने महान बनने का विचार किया। विश्वविद्यालय की शिक्षा प्राप्त करने के बाद उसने महान व्यक्तियों के बारे में पढ़ डाला। किसी ने गुरुमंत्र दिया- महान बनने के लिए महान लोगों के संपर्क में रहना आवश्यक है। अब नवयुवक ने उन सब लोगों के संपर्क में रहना शुरू कर दिया जो महान साहित्यकार, कलाकार, नेता, विचारक और वैज्ञानिक थे, परंतु उस नवयुवक ने सभी में कोई न कोई दोष देखा। यह सब कुछ देख कर वह निराश होकर शहर से दूर सुनसान सड़क पर निकल आया। अचनानक उस सड़क पर एक अधेड़ उम्र के सज्जन से उसकी भेंट हो गई। उन्होंने नवयुवक से निराशा का कारण पूछा। युवक बोला पड़। अगर मैं विद्वान और महान दोनों बनना चाहूं तो मुझे क्या करना होगा? तब उस व्यक्ति ने उत्तर दिया कि महान बनने के लिए महान बनने की इच्छा और विद्वान बनने के लिए विद्वान बनने की इच्छा त्यागनी पड़ती है। नवयुवक बोला, आप कैसी बात कर रहे हैं? उस व्यक्ति ने कहा, मैं ठीक कह रहा हूं, महान बनने के लिए छोटा और विद्वान बनने के लिए विद्यार्थी बनना पड़ता है। आप ने तो मेरी आंखें खोल दीं। लगता है आप कोई महापुरुष हैं या फिर विद्वान। वह व्यक्ति बोला, नहीं मैं कुछ नही

चिंता 'चिता' समान और चिंतन 'अमृत' की तरह chinta 'Chita' saman hai aur Chintan 'Amrit' ki tarah

आयुर्वेद में दो प्रकार के रोग बताए गए हैं। पहला, शारीरिक रोग और दूसरा, मानसिक रोग। जब शरीर का रोग होता है, तो मन पर और मन के रोग का शरीर पर बुरा प्रभाव पड़ता है। शरीर और मन का गहरा संबंध है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, अंधकार, ईर्ष्‍या, द्वेष आदि मनोविकार हैं। ये मन के रोग हैं। इन मनोविकारों में एक विकार है-चिंता। यह मन का बड़ा विकार है और महारोग भी है। जब आदमी को चिंता का रोग लग जाता है तो यह मनुष्य को धीरे-धीरे मारता हुआ आदमी को खोखला करता रहता है। चिंता को चिता के समान बताया गया है, अंतर केवल इतना है चिंता आदमी को बार-बार जलाती है और चिता आदमी को एक बार। शारीरिक रोगों की चिकित्सा वैद्य, हकीम व डॉक्टर कर देते हैं, लेकिन मानसिक रोगों का इलाज करना इन लोगों द्वारा भी मुश्किल हो जाता है। मन के रोगों में जब कोई भी चिकित्सा काम नहीं करती है, तो उस समय धर्म शास्त्रों की चिकित्सा काम देती है। चिंता के इलाज के लिए शास्त्र बताते हैं कि मनुष्य को चिंता नहीं चिंतन करना चाहिए। जब भी चिंता सताती है, तब-तब मनुष्य को भगवान का चिंतन करना चाहिए। चिंता से घिरा जो भी आदमी चिंता का भार भगवान पर छोड़ निश्चित हो

धार्मिक पाठशाला एवं संस्कार शाला की अनिवार्यता dharmik pathshala avm Sanskar Shala ki anivaryata

जय जिनेन्द्र, आज के इस भौतिक युग में धर्म के संस्कारों का लोप होता जा रहा है। भौतिक पढ़ाई हेतु कई विद्यालय मौजूद हैं, उनकी संख्या में प्रतिदिन वृद्धि भी होती जा रही है। बच्चे अच्छी शिक्षा प्राप्त कर जीवन में आगे बढ़ने के अवसर भी पा रहे हैं, पर क्या शांत, निर्मल, स्वच्छ, सुंदर जीवन, तनाव रहित जीवन का भी ज्ञान पाया ? अपने धर्म के मूलभूत सिद्धांतों की जानकारी बिना कई बच्चे धर्म से विमुख भी होते जा रहे हैं। धर्मनिष्ठ संस्कारों से आत्मा को पल्लवित किए बिना धर्ममय जीवन संभव नहीं। ‘सम्यगज्ञान’ की ज्योति को विकसाने में संस्कार शाला का विशेष योगदान होता है। धार्मिक शिक्षा के बिना संस्कारों का शुद्धिकरण संभव नहीं। ज्ञान की प्याऊ जैसी संस्कार शाला, बच्चों को पवित्र पद पर स्थापित करती है। जिस शक्कर में मिठास नहीं, वह शक्कर नहीं, जिस पुष्प में सुवास नहीं, वह पुष्प नहीं, जिस औषध में गुण नहीं, वह औषधि नहीं, और जिस मानव में सद्ज्ञान नहीं, वह मानव नहीं। ऐसे ही सदज्ञान-सम्यकज्ञान को प्राप्त कराती है “संस्कारशाला”। सम्यगज्ञान की धारा से आप्लावित व्यक्ति अपने घर को प्रेम मंदिर बनाता है। जीवन जीने की कला स

त्याग जीवन का अनमोल खजाना है tyag jivan ka Anmol khajana hai

पेट में जैसे भोजन जाना ही चाहिए, वैसे मल त्याग भी होना ही चाहिए। शरीर में जैसे पानी जाना ही चाहिए, वैसे पेशाब त्याग भी होना ही चाहिए। घर में जैसे एक खिड़की से हवा का प्रवेश होना ही चाहिए, वैसे दूसरी खिड़की से हवा बाहर भी निकलनी ही चाहिए। अरे, पूजा में जैसे आवाहन मुद्रा द्वारा देवताओं को आने का आमंत्रण देना चाहिए वैसे विसर्जन मुद्रा द्वारा उन्हें स्वस्थान पर पहुंचने की विनंती भी होनी ही चाहिए। संक्षिप्त में, जीवन में अर्जन और संग्रह चाहे जितने महत्वपूर्ण हो पर साथ ही साथ यदि त्याग ना हो तो जीवन गौरवप्रद बनने के बदले कलंकप्रद  बन जाता है। एक बात याद कराऊं ? जिनके हाथ में पत्थर थे दुनिया ने उनका स्वागत नहीं किया, दुनिया ने उन्हीं का स्वागत किया है जिनके हाथ में पुष्प थे। जिनकी नाव में छिद्र थे उनका दुनिया ने सम्मान नहीं किया है, जिनकी तिजोरी में छिद्र थे उन्हीं का इस दुनिया ने सम्मान किया है। जो अमीर थे उनके पुतले चौराहों पर नहीं लगाए गए हैं, जो उदार थे उन्हीं के पुतले चौराहों पर लगाए गए हैं। एक वास्तविकता दृष्टि के समक्ष रखना। बंद मुट्ठी के साथ तुम शायद ज्यादा से ज्यादा चौबीस मिनट रह सकत

जैन धर्मानुसार शयन विधि : दिशा बदलो दशा बदलेगी.. Jain Dharm anusar Jain vidhi : Disha badlo dasha badlegi...

जैन धर्म व शास्त्रों के अनुसार एक व्यक्ति को किस प्रकार अपनी शयन विधि रखनी चाहिए इसपर हम आज विचार करेगे । हम अपनी शयन विधि में कुछ निम्न परिवर्तन या कुछ बातो का ध्यान रखेगे तो हमें बहुत से लाभ होगे । जानिए क्या है वो बाते! सूर्यास्त के एक प्रहर (लगभग 3 घंटे) के बाद ही शयन करना। परिवार मिलन: रात्रि की घर के सभी सदस्य एकत्रित होते हैं। बड़े बुजुर्ग गुरुदेवों के श्रीमुख के सुनी प्रवचन की बातें सुनाते है। जिससे बच्चो में धर्म संस्कार पड़ते है, प्रवचन श्रवण का रस जगता है और देव गुरु की महिमा बढती है। लगभग 10 बजे सोना और 4 बजे उठाना। युवकों के लिए 6 घंटे की नींद काफी है। सोने की मुद्रा: उल्टा सोये भोगी, सीधा सोये योगी, डाबा सोये निरोगी, जीमना सोये रोगी। बायीं करवट सोना स्वास्थ्थ के लिए हितकार है, शास्त्रीय विधान भी है। आयुर्वेद में ‘वामकुक्षि’ की बात आती हैं। शरीर विज्ञान के अनुसार चित सोने से रीढ़ की हड्डी को नुकसान और औधा सोने से आँखे बिगडती है। सोते समय कितने नवकार गिने जाए? “सूतां सात, उठता आठ” सोते वक्त सात भय को दूर करने के लिए सात नवकार गिनें और उठते वक्त आठ कर्मो को दूर करने के लिए आठ

स्वप्न का फल कब, कैसे और किसे मिलता है। Swapn ka fal kab, kaise aur kise milta hai

उपर्युक्त पिछले तीन कारणों से आये हुए स्वप्न शुभाशुभ फल देते है, ऐसे स्वप्न यथासम्भव व्यर्थ नहीं जाते । स्वप्न फल किसे मिलता है ? जो आदमी स्थिर-चित्त, जितेन्द्रिय शांत मुद्रा, धर्म भाव में रुचि रखनेवाला धर्मानुरागी, प्रामाणिक, सत्यवादी, दयालु, श्रध्दालु, और गृहस्थोचित गुणों वाला होता है, उसे स्वप्न आता है, वह निरर्थक नहीं जाता, वह कर्मानुसार अच्छा या बुरा फल यथासमय तुरन्त देता है । स्वप्न कब फलता है ? यदि रात के पहले प्रहर में स्वप्न देखा गया तो, उसका फल एक वर्ष में प्राप्त होता है। दूसरे प्रहर में देखे तो छः मास में, तीसरे प्रहर में देखे तो तीन मास में, रात के चौथे प्रहर में देखे तो एक मास, रात्रि की अन्तिम दो घडियों अर्थात तडके देखे तो दस दिन में और सूर्य उदय होते होते देखे तो उसका तत्काल फल मिलता है। बुरा स्वप्न आने पर यदि सोते रहे तो अच्छा रहता है। उसे किसी को न कहे, यथासम्भव उसे भूलने का प्रयत्न करना चाहिए। उत्तम स्वप्न होने पर यदि हम सोते रहने की भूल कर बैठे तो उसका फल निष्फल हो जाता है। शुभ स्वप्न देखनेवाले को जागृत होकर भगवान का भजन करना चाहिये। प्रातःकाल होने पर गुरुजनों के सम

अपने - अपने कर्मों का फल सबको मिलता है Apne - Apne karmon ka fal sabko milta hai

एक गाँव में एक किसान रहता था। उसके परिवार में उसकी पत्नी और एक लड़का था। कुछ सालों के बाद पत्नी मृत्यु हो गई। उस समय लड़के की उम्र दस साल थी। किसान ने दुसरी शादी कर ली। उस दुसरी पत्नी से भी किसान को एक पुत्र प्राप्त हुआ। किसान की दुसरी पत्नी की भी कुछ समय बाद मृत्यु हो गई। किसान का बड़ा बेटा जो पहली पत्नी से प्राप्त हुआ था जब शादी के योग्य हुआ तब किसान ने बड़े बेटे की शादी कर दी। फिर किसान की भी कुछ समय बाद मृत्यु हो गई। किसान का छोटा बेटा जो दुसरी पत्नी से प्राप्त हुआ था और पहली पत्नी से प्राप्त बड़ा बेटा दोनो साथ साथ रहते थे। कुछ समय बाद किसान के छोटे लड़के की तबीयत खराब रहने लगी। बड़े भाई ने कुछ आस पास के वैद्यों से ईलाज करवाया पर कोई राहत ना मिली। छोटे भाई की दिन पर दिन तबीयत बिगड़ी जा रही थी और बहुत खर्च भी हो रहा था। एक दिन बड़े भाई ने अपनी पत्नी से सलाह की, यदि ये छोटा भाई मर जाऐ तो हमें इसके ईलाज के लिऐ पैसा खर्च नहीं करना पड़ेगा। तब उसकी पत्नी ने कहा कि क्यों न किसी वैद्य से बात करके इसे जहर दे दिया जाऐ। किसी को पता भी नहीं चलेगा कोई रिश्तेदारी में भी शक नहीं करेगा कि बिमार था

दान देना जीवन का सबसे बड़ा शुभ कर्म है Dan dena Jeevan ka sabse bada shubh karma hai

एक भिखारी सुबह-सुबह भीख मांगने निकला। चलते समय उसने अपनी झोली में जौ के मुट्ठी भर दाने डाल दिए, इस अंधविश्वास के कारण कि भिक्षाटन के लिए निकलते समय भिखारी अपनी झोली खाली नहीं रखते। थैली देखकर दूसरों को भी लगता है कि इसे पहले से ही किसी ने कुछ दे रखा है। पूर्णिमा का दिन था। भिखारी सोच रहा था कि आज अगर ईश्वर की कृपा होगी तो मेरी यह झोली शाम से पहले ही भर जाएगी। अचानक सामने से राजपथ पर उसी देश के राजा की सवारी आती हुई दिखाई दी। भिखारी खुश हो गया। उसने सोचा कि राजा के दर्शन और उनसे मिलने वाले दान से आज तो उसकी सारी दरिद्रता दूर हो जाएंगी और उसका जीवन संवर जाएगा। जैसे-जैसे राजा की सवारी निकट आती गई, भिखारी की कल्पना और उत्तेजना भी बढ़ती गई। जैसे ही राजा का रथ भिखारी के निकट आया, राजा ने अपना रथ रूकवाया और उतर कर उसके निकट पहुंचे। भिखारी की तो मानो सांसें ही रूकने लगीं, लेकिन राजा ने उसे कुछ देने के बदले उल्टे अपनी बहुमूल्य चादर उसके सामने फैला दी और उससे भीख की याचना करने लगा। भिखारी को समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करें। अभी वह सोच ही रहा था कि राजा ने पुनः याचना की। भिखारी ने अपनी झोली में

सबसे बड़ा धर्म यही है sabse bada dharm yahi hai

एक बार कुछ विदेशी यात्री भारत भ्रमण के लिए आए। उन्होंने भारत के अनेक धार्मिक एवं सांस्कृतिक स्थलों का भ्रमण किया। भ्रमण करते-करते एक दिन वे एक महात्मा के पास पहुँचे। महात्मा ध्यान मग्न थे। उनके सामने बहुत से साधक बैठे हुए थे। वे यात्री भी वहीं बैठ गए। कुछ समय बाद महात्मा ने अपनी आँखें खोली और सामने बैठे लोगों को देखा। इसके बाद कुछ साधकों ने अपनी-अपनी जिज्ञासाएं महात्मा के समक्ष रखी। महात्मा ने उन सभी जिज्ञासाओं का समाधान बड़ी ही शान्त मुद्रा में उनको बताया। यह देखकर उन विदेशी यात्रियों के मन में भी जिज्ञासा उत्पन्न हुई और उन्होंने भी अपनी जिज्ञासा प्रकट की। उन्होंने कहा महात्मा जी! हम पिछले कई दिनों से भारत-भ्रमण कर रहे हैं, जहाँ भी जाते हैं वहाँ पर लोगों के मुख से यही सुनते हैं कि धर्म करना चाहिए, धर्म ही सब कुछ है इसके अतिरिक्त कुछ नहीं, लेकिन हमारे यहाँ तो ये धर्म नाम की कोई चीज होती ही नहीं तो बताइए फिर भला हम इसे कैसे करें ? यह सुनकर महात्मा मन्द-मन्द मुस्कुराए, फिर बोले– ऐसा नहीं हो सकता, ऐसी तो इस सृष्टि में कोई जगह ही नहीं है, जहाँ धर्म नहीं हो। शायद तुम्हें कोई भ्रम है। इसके बा

ऐसे बनती है अच्छी या बुरी आदत aise banti hai acchi ya buri aadat

इस संसार में हम जो कुछ देखते हैं वह सब हमारे विचारों का ही मूर्त रूप है। यह समस्त सृष्टि विचारों का ही चमत्कार है। किसी भी कार्य की सफलता-असफलता, अच्छाई-बुराई और उच्चता-न्यूनता के लिए मनुष्य के अपने विचार ही उत्तरदायी होते हैं। जिस प्रकार के विचार होंगे, सृजन भी उसी प्रकार का होगा। विचार अपने आप में एक ऐसी शक्ति है जिसकी तुलना में संसार की समस्त शक्तियों का समन्वय भी हल्का पड़ता है। विचारों का दुरुपयोग स्वयं और संसार का विनाश भी कर सकता है। सूर्य की किरणों जब शीशे द्वारा एक ही केंद्र पर डाली जाती हैं तो अग्नि उत्पन्न हो जाती है। इसी प्रकार विचार एक केंद्र पर एकाग्र होने से बलवान बनते हैं। आशय यह है कि हमारे विचारों की ताकत हमारे मन की एकाग्रता पर निर्भर करती है। एकाग्रता के बगैर मन में बल नहीं आ सकता। परमार्थ के क्षेत्र में ही नहीं, बल्कि संसार के व्यावहारिक कार्यों में भी एकाग्रता की बड़ी आवश्यकता पड़ती है। जो मनुष्य जैसा विचार करता है, वैसा ही कार्य करता है। फिर वैसी ही उसकी आदत बन जाती है और अंत में वैसा ही उसका स्वभाव बन जाता है। ऐसा ही गीता में भी कहा गया है कि जो जैसा सोचता है, व

सुखदेव की जीवनी sukhdev ki jivani

सुखदेव (वर्ष 1907-1931) एक प्रसिद्ध भारतीय क्रांतिकारी थे, जिन्होंने स्वतंत्रता के लिए भारत के संघर्ष में एक प्रमुख भूमिका निभाई थी। वह उन महान भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों में से हैं, जिन्होंने अपने देश की स्वतंत्रता के लिए अपना जीवन बलिदान कर दिया। इनका पूरा नाम सुखदेव थापर है और इनका जन्म 15 मई 1907 को हुआ था। इनका पैतृक घर भारत के लुधियाना शहर, नाघरा मोहल्ला, पंजाब में है। इनके पिता का नाम राम लाल था। अपने बचपन के दिनों से, सुखदेव ने उन क्रूर अत्याचारों को देखा था, जो शाही ब्रिटिश सरकार ने भारत पर किए थे, जिसने उन्हें क्रांतिकारियों से मिलने के लिए बाध्य कर दिया और उन्होंने भारत को ब्रिटिश शासन के बंधनों से मुक्त करने का प्रण किया। सुखदेव थापर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचएसआरए) के सदस्य थे और उन्होंने पंजाब व उत्तर भारत के अन्य क्षेत्रों के क्रांतिकारी समूहों को संगठित किया। एक देश भक्त नेता सुखदेव लाहौर नेशनल कॉलेज में युवाओं को शिक्षित करने के लिए गए और वहाँ उन्हें भारत के गौरवशाली अतीत के बारे में अत्यन्त प्रेरणा मिली। उन्होंने अन्य प्रसिद्ध क्रांतिकारियों के साथ ला

कहाँ है भगवान ? Kahan hai bhagwan ?

एक  आदमी हमेशा  की  तरह  अपने   नाई  की  दूकान  पर  बाल  कटवाने  गया ।   बाल  कटाते  वक़्त  अक्सर  देश-दुनिया   की  बातें  हुआ करती थीं।आज  भी  वे  सिनेमा , राजनीति ,  और  खेल जगत ,  इत्यादि  के  बारे  में  बात  कर  रहे  थे । कि  अचानक   भगवान  के  अस्तित्व  को  लेकर  बात  होने  लगी । नाई  ने  कहा , “ देखिये भैया ,  आपकी  तरह  मैं  भगवान  के  अस्तित्व  में  यकीन  नहीं  रखता ।” “ तुम  ऐसा  क्यों  कहते  हो ? ”, आदमी  ने  पूछा! “अरे , ये  समझना  बहुत  आसान  है , बस  गली  में  जाइए  और  आप  समझ  जायेंगे  कि  भगवान   नहीं  है । आप  ही  बताइए  कि  अगर भगवान  होते  तो  क्या  इतने  लोग  बीमार  होते ? इतने  बच्चे  अनाथ  होते ? अगर  भगवान  होते  तो  किसी  को  कोई  दर्द  कोई  तकलीफ  नहीं  होती ”, नाई  ने  बोलना  जारी  रखा , “ मैं  ऐसे  भगवान  के  बारे  में  नहीं  सोच  सकता  जो  इन  सब  चीजों  को  होने  दे । आप ही बताइए कहाँ है भगवान ?” आदमी  एक  क्षण  के  लिए  रुका , कुछ  सोचा , पर  बहस  बढे  ना  इसलिए  चुप  ही  रहा। नाई  ने  अपना  काम  ख़तम  किया  और  आदमी  कुछ सोचते हुए  दुकान  से  बाहर  निकला

माता पार्वती की तपस्या का फल Mata Parvati ki Tapasya ka fal

भगवान शंकर को पति के रूप में पाने हेतु माता-पार्वती कठोर तपस्या कर रही थी। उनकी तपस्या पूर्णता की ओर थी। एक समय वह भगवान के चिंतन में ध्यान मग्न बैठी थी। उसी समय उन्हें एक बालक के डुबने की चीख सुनाई दी। माता तुरंत उठकर वहां पहुंची। उन्होंने देखा एक मगरमच्छ बालक को पानी के भीतर खींच रहा है। बालक अपनी जान बचाने के लिए प्रयास कर रहा है, तथा मगरमच्छ उसे आहार बनाने का। करुणामयी मां को बालक पर दया आ गई। उन्होंने मगरमच्छ से निवेदन किया कि बालक को छोड़ दीजिए इसे आहार न बनाएं। मगरमच्छ बोला माता यह मेरा आहार है मुझे हर छठे दिन उदर पूर्ति हेतु जो पहले मिलता है, उसे मेरा आहार ब्रह्मा ने निश्चित किया है। माता ने फिर कहा आप इसे छोड़ दे इसके बदले मैं अपनी तपस्या का फल दुंगी। ग्राह ने कहा ठीक है। माता ने उसी समय संकल्प कर अपनी पूरी तपस्या का पुण्य फल उस ग्राह को दे दिया। ग्राह तपस्या के फल को प्राप्त कर सूर्य की भांति चमक उठा। उसकी बुद्धि भी शुद्ध हो गई। उसने कहां माता आप अपना पुण्य वापस ले लें। मैं इस बालक को यू हीं छोड़ दुंगा। माता ने मना कर दिया तथा बालक को गोद में लेकर ममतामयी माता दुलारने लगी। ब

राजा दुष्यंत और शकुन्तला की प्रेम गाथा Raja Dushyant aur Shakuntala ki Prem Gatha

एक बार हस्तिनापुर नरेश दुष्यंत आखेट खेलने वन में गये। जिस वन में वे शिकार के लिये गये थे उसी वन में कण्व ऋषि का आश्रम था। कण्व ऋषि के दर्शन करने के लिये महाराज दुष्यंत उनके आश्रम पहुँच गये। पुकार लगाने पर एक अति लावण्यमयी कन्या ने आश्रम से निकल कर कहा, हे राजन्! महर्षि तो तीर्थ यात्रा पर गये हैं, किन्तु आपका इस आश्रम में स्वागत है। उस कन्या को देख कर महाराज दुष्यंत ने पूछा, बालिके! आप कौन हैं? बालिका ने कहा, मेरा नाम शकुन्तला है और मैं कण्व ऋषि की पुत्री हूँ। उस कन्या की बात सुन कर महाराज दुष्यंत आश्चर्यचकित होकर बोले, महर्षि तो आजन्म ब्रह्मचारी हैं फिर आप उनकी पुत्री कैसे हईं? उनके इस प्रश्न के उत्तर में शकुन्तला ने कहा, वास्तव में मेरे माता-पिता मेनका और विश्वामित्र हैं। मेरी माता ने मेरे जन्म होते ही मुझे वन में छोड़ दिया था जहाँ पर शकुन्त नामक पक्षी ने मेरी रक्षा की। इसी लिये मेरा नाम शकुन्तला पड़ा। उसके बाद कण्व ऋषि की दृष्टि मुझ पर पड़ी और वे मुझे अपने आश्रम में ले आये। उन्होंने ही मेरा भरन-पोषण किया। जन्म देने वाला, पोषण करने वाला तथा अन्न देने वाला – ये तीनों ही पिता कहे जाते ह

परेशानियों को अपने दिमाग में घर मत बनाने दीजिए pareshani ko Apne dimag mein ghar mat banane dijiye

एक प्रोफ़ेसर ने अपने हाथ में पानी से भरा एक glass पकड़ते हुए class शुरू की। उन्होंने उसे ऊपर उठा कर सभी students को दिखाया और पूछा , "आपके हिसाब से glass का वज़न कितना होगा ? ” '50gm….100gm…125gm’…छात्रों ने उत्तर दिया - " जब तक मैं इसका वज़न ना कर लूँ मुझे इसका सही वज़न नहीं बता सकता । ” प्रोफ़ेसर ने कहा... " पर मेरा सवाल है : यदि मैं इस ग्लास को थोड़ी देर तक इसी तरह उठा कर पकडे रहूँ तो क्या होगा ? ” ‘ कुछ नहीं ’… …छात्रों ने कहा। ‘अच्छा , अगर मैं इसे मैं इसी तरह एक घंटे तक उठाये रहूँ तो क्या होगा ? ”, प्रोफ़ेसर ने पूछा। ‘आपका हाथ दर्द होने लगेगा ’, एक छात्र ने कहा। ” तुम सही हो , अच्छा अगर मैं इसे इसी तरह पूरे दिन उठाये रहूँ तो क्या होगा ? ” ”आपका हाथ सुन्न हो सकता है , आपके muscle में भारी तनाव आ सकता है , लकवा मार सकता है और पक्का आपको hospital जाना पड़ सकता है ”….किसी छात्र ने कहा , और बाकी सभी हंस पड़े…. “ बहुत अच्छा , पर क्या इस दौरान glass का वज़न बदला ? ” प्रोफ़ेसर ने पूछा। उत्तर आया .." नहीं ” ”तब भला हाथ में दर्द और मांशपेशियों में तनाव क्यों आया ? ”

जीवन में कोई छोटा या बड़ा नही होता सबका अपना अलग एक महत्त्व होता है jivan mein koi chhota ya bada Nahin hota sabka apna alag ek mahatva hota hai

एक बार एक शिष्य ने विनम्रतापूर्वक अपने गुरु जी से पूछा- ‘गुरु जी,कुछ लोग कहते हैं कि जीवन एक संघर्ष है, कुछ अन्य कहते हैं कि जीवन एक खेल है और कुछ जीवन को एक उत्सव की संज्ञा देते हैं। इनमें कौन सही है ?’ गुरु जी ने तत्काल बड़े ही धैर्यपूर्वक उत्तर दिया - पुत्र,जिन्हें गुरु नहीं मिला उनके लिए जीवन एक संघर्ष है ; जिन्हें गुरु मिल गया उनका जीवन एक खेल है और जो लोग गुरु द्वारा बताये गए मार्ग पर चलने लगते हैं , मात्र वे ही जीवन को एक उत्सव का नाम देने का साहस जुटा पाते हैं। यह उत्तर सुनने के बाद भी शिष्य पूरी तरह से संतुष्ट न था। गुरु जी को इसका आभास हो गया। वे कहने लगे-‘लो, तुम्हें इसी सन्दर्भ में एक कहानी सुनाता हूँ। ध्यान से सुनोगे तो स्वयं ही अपने प्रश्न का उत्तर पा सकोगे । ’ उन्होंने जो कहानी सुनाई ,वह इस प्रकार थी- एक बार की बात है कि किसी गुरुकुल में तीन शिष्यों नें अपना अध्ययन सम्पूर्ण करने पर अपने गुरु जी से यह बताने के लिए विनंती की कि उन्हें गुरुदाक्षिणा में, उनसे क्या चाहिए । गुरूजी पहले तो मंद-मंद मुस्कराये और फिर बड़े स्नेहपूर्वक कहने लगे - ‘मुझे तुमसे गुरुदक्षिणा में एक थैला

जिंदगी में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण क्या है ? jindagi mein sabse jyada mahatvpurn kya hai ?

Philosophy के एक Professor ने कुछ चीजों के साथ क्लास में प्रवेश किया। जब क्लास शुरू हुई तो उन्होंने एक बड़ा सा खाली शीशे का जार लिया और उसमे पत्थर के बड़े-बड़े टुकड़े भरने लगे। फिर उन्होंने छात्रों से पूछा कि क्या जार भर गया है ? और सभी ने कहा “हाँ”। तब प्रोफ़ेसर ने छोटे-छोटे कंकडों से भरा एक बॉक्स लिया और उन्हें जार में भरने लगे। जार को थोडा हिलाने पर ये कंकड़ पत्थरों के बीच Settle हो गए। एक बार फिर उन्होंने छात्रों से पूछा कि क्या जार भर गया है ? और सभी ने हाँ में उत्तर दिया। तभी Professor ने एक sand box निकाला और उसमे भरी रेत को जार में डालने लगे। रेत ने बची-खुची जगह भी भर दी और एक बार फिर उन्होंने पूछा कि क्या जार भर गया है ? और सभी ने एक साथ उत्तर दिया , ” हाँ”। फिर professor ने समझाना शुरू किया, ” मैं चाहता हूँ कि आप इस बात को समझें कि ये जार आपकी life को represent करता है। बड़े-बड़े पत्थर आपके जीवन की ज़रूरी चीजें हैं। आपकी family,आपका partner,आपकी health, आपके बच्चे ऐसी चीजें हैं कि अगर आपकी बाकी सारी चीजें खो भी जाएँ और सिर्फ ये रहे तो भी आपकी ज़िन्दगी पूर्ण रहेगी। ये कंकड़ कु

बोले हुए शब्द वापस नहीं आते bole hue Shabd wapas nahin aate

एक बार एक किसान ने अपने पडोसी को भला बुरा कह दिया, पर जब बाद में उसे अपनी गलती का एहसास हुआ तो वह एक संत के पास गया। उसने संत से अपने शब्द वापस लेने का उपाय पूछा। संत ने किसान से कहा , ”तुम खूब सारे पंख इकठ्ठा कर लो और उन्हें शहर के बीचो-बीच जाकर रख दो।” किसान ने ऐसा ही किया और फिर संत के पास पहुंच गया। तब संत ने कहा , ”अब जाओ और उन पंखों को इकठ्ठा कर के वापस ले आओ।” किसान वापस गया पर तब तक सारे पंख हवा से इधर-उधर उड़ चुके थे, और किसान खाली हाथ संत के पास पहुंचा। तब संत ने उससे कहा कि ठीक ऐसा ही तुम्हारे द्वारा कहे गए शब्दों के साथ होता है। तुम आसानी से इन्हें अपने मुख से निकाल तो सकते हो पर चाह कर भी वापस नहीं ले सकते। इस कहानी से क्या सीख मिलती है :- कुछ कड़वा बोलने से पहले ये याद रखें कि भला-बुरा कहने के बाद कुछ भी कर के अपने शब्द वापस नहीं लिए जा सकते। हाँ, आप उस व्यक्ति से जाकर क्षमा ज़रूर मांग सकते हैं, और मांगनी भी चाहिए, पर Human Nature कुछ ऐसा होता है की कुछ भी कर लीजिये इंसान कहीं ना कहीं Hurt हो ही जाता है। जब आप किसी को बुरा कहते हैं तो वह उसे कष्ट पहुंचाने के लिए होता है,

गणेश जी ने बुढ़िया को दिया वरदान Ganesh Ji ne budhiya ko Diya vardan

गणेश जी विघ्न विनाशक व शीघ्र प्रसन्न होने वाले देवता हैं। अगर कोई सच्चे मन से गणेश जी की वंदना करता है, तो गौरी नंदन तुरंत प्रसन्न होकर उसे आशीर्वाद प्रदान करते हैं। वैसे भी गणेश जी जिस स्थान पर निवास करते हैं, उनकी दोनों पत्नियां ऋद्धि तथा सिद्धि भी उनके साथ रहती हैं, उनके दोनों पुत्र शुभ व लाभ का आगमन भी गणेश जी के साथ ही होता है। कभी-कभी तो भक्त भगवान को असमंजस में डाल देते हैं। पूजा-पाठ व भक्ति का जो वरदान मांगते हैं, वह निराला ही होता है। काफ़ी समय पहले की बात है, एक गांव में एक अंधी बुढ़िया रहती थी। वह गणेश जी की परम भक्त थी। आंखों से भले ही दिखाई नहीं देता था, परंतु वह सुबह शाम गणेश जी की बंदगी में मग्न रहती। नित्य गणेश जी की प्रतिमा के आगे बैठकर उनकी स्तुति करती। भजन गाती व समाधि में लीन रहती। गणेश जी बुढ़िया की भक्ति से बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने सोचा यह बुढ़िया नित्य हमारा स्मरण करती है, परंतु बदले में कभी कुछ नहीं मांगती। भक्ति का फल तो उसे मिलना ही चाहिए। ऐसा सोचकर गणेश जी एक दिन बुढ़िया के सम्मुख प्रकट हुए तथा बोले- ‘माई, तुम हमारी सच्ची भक्त हो। जिस श्रद्धा व विश्वास से