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Showing posts from September, 2020

आशा और अपेक्षा पर अंकुश लगाना Asha aur apeksha per Ankush lagana

गरीबी से तंग आकर एक व्यक्ति जंगल की ओर चला गया। जंगल में उसने एक संन्यासी को देखा। संन्यासी के पास जाकर वह बोला , 'महाराज मैं आपकी शरण में आया हूं। गरीब आदमी हूं , मेरा उद्धार करो। ' साधु ने कहा , ' क्या चाहिए तुम्हें। ' वह बोला , ' मेरी स्थिति देखकर पूछ रहे हैं कि क्या चाहिए मुझे। मैं गरीब हूं। धन दे दें। ' संन्यासी ने कहा , ' धन छोड़कर ही तो मैं जंगल में आया हूं। धन तो मेरे पास नहीं है। ' गरीब याचक अड़ गया। उसकी भावना देखकर संन्यासी द्रवित हो गए और बोले , ' मेरे पास तो कुछ है नहीं , दूर सामने जो नदी के पास चमकीला पत्थर है , उसे ले लो। याचक बोला , ' पत्थर तोड़-तोड़ कर ही तो मेरे हाथ में छाले पड़े हैं। कुछ धन दिलाएं जिससे गरीबी दूर हो। ' संन्यासी ने कहा , वह सामान्य पत्थर नहीं , पारस पत्थर है। वह प्रसन्न हो गया और पारस पत्थर उठाकर घर की ओर चल पड़ा। पत्थर लेकर वह चल तो पड़ा , लेकिन रास्ते में मन में उथल-पुथल होने लगी। पहले तो सोचा कि चलो अच्छा हुआ , गरीबी मिट गई , पर तत्काल दूसरा चिन्तन शुरू हो गया। चिंतन गंभीर होता गया। वह

एक सच्चा दोस्त ek saccha dost

विश्वयुद्ध एक में उस समय एक सैनिक के चेहरे पर दहशत छा गयी , जब उसने अपने सबसे अच्छे दोस्त को युद्ध में गिरते हुए देखा। वो अपनी सेना के द्वारा बनायीं गयी सुरक्षा स्थल पर , खुदे हुए गड्ढो में डटा हुआ था। उसने अपने अधिकारी से पूछा , की क्या वह अपने दोस्त को बचाने के लिए जा सकता है। “ अगर तुम चाहते हो , तो जा सकते हो। ” अधिकारी ने कहा , “ पर मुझे नहीं लगता तुम्हारा वहाँ जाना ठीक है। तुम्हारा दोस्त शायद अबतक मर चुका होगा। और तुम अपनी जिंदगी भी गंवा सकते हो। ” सैनिक ने उसकी बातो को अनसुना किया और किसी भी प्रकार के कवच के बगैर , किसी चमत्कारिक ढंग से जा पहुंचा। गोलियों की बरसात के बीच में से वो किसी तरह अपने दोस्त को ले तो आया। पर खुद भी थोडा घायल हो गया। जब वो अपनी सेना के पास पहुंचा तो उसके ऑफिसर ने उसके दोस्त की जाँच करते हुए कहा , “ मैंने कहा था न , इससे कुछ फ़ायदा नहीं होगा। कोई फर्क नहीं पड़ेगा। तुम्हारा दोस्त मर चुका है। ” “ मैं जानता हूँ , फिर भी इससे बहुत फर्क पड़ा है सर ”, उस सैनिक ने कहा। “ क्या मतलब तुम्हारा ? फर्क पड़ा है ? ” ऑफिसर ने कहा “ तुम्हारा दोस्त तो मर चुका है। ”

पृथ्वी पर सर्वप्रथम श्राद्ध प्रथा इन्होंने ही शुरू की prithvi per sarvpratham shraddh pratha unhone hi shuru ki

हिन्दू धर्म में हर संतान के लिए यह परम कर्तव्य माना गया है की वह अपने पिता या पूर्वजो  को तृप्त करने के लिए श्राद्ध अवश्य करे। श्राद्ध के समय पितृलोक  से पूर्वज भोजन की आशा में पृथ्वी लोक अपने पुत्र वंशजो के पास आते है तथा श्राद्ध के रूप में हम जो प्रसाद ब्राह्मण , गाय , कौआ आदि को देते है वही प्रसाद सूक्ष्म रूप में हमारे पूर्वजो के पास पहुचता है जिसे प्राप्त कर वे अपनी भूख मिटाते है व वापस पितृलोक को प्रस्थान करते है। इसी संबंध में धर्मिक ग्रंथो  से एक कथा मिलती जिसमे  महावीर कर्ण  पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने अपनेपितरो को तृप्त करने के लिए श्राद्ध का आरम्भ किया था। महावीर कर्ण कुंती के पुत्र थे तथा पांडवो में सबसे बड़े थे। अपनी  दानशीलता के कारण वे प्रसिद्ध थे  उनके द्वार पर आया जरूरतमंद और गरीब व्यक्ति कभी खाली हाथ नही गया यहा तक की भगवान श्री कृष्ण ने भी उनकी दानशीलता की अनेको बार परीक्षा ली।  महावीर कर्ण महाभारत के युद्ध में वीरगति  को प्राप्त हुए तथा उन्हें स्वर्गलोक में स्थान प्राप्त हुआ। जब वे स्वर्गलोक पहुंचे तो उनके भोजन का समय हुआ , स्वर्गलोक के  सेवक कुछ बड़े से  थाल लेक

भगवान श्रीकृष्ण ने सुनी उसकी पुकार bhagwan Shri Krishna ne suni uski pukar

कौरवों और पाण्डवों की सेनाएँ आमने - सामने आ गईं। शंख बजने लगे , घोड़े खुरों से जमीन खूँदने और हाथी चिंघाड़ने लगे। कुरुक्षेत्र के समरांगण में सर्वनाश की तैयारी पूरी हो चुकी थी। ठीक तभी एक टिटहरी का आर्तनाद गूँज उठा।दोनों शिविरों के मध्य एक छोटी सी टेकरी थी , उसी की खोह में उसका घोंसला था। उसकी आँखें अपने बच्चों की ओर लगी थीं और कान धनुषों की टंकार पर। उसे चिंता स्व-जीवन की नहीं , अपने बच्चे की थी और निस्सहाय पुकार के रूप में आकुल मातृत्व सारे घोंसले में बिखर गया था। कृष्ण के कानों तक यह पुकार पहुँची। असंख्यों वीरों की बलि और युद्ध के भयंकर कोलाहल के बीच भी जिनकी बाँसुरी की स्वर कभी विचलित नहीं हुए थे , उन्हीं कृष्ण को इस टिटहरी के स्वर ने झकझोर डाला। वे दौड़ गए । एक पत्थर उठाकर घोंसले के द्वार पर सहेज दिया और वापस आकर अपना स्थान ग्रहण करते हुए सेनापति से कहा - महावीर भीम , अब तुम युद्ध का बिगुल बजा सकते हो। ’’

एक रात भगवान् से बात ek Raat bhagwan se baat

आज मैंने हार मानना चाही , मैंने अपनी नौकरी छोड़ दि , मेरे रिश्ते छोड़ दिए , सबकुछ छोड मैं ईश्वर से आखिरी मुलाकात करने एक जंगल में गया , “भगवान् ” मैंने कहा “ क्या आप मुझे एक ऐसी वजह दे सकते है की मैं आखिर हार में क्यों न मानू ? ” उनके जवाब ने मुझे चकित कर दिया “ आसपास देखो दोस्त ” भगवान् ने कहा‌ , “क्या तुम्हे घास और बांबू के पेड़ दिख रहे है? ” हां , मैंने कहा। ” जब मैंने इनके बीज जमीन में बोए। तो मैंने इनका बहुत ध्यान रखा। मैंने इन्हें रौशनी दी , मैंने इन्हें पानी दिया। ये छोटे - छोटे पेड़ पोधे तो बहुत जल्दी बढे हुए और पूरी धरती को हरा भरा कर दिया। पर बांबू के बीज से कुछ नहीं आया। पर मैंने बांबू को छोड़ नहीं दिया। एक साल में चारो और हरियाली ही हरियाली हो गयी। सारे पोधे फैल रहे थे। पर बांबू का नामो निशाँ तक नहीं था। चार साल हो गये फिर भी कुछ हुआ नहीं। पांचवें साल में धरती से बांबू का बीज अंकुरित हुआ। दूसरे सारे पेड़ पोधों की तुलना में ये बहुत ही छोटा था । पर केवल ६ महीने में बांबू का पेड़ सौ फिट तक बढ़ गया। उसने पांच साल अपनी जड़े मजबूत करने में उन्हें फ़ैलाने में बिताये और

एक दूजे के लिए ek duje ke liye

एक दंपत्ति की शादी को साठ वर्ष हो चुके थे। उनकी आपसी समझ इतनी अच्छी थी कि इन साठ वर्षों में उनमें कभी झगड़ा तक नहीं हुआ। वे एक दूजे से कभी कुछ भी छिपाते नहीं थे। हां , पत्‍‌नी के पास उसके मायके से लाया हुआ एक डिब्बा था जो उसने अपने पति के सामने कभी खोला नहीं था। उस डिब्बे में क्या है वह नहीं जानता था। कभी उसने जानने की कोशिश भी की तो पत्‍‌नी ने यह कह कर टाल दिया कि सही समय आने पर बता दूंगी। आखिर एक दिन बुढिंया बहुत बीमार हो गई और उसके बचने की आशा न रही। उसके पति को तभी ख्याल आया कि उस डिब्बे का रहस्य जाना जाये। बुढ़िया बताने को राजी हो गई। पति ने जब उस डिब्बे को खोला तो उसमें हाथ से बुने हुये दो रूमाल और 50,000 रूपये निकले। उसने पत्‍‌नी से पूछा , यह सब क्या है। पत्‍‌नी ने बताया कि जब उसकी शादी हुई थी तो उसकी दादी मां ने उससेकहा था कि ससुराल में कभी किसी से झगड़ना नहीं । यदि कभी किसी पर क्रोध आये तो अपने हाथसे एक रूमाल बुनना और इस डिब्बे में रखना। बूढ़े की आंखों में यह सोचकर खुशी के मारे आंसू आ गये और उसे अपनी पत्‍‌नी पर सचमुच गर्व हुआ। खुद को संभाल कर उसने रूपय

विश्वास ही जीवन की पूंजी है Vishwas hi jivan ki punji hai

एक डाकू था जो साधु के भेष में रहता था। वह लूट का धन गरीबों में बाँटता था। एक दिन कुछ व्यापारियों का जुलूस उस डाकू के ठिकाने से गुज़र रहा था। सभी व्यापारियों को डाकू ने घेर लिया। डाकू की नज़रों से बचाकर एक व्यापारी रुपयों की थैली लेकर नज़दीकी तंबू में घुस गया। वहाँ उसने एक साधु को माला जपते देखा। व्यापारी ने वह थैली उस साधु को संभालने के लिए दे दी। साधु ने कहा कि तुम निश्चिन्त हो जाओ।   डाकूओं के जाने के बाद व्यापारी अपनी थैली लेने वापस तंबू में आया। उसके आश्चर्य का पार न था। वह साधु तो डाकूओं की टोली का सरदार था। लूट के रुपयों को वह दूसरे डाकूओं को बाँट रहा था। व्यापारी वहाँ से निराश होकर वापस जाने लगा मगर उस साधु ने व्यापारी को देख लिया। उसने कहा , " रूको , तुमने जो रूपयों की थैली रखी थी वह ज्यों की त्यों ही है। " अपने रुपयों को सलामत देखकर व्यापारी खुश हो गया। डाकू का आभार मानकर वह बाहर निकल गया। उसके जाने के बाद वहाँ बैठे अन्य डाकूओं ने सरदार से पूछा कि हाथ में आये धन को इस प्रकार क्यों जाने दिया। सरदार ने कहा , " व्यापारी मुझे भगवान का भक्त जानकर भरोसे के साथ थैली

शासन का प्रभाव तो हर चीज पर होता है shasan ka prabhav har chij per hota hai

एक धर्मनिष्ठ और कल्याणकारी राजा थे। प्रजा में अत्यंत लोकप्रिय। एक दिन इच्छा हुई , अपना दोष जानें। सेवकों से लेकर नागरिकों तक से पूछा पर सबने यही कहा कि आपमें कोई दोष नहीं। वह एक संत के पास पहुंचे। संत से पूछा कि वे अपना दोष कैसे जानें ? संत ने बताया कि शासन का प्रभाव तो हर चीज पर होता है। राजा अत्याचारी हो तो राज्य के मीठे फल भी कड़वे हो जाते हैं। राजा ने उनकी बात सुन ली , पर उनसे सहमत नहीं हुए। वे चले आ रहे थे। तभी उन्होंने एक व्यक्ति को फल तोड़कर खाते देखा। राजा ने उसका स्वाद पूछा तो उसने बताया कि फल बड़े मीठे हैं। लौटकर राजा ने अपनी नीतियां बदल दीं। संत के कथन की परीक्षा के लिए प्रजा पर अत्याचार शुरू कर दिए। धर्म की जगह अधर्म को बढ़ावा दिया। प्रजा अत्याचारों से कराह उठी। फिर राजा घूमने निकले। एक व्यक्ति को बुलाया और फल चखने को कहा। उसने फल खाकर अजीब मुंह बनाया। राजा ने भी फल चखा , उन्हें भी कड़वा लगा। दूसरा फल चखा , वह भी वैसा ही निकला। वे परेशान हो उठे। उन्होंने अपने गुरु से संत का वह कथन और फल वाली बात बताई। गुरु ने समझाया , ' संत ने मन का गूढ़ रहस्य समझाया है।

पात्रता होने पर दिक्षा संभव है patrata hone per Diksha sambhav hai

एक बार एक धनी वणिक ने एक महात्मा से दीक्षा देने का अनुरोध किया। साधु ने बात टालने का प्रयत्न किया किंतु वणिक ने पाँव पकड़ लिए। अंत में साधु कुछ समय बाद आकर दीक्षा देने का वचन देकर चला गया। पाँच पखवारे बाद महात्मा उसी वणिक के द्वार पर आए और भिक्षा के लिए आवाज लगाई। वणिक ने स्वर पहचान लिया और एक से एक बढ़कर पकवानों से थाली सजाकर ले आया। उसे आस थी कि संत इस बार दीक्षा अवश्य देंगे। साधु ने अपना कमंडल आगे करते हुए कहा कि भोजन इसी में डाल दो। वणिक ने देखा "कमंडल में न जाने कूड़ा - कर्कट आदि क्या - महात्मन् आपका कमंडल तो बहुत गंदा है , उसमें भोजन अशुद्ध एवं अभोज्य हो जाएगा। ’’ साधु ने तुरंत उत्तर दिया - " कमंडल की गंदगी से जिस प्रकार भोजन अशुद्ध हो जाएगा , इसी प्रकार विषय - विकारों से मलिन अंतःकरण में दीक्षा अशुद्ध हो जाएगी। उसका कोई फल न निकलेगा। ’’ वणिक ने संत का आशय समझकर प्रणाम किया और कहा - " महाराज मुझे अभी दीक्षा की आवश्यकता नहीं है। पहले पात्रता उत्पन्न करूँगा तब दीक्षा की इच्छा। ’’

तैमूरलंग की कीमत taimur Lang ki kimat

दुनिया के कट्टर और खूँखार बादशाहों में तैमूरलंग का भी नाम आता है। व्यक्तिगत महत्त्वाकाँक्षा , अहंकार और जवाहरात की तृष्णा से पीड़ित तैमूर ने एक बार विशाल भू-भाग को रौंदकर रख दिया। बगदाद में उसने एक लाख मरे हुए व्यक्तियों की खोपड़ियों का पहाड़ खड़ा कराया था। इसी बात से उसकी क्रूरता का पता चल जाता है। एक समय की बात है बहुत से गुलाम पकड़ कर उसके सामने लाए गए। पुर्किस्तान का विख्यात कवि अहमदी भी दुर्भाग्य से पकड़ा गया। जब वह तैमूर के सामने उपस्थित हुआ तो एक विद्रूप सी हँसी हँसते हुए तैमूर ने दो गुलामों की ओर इशारा करते हुए पूछा - सुना है कि कवि बड़े पारखी होते हैं , बता सकते हो इनकी कीमत क्या होगी ?‌ ’’ ‘‘ इनमें से कोई भी ४ हजार अशर्फियों से कम कीमत का नहीं है। ’’ अहमदी ने सरल किंतु स्पष्ट उत्तर दिया। ‘‘ मेरी कीमत क्या होगी ? ’’ तैमूर ने अभिमान से पूछा। ‘‘ यही कोई २४ अशर्फी ’’ निश्चिंत भाव से अहमदी ने उत्तर दिया। तैमूर क्रोध से आगबबूला हो गया। चिल्लाकर बोला - बदमाश इतने में तो मेरी सदरी भी नहीं बन सकती। तू यह कैसे कह सकता है कि मेरा मूल्य कुल २४ अशर्फी है। ’’ अहमद

शुभ कार्य तत्काल करो Shubh karya tatkal karo

कोई स्त्री अपनी पिता के यहाँ से लौटी थी , अपने पति से कह रही थी - " मेरा भाई विरक्त हो गया है। वह अगली दीवाली पर दीक्षा लेकर साधु होने वाला है। अभी से उसने तैयारी प्रारंभ कर दी है। वह अपनी संपत्ति की उचित व्यवस्था करने में लगा है। ’’ भौतिक संपत्ति में बुद्धि और इस उत्तम काम में भी इतनी दूर की योजना! इस प्रकार की तैयारी करके त्याग नहीं हुआ करता। त्याग तो सहज ही हुआ करता है। पत्नी की बात सुनकर पति मुस्कराया। स्त्री ने पूछा - तुम हँसे क्यों ? हँसने की क्या बात थी। " पति बोला - और तो सब ठीक है। किंतु तुम्हारे भाई का वैराग्य मुझे बहुत अद्भुत लगा। वैराग्य हो गया है दीक्षा लेने की तिथि अभी निश्चित हुई है और वह संपत्ति की उचित व्यवस्था में लगा है। ’’ स्त्री को बुरा लगा वह बोली - ‘‘ ऐसे ज्ञानी हो तो तुम्हीं क्यों कुछ कर नहीं दिखाते। ’’ ‘‘ मैं तो तुम्हारी अनुमति की ही प्रतीक्षा में था। ’’ पुरुष ने वस्त्र उतार दिए और एक धोती मात्र पहने घर से निकल पड़ा। स्त्री ने समझा कि यह परिहास है। थोड़ी देर में उसका पति लौट आवेगा , परंतु वह तो लौटने के लिए गया ही नहीं था।

आत्म परीक्षण का ज्ञान Atma parikshan ka Gyan

एक दिन बुद्ध प्रातः भिक्षुओं की सभा में पधारे। सभा में प्रतीक्षारत उनके शिष्य यह देख चकित हुए कि बुद्ध पहली बार अपने हाथ में कुछ लेकर आये थे। उनके हाथ में एक रूमाल था। बुद्ध के हाथ में रूमाल देखकर सभी समझ गए कि इसका कुछ विशेष प्रयोजन होगा। बुद्ध अपने आसन पर विराजे। उन्होंने किसी से कुछ न कहा और रूमाल में कुछ दूरी पर पांच गांठें लगा दीं। सब उपस्थित यह देख मन में सोच रहे थे कि अब बुद्ध क्या करेंगे , क्या कहेंगे। बुद्ध ने उनसे पूछा , “ कोई मुझे यह बता सकता है कि क्या यह वही रूमाल है जो गांठें लगने के पहले था ? ” शारिपुत्र ने कहा , “ इसका उत्तर देना कुछ कठिन है। एक तरह से देखें तो रूमाल वही है क्योंकि इसमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। दूसरी दृष्टि से देखें तो पहले इसमें पांच गांठ नहीं लगीं थीं अतः यह रूमाल पहले जैसा नहीं रहा। और जहाँ तक इसकी मूल प्रकृति का प्रश्न है , वह अपरिवर्तित है। इस रूमाल का केवल बाह्य रूप ही बदला है , इसका पदार्थ और इसकी मात्रा वही है। ” “ तुम सही कहते हो , शारिपुत्र ”, बुद्ध ने कहा , “ अब मैं इन गांठों को खोल देता हूँ ”, यह कहकर बुद्ध रूमाल के दोनों सिरों को एक दू

प्रेम की भीख Prem ki bheek

बहुत पुरानी कथा है। सुबह का समय था। पाटलिपुत्र में एक भिखारी सबसे व्यस्त चौराहे पर भिक्षा के लिए बैठा था। उसी चौराहे से मंदिर जाने के लिए नगर के एक प्रसिद्ध सेठ गुजरे। भिक्षुक ने बड़ी आशा से उनके सामने अपने हाथ पसारे। यह देखकर सेठ धर्म संकट में पड़ गए। उनके पास उसे देने के लिए कुछ भी नहीं था। उन्होंने भिखारी के हाथ पर अपना हाथ रख कर कहा , ' भाई , मुझे बड़ा दु:ख है कि इस समय मेरे पास तुम्हें देने के लिए कुछ भी नहीं है। हां , कल जब मैं आऊंगा , तब निश्चित रूप से तुम्हारे लिए कुछ न कुछ लेकर अवश्य आऊंगा। ' सेठ की बात पूरी भी नहीं हुई थी कि भिखारी की आंखों से आंसू बह निकले। भिखारी को रोता देख आसपास खड़े लोगों को लगा कि सुबह की वेला में प्रथम व्यक्ति से भिक्षा न मिलने के कारण भिखारी को दु:खी हो रहा है। सभी ने उसे भिक्षा देनी चाही तो भिखारी और जोर से रोता हुआ बड़े विनम्र भाव से बोला , ' मैं भिक्षा न मिलने के कारण नहीं रो रहा हूं। अब मुझे किसी से कुछ भी नहीं चाहिए। सेठजी ने आज मुझे वो सब कुछ दे दिया है जो आज तक किसी से नहीं मिला। भीख में आज तक मुझे न जाने कितने लोगों ने धन दिए ,

इच्छाएं सांप के जहरीले दांत जैसी हैं Akshaya saamp ke jahrile dant Jaisi Hain

मन की यह मान्यता है कि तृप्ति के लिए प्राप्ति अनिवार्य है , प्राप्ति के लिए प्रवृत्ति अनिवार्य है और प्रवृत्ति के लिए इच्छा अनिवार्य है । संक्षिप्त में , इच्छा के बिना प्रवृत्ति नहीं है , प्रवृत्ति के बिना प्राप्ति नहीं है और प्राप्ति के बिना तृप्ति नहीं है। पर , वास्तविक परेशानी यह है की प्राप्ति के लिए चाहिए वह पुण्य मर्यादित है , प्रवृत्ति के लिए चाहिए वह शक्ति मर्यादित है, पर इच्छाएं ? वे तो आकाश के समान अनंत है । एक - दो - पांच या पंद्रह इच्छाओं को तुम शायद प्रवृत्ति में रूपांतरित कर सकते हो , पर जहां इच्छाएं अनंत हो वहां तुम क्या कर सकते हो ? और इन इच्छाओं का स्वरूप भी कैसा ? तुम बिल्कुल न समझ सको ऐसा ! सुबह मिठाई की मांग करने वाला मन शाम को कड़वी नीम की मांग करने लगता है ! सुबह किसी का खून करने के लिए तैयार हो जाने वाला मन शाम को उसी की खातिर जान देने के लिए तैयार हो जाता है ! सुबह भगवान के पीछे पागल मन शाम को स्त्री के विचारों में रमने लगता है । ऐसे सर्वथा न समझे जा सकने वाले मन को तुम खुश रखने में या खुश करने में सफल बन सकते हो‌? सर्वथा असंभव ! इच्छा ! यह मन का ही शायद दूसरा न

मृत्यु आती है तो कोई परिजन आदि काम नहीं आते mrutyu aati hai to koi parijan adhik kam nahin aata

पतचरा श्रावस्ती के नगरसेठ की पुत्री थी। किशोरवय होने पर वह अपने घरेलू नौकर के प्रेम में पड़ गई। जब उसके माता - पिता उसके विवाह के लिए उपयुक्त वर खोज रहे थे तब वह नौकर के साथ भाग गई। दोनों अपरिपक्व पति - पत्नी एक छोटे से नगर में जा बसे। कुछ समय बाद पतचरा गर्भवती हो गई। स्वयं को अकेले पाकर उसका दिल घबराने लगा और उसने पति से कहा – “ हम यहाँ अकेले रह रहे हैं। मैं गर्भवती हूँ और मुझे किसी की सहायता की आवश्यकता है। यदि आप आज्ञा दें तो मैं अपने माता - पिता के घर चली जाऊं ? ” पति पतचरा को उसके मायके नहीं भेजना चाहता था इसलिए उसने कोई बहाना बनाकर उसका जाना स्थगित कर दिया। लेकिन पतचरा के मन में माता - पिता के घर जाने की इच्छा बड़ी बलवती हो रही थी। एक दिन जब उसका पति काम पर गया हुआ था तब उसने पड़ोसी से कहा – “ आप मेरे स्वामी को बता देना कि मैं कुछ समय के लिए अपने माता - पिता के घर जा रही हूँ । ” जब पति को इसका पता चला तो उसे बहुत बुरा लगा। उसे अपने ऊपर ग्लानि भी हुई कि उसके कारण ही इस कुलीन कन्या की इतनी दुर्गति हो रही है। वह उसे ढूँढने के लिए उसी मार्ग पर चल दिया। रास्ते में पतचरा उसे मिल गई। पति

Worth reading instead of writing well

If I have two options - One is that, 'I should write so accurately that people are compelled to read what I have written' And the second is that, 'I live such a life that people are forced to write on my life' So which option would I prefer? The mind will always be ready to like the first option. Why? Because, there is no major challenge and no particular difficulty in succeeding. Whereas in choosing the other option the mind will always retreat. Why? Because, the challenge is huge and the success is also doubtful. Despite this, we will say this much that this world is looking a little too good today, so the credit for it goes to good literature more than to good literature. Although , Even one with bad conduct can write well and one with good conduct can write well, but those whose behavior is good and the writing is also accurate and poignant, the treatment they have done on this world is indescribable. The question is not ours, but ours. The question is not ours, but

पढ़ने योग्य लिखा जाए इसकी अपेक्षा अच्छा लिखने योग्य किया जाए। Padhne yogya likha jaaye iski apeksha likhane yogya kiya jaaye.

यदि मेरे पास दो विकल्प हों - एक यह कि , ' मैं ऐसा सटीक लिखूं कि मेरा लिखा हुआ पढ़ने के लिए लोग मजबूर हो जाए ' और दूसरा यह कि , ' मैं ऐसा जीवन जी लूं कि मेरे जीवन पर लिखने के लिए लोग मजबूर हो जाए ' तो मैं किस विकल्प को पसंद करूंगा ? प्रथम विकल्प को पसंद करने के लिए मन हमेशा तैयार रहेगा। क्यों ? क्योंकि , इसमें कोई बड़ी चुनौती नहीं है और सफल होने में कोई विशेष परेशानी नहीं है । जबकि दूसरे विकल्प को पसंद करने में मन हमेशा पीछे हटेगा। क्यों ? क्योंकि , इसमें चुनौती बहुत बड़ी है और सफलता भी संदिग्ध है। इसके बावजूद इतना ही कहूंगा कि यह दुनिया आज थोड़ी बहुत भी अच्छी दिख रही है तो इसका जितना श्रेय अच्छे साहित्य को जाता है उससे ज्यादा सद्आचरण को जाता है । यद्यपि , खराब आचरण वाला भी अच्छा लिख सकता है और सद्आचरण वाला भी अच्छा लिख सकता है , पर जिनका आचरण भी सद् है और लेखन भी सटीक तथा मार्मिक है उन्होंने इस दुनिया पर जो उपकार किया है वह अवर्णनीय है। प्रश्न दूसरों का नहीं , हमारा है । प्रश्न साहित्यकारों का नहीं , हमारा है । क्या मुझे ऐसा साहित्यकार बनना चाहिए कि लोगों को मुझे पढ़ें