जीवन पूरा करने के लिए या दिन खींचने के लिए जीवन जीने वाले व्यक्ति ने अपने जीवन को पूरी तरह समझा ही नहीं है। उसने अपनी जीवन की कीमत समझी ही नहीं है। मानव संसार के सब अन्य प्राणियों की अपेक्षा कुछ विशेषता वाला प्राणी है। उसका जीवन अन्य सबसे ऊंचा है। इस विषय में कोई मतभेद नहीं है। मानव जीवन में बाल्यकाल पराधीन और अज्ञान दशा में भी जाता है, यह बात उस समय समझ में नहीं आती है। तदापि उस बाल्यकाल में निर्दोष सरलता तथा हृदय की स्वच्छता दृष्टिगत होती है। बाल्यकाल बीतने के बाद युवक बने हुए मानव में अनेक प्रकार की हवाओं का प्रवेश होता है। सरलता लगभग समाप्त हो जाती है। स्वच्छंदता, उद्धंतता, दंभ कृत्रिमता आदि दूषण मानव के जीवन में अपना स्थान बना लेते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि प्रोढ या वृद्ध अवस्था आने पर भी वह मानव अपने जीवन में प्रविष्ट हो चुके उन अनिष्टों के सामने निरूपाय बनकर अपने जीवन को बर्बाद कर लेता है। आज अन्य जीवों की अपेक्षा ऐसे मनुष्यों का भार संसार में बढ़ रहा है। मानव का त्रास, उसके पाप, उसके अन्याय, उसके असत्य के आचरण और दंभ ने पृथ्वी को अत्यंत भारभूत बना दिया है। जंगल के जंगली
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