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Showing posts from January, 2021

बैंक में जमा पूंजी बढ़ाने के समान है सेवा Bank me jama punji badhane ke Saman hi seva

भगवान आपसे कुछ नहीं चाहता। जब आप कुछ भी करते हैं सिर्फ उसका आनंद प्राप्त करने के लिए और उसमें से कुछ भी नहीं चाहते, वही सेवा है। सेवा से आपको तत्काल संतोष और दीर्घकालिक आनंद प्राप्त होता है। अपने भीतर भगवान को देखना ध्यान है और आपके बाजू के व्यक्ति में भगवान को देखना सेवा है। अक्सर लोगों में भय होता है कि दूसरे लोग उनका शोषण करेंगे यदि वह सेवा करेंगे। सनकी हुए बिना सजग और बुद्धिमान रहें। सेवा से योग्यता आती है और ध्यान के गहन में जाने में सहायता मिलती है और ध्यान से आपकी मुस्कुराहट वापस आ जाती है। सेवा और आध्यात्मिक अभ्यास साथ में चलते हैं। जितना आप ध्यान के गहन में जाएंगे उतनी ही दूसरों के साथ बांटने की इच्छा में वृद्धि होगी। जितनी आप दूसरों की सेवा करेंगे उतने ही गुण आप प्राप्त करेंगें। कई लोग सेवा इसलिये करते हैं क्योंकि उससे उन्हें लाभ प्राप्त होता है। जब लोग खुश होते हैं तो उन्हें लगता है कि अतीत में निश्चित ही उन्होंने सेवा की होगी। इसके विपरीत यदि आप खुश नहीं हैं तो फिर सेवा करें इससे आपकी चेतना का विस्तार होगा और आप खुशी का अनुभव करेंगें। जितना आप बांटेंगे उतनी ही शक्ति और प्रच

भगवान का सबसे प्रिय आहार अहंकार bhagwan ka sabse Priya aahar ahankar

अहंकार शब्द बना है अहं से‌ , जिसका अर्थ है 'मैं '। जब व्यक्ति में यह भावना आ जाती है कि 'जो हूं सो मैं , मुझसे बड़ा कोई दूसरा नहीं है ' तभी व्यक्ति का पतन शुरू हो जाता है। द्वापर युग में सहस्रबाहु नाम का राजा हुआ। उसे बल का इतना अभिमान हो गया कि शिव से ही युद्घ करने पहुंच गया। भगवान शिव ने सहस्रबाहु से कह दिया कि तुम्हारा पतन नजदीक आ गया है। परिणाम यह हुआ कि भगवान श्री कृष्ण से एक युद्घ में सहस्रबाहु को पराजित होना पड़ा। रावण विद्वान होने के साथ ही महापराक्रमी था। उसे अपने बल और मायावी विद्या का अहंकार हो गया और उसने सीता का हरण कर लिया। इसका फल रावण को यह मिला कि रावण का वंश सहित सर्वनाश हो गया। अंत काल में उसका सिर भगवान राम के चरणों में पड़ा था। भगवान कहते हैं ‌ ' मेरा सबसे प्रिय आहार अहंकार है ' अर्थात अहंकारियों का सिर नीचा करना भगवान को सबसे अधिक पसंद है । अहंकारी का सिर किस प्रकार भगवान नीचे करते हैं इस संदर्भ में एक कथा है कि , नदी किनारे एक सुन्दर सा फूल खिला। उसने नदी के एक पत्थर को देखकर उसकी हंसी उड़ायी कि , तुम किस प्रकार से नदी में पड़े रहते हो।

भगवान की भक्ति ही शरीर का सदुपयोग है bhagwan ki bhakti hi sharir ka sadupyog hai

हर जीव परमात्मा का ही अंश है जो परमात्मा से बिछड़ गया है। इसलिए हर जीव परमात्मा को प्राप्त करने के लिए छटपटा रहा है। परामात्मा से मिलने का आनंद जीव सांसारिक पदार्थों में ढूंढ़ा करता है। किन्तु क्षणभंगुर संसार में वह शाश्वत परम आनंद मिल ही नहीं पाता , क्षणभंगुर विषयों के आनंद में मस्त होकर जीव अपना परम लक्ष्य भुला देता है। इस प्रकार बार-बार जन्म लेने व मरने के चक्र में फंसकर जीव दुःखी होता रहता है। लेकिन सामान्य तौर पर जीव ऐसा सोचता है कि यदि परमानंद न मिले तो सांसारिक आनंद तो मिले , लेना आनंद ही है क्योंकि यह आनंद से बिछड़ा हुआ उस परमआनंद को ढूंढता फिरता हैं - आनंद आनंद सब कोई कहे, आनंद गुरु ते जानेयां। आनंद पाने के लिए तो आज सारी दुनिया दौड़ रही है। खाने-पीने व मौज-मस्ती में लोग आनंद पाने के लिए ही संलग्न होते हैं। किंतु संसार के सभी सुखों का अंत दु:ख के रूप में होता है। अंत में मनुष्य को खाली हाथ ही इस दुनिया से कूच करना पड़ता है। वास्तव में शाश्वत आनंद पाने की युक्ति तो सद्गुरु की अनुकंपा से ही हासिल होती है। संसार के आनंद तो एक अवधि के बाद निश्चित रूप से समाप्त हो जाते हैं और जीव

अनाथ anath

श्रमण अनाथी , नगर के बाहर उपवन में थे युवा अवस्था , भरपूर चैतन्य शक्ति और ऊर्जा का आध्यात्मिक प्रयोग वर्षों की साधना को घंटों में पूर्ण कर रहे थे। एक दिन उपवन में सम्राट श्रेणिक पहुंचे । मुनि के दमकते हुए चेहरे और उभरते हुए यौवन से श्रेणिक विस्मय -विमुग्ध हो उठे। सोचने लगे ,यह सौंदर्य भोग के लिए है या योग के लिए है ? सन्यासी होने का अर्थ यह तो नहीं है कि जीवन के साथ ही अन्याय किया जाए। श्रेणिक मुनि के पास पहुंचे । पूछा ' इस तरह यौवन अवस्था में गृह - त्याग कर सन्यास अपनाने की सार्थकता क्या है ? मुनि ! यह यौवन , भोगों को भोगने के लिए है । तुम उसे क्षीण कर रहे हो । ' मुनि ने कहा , ' नहीं ! मैं ऊर्जा का सदुपयोग कर रहा हूं । वह व्यक्ति भला साधनाओं की पराकाष्ठाओं को कैसे छू पायेगा जो अपना यौवन संसार को सौंपता है और बुढ़ापा परमात्मा को। राजन ! जितनी उर्जा भोग के लिए चाहिए , उससे सौ -गुनी ऊर्जा योग के लिए भी आवश्यक है । ' सम्राट सकपका गया । पूछने लगा ' मुनिवर ! क्या मैं आपका नाम जान सकता हूं । ' मुनि ने कहा , ' अनाथी । ' ' अनाथी ! बड़ा विचित्र नाम है। मु

अहंकार ही माया है ahankar hi Maya hai

अधिकतर लोग ईश्वर की सत्ता को मानते हैं , फिर क्या वजह है कि लोग यह मानते हुए भी उसे देख नहीं पाते ? इसका जवाब यह है कि उन लोगों को ईश्वर इसलिए दिखाई नहीं देता , क्योंकि माया का आवरण मनुष्य के ऊपर पड़ा होता है। जैसे सूर्य सबको प्रकाश और ऊष्मा देता है , लेकिन यदि वह बादलों से घिर जाए , तो अपना काम नहीं कर पाता। माया का पर्दा भी इसी प्रकार है। अब प्रश्न यह है कि यह माया है क्या ? माया है हमारा अहंकार। अहंकार के रूप में यह माया बिल्कुल सूर्य के सामने आ गए मेघ की तरह ही है। इसी के कारण हम ईश्वर को नहीं देख पाते। इसे इस तरह समझो कि अगर मैं अपने अंगोछे की ओट कर लूं , तो तुम मुझे नहीं देख सकते , लेकिन सच्चाई यह है कि मैं तुम्हारे बिल्कुल नजदीक हूं। इसी तरह ईश्वर भी हमारे बहुत निकट है , किंतु अहंकार रूपी आवरण के कारण हम उसे नहीं देख पाते। क्योंकि जब अहंकार रहता है , तब न ज्ञान होता है , न मुक्ति मिलती है। अहंकार के कारण घमंड आता है। हांडी में रखे दाल , चावल , पानी या आलू को हम तभी छू सकते हैं , जब तक उसे आग पर न रखा जाए। जीव की देह भी हांडी की तरह है। धन , मान-सम्मान , विद्या-बुद्धि , जाति-कु

जीवन का अर्थ बताती है अर्थी jivan ka arth batati hai arthi

जीवन भर व्यक्ति इसी सोच में उलझा रहता है कि उसका परिवार है , बीबी बच्चे हैं। इनके लिए धन जुटाने और सुख-सुविधाओं के इंतजाम में हर वह काम करने के लिए तैयार रहता है जिससे अधिक से अधिक धन और वैभव अर्जित कर सके। अपने स्वार्थ के लिए व्यक्ति दूसरों को नुकसान पहुंचाने के लिए भी तैयार रहता है। जबकि हर व्यक्ति के शरीर में आत्मा रूप में बसा ईश्वर गलत तरीके से , दूसरों को अहित पहुंचाकर लाभ पाने के लिए मना करता है। लेकिन जब व्यक्ति आत्मा की बात नहीं सुनता है तो आत्मा मौन धारण कर लेती है। आत्मा को उस दिन का इंतजार रहता है जब व्यक्ति अर्थी पर पहुंचता है। इस समय व्यक्ति को जीवन का अर्थ और आत्मा की कही बातें याद आती है। लेकिन इस समय पश्चाताप के अलावा कुछ और नहीं बचता है। सब कुछ मिट्टी में मिल चुका होता है। आपने मृत व्यक्ति को बांस की फट्ठियों पर लेकर जाते हुए कभी न कभी जरूर देखा होगा। बांस की फट्ठियों पर जिस पर शव को लिटाया जाता है इसे अर्थी कहते हैं। अर्थी को उठाने के लिए चार कंधों की जरूरत पड़ती है। जब व्यक्ति की अर्थी उठायी जाती है उस समय आत्मा मृत व्यक्ति से कहती है देखो , तुम्हारी यही औकात है। तुम

दूसरों के भीतर गुण देखिए, दुर्गुण नहीं dusron ke bhitar gun dekhiae durgun Nahin

कबीरदास जी ने कहा है , ' बुरा जो देखन मैं चला , बुरा न मिलया कोय। जो दिल ढूंढ़ा आपना , मुझसे बुरा न कोय ।। ' कबीरदास जी अपने इस दोहे से जीवन के उस आर्दश को व्यक्त करते हैं जिसकी आज के मनुष्य को बड़ी जरूरत है। ध्यान कीजिए पूरे दिन में आप दूसरों के कितने गुणों को पहचानते हैं। शायद दो या एक अथवा एक भी नहीं। लेकिन बुराई पर ढेरों गिन लेंगे। यही व्यक्तित्व की सबसे बड़ी कमी है। हम सभी को दूसरों के गुण देखने चाहिए न कि अवगुण। जो मनुष्य यह कला सीख लेता है उसके लिए न कोई शत्रु होता है न नफरत का पात्र। ऐसे व्यक्ति के सभी मित्र होते हैं और लोक-परलोक में उनकी कीर्ति बनी रहती है। ऐसे ही एक गुणवान व्यक्ति थे संत उड़िया बाबा। यह असहायों , गरीबों और बीमार व्यक्ति की सहायता को ही सबसे बड़ा धर्म बताया करते थे। दुनियादारी , लोभ-मोह से इनका कोई वास्ता नहीं था। आज के संतों की भांति यह सिर्फ उपदेश नहीं देते थे बल्कि , व्यवहारिक जीवन में खुद भी अपने उपदेश के अनुसार चलने की कोशिश करते थे। इनका कहना था प्रत्येक प्राणी में ईश्वर है। इसलिए किसी के दोष को नहीं देखना चाहिए। दूसरों में दोष ढूंढना ईश्वर मे

बुढ़ापा जीवन का सुनहरा अध्याय है budhapa jivan ka sunhara adhyay hai

बूढा आदमी दुनिया का सबसे बडा विश्वविद्यालय है। बूढे की एक एक झुर्रियों में जीवन के हजार-हजार अनुभव लिखे होते हैं। बूढे की कांपती हुई गर्दन कहती है कि दुनिया में कुछ भी सार नही है उसके कांपते हुए हाथ कहते हैं कि परोपकार और दान करना हो तो आज ही कर लो, वर्ना कल कुछ न कर पाओगे। उसके लड़खडाते पैर कहते हैं कि तीर्थ यात्रा आज ही कर डालो , वर्ना हम लाचार हो जाएंगे। दुनिया में ऐसा कोई भी नही है जो सदैव युवा रहे। राम , कृष्ण , महावीर सभी को बुढापा आया। लेकिन यह मत समझो कि बुढापा जीवन का अन्तिम सफर है। बुढापा तो जीवन का एक सुनहरा अध्याय है। किसी भी बूढे को निराश और हताश नही होना चाहिए। 20 साल का जवान भी निराशवादी है तो वह बूढा है और यदि 80 साल बूढा भी आशवादी है तो वह जवान है। यह मत सोचना कि बुढापे में कुछ नही कर सकते , 70 साल की उम्र में सुकरात साहित्य की रचना करते थे। 80 साल की उम्र में कीरो ने ग्रीक भाषा सीखी थी और 90 वर्ष की उम्र तक पिकासो चित्र बनाते रहे। जब 70 साल की उम्र में महात्मा गांधी देश की आजादी के लिए लड़ सकते हैं तो हम बुढापे से क्यों नही लड़ सकते। बुढापे में कभी खाली मत बैठना , कुछ

मौन जीवन का स्त्रोत है और रोगों का उपचार है mon jivan ka strot hai rogo ka upchar hai

वैशाख माह की पूर्णिमा को बुद्ध को जब बोध प्राप्त हुआ , तो ऐसा कहा जाता है कि वे एक सप्ताह तक मौन रहे। उन्होनें एक भी शब्द नहीं बोला। पौराणिक कथायें कहती हैं कि स्वर्ग के सभी देवता चिंता में पड़ गये। वे जानते थे कि करोड़ों वर्षों में कोई विरला ही बुद्ध के समान ज्ञान प्राप्त कर पाता है। और वे अब चुप हैं ! देवताओं नें उनसे बोलने की विनंती की। महात्मा बुद्ध ने कहा , '' जो जानते हैं , वे मेरे कहने के बिना भी जानते हैं और जो नहीं जानते है , वे मेरे कहने पर भी नहीं जानेंगे। एक अंधे आदमी को प्रकाश का वर्णन करना बेकार है। जिन्होनें जीवन का अमृत ही नहीं चखा है उनसे बात करना व्यर्थ है , इसलिए मैनें मौन धारण किया है। जो बहुत ही आत्मीय और व्यक्तिगत हो उसे कैसे व्यक्त किया जा सकता है ? शब्द उसे व्यक्त नहीं कर सकते। शास्त्रों में कहा गया है कि, जहाँ शब्दों का अंत होता है वहाँ सत्य की शुरुआत होती है । '' देवताओं ने उनसे कहा , '' जो आप कह रहे हैं वह सत्य है परन्तु उनके बारे में सोचें जो सीमारेखा पर हैं , जिनको पूरी तरह से बोध भी नहीं हुआ है और पूरी तरह से अज्ञानी भी नहीं हैं। उ

नए साल में शान्ति और समृद्धि पाने के सात उपाय naye sal mein shanti aur samriddhi pane ke sath upay

नववर्ष पर सब के होठों पर खुशी , शांति और समृद्धि पाने की कामना रहती है , लेकिन शांति का मतलब क्या हमें सच में पता है? शांति हमारे भीतर है। बीते साल से गुजरकर नए साल में प्रवेश करते हुए , चलो हम सब इस आतंरिक शांति के प्रति सजग रहने का संकल्प लें और अपनी मुस्कान को अपने अंदर की सच्ची समृद्धि की पहचान बना लें। ऐसा करने के सात उपाय हैं - दिव्यता पर भरोसा रखो इस वर्ष , अपनी भक्ति को पूरी तरह खिलने दो और उसे अपने काम आने का मौका दो।हमारे प्यार , विश्वास , और आस्था की जड़ों को गहरा होना चाहिए और फिर सब कुछ अपने आप होने लगता है। मैं धन्य हूँ की भावना तुमको किसी भी असफलता से उबरने में मदद कर सकती है। जब तुमको समझ में आ जाएगा कि तुम वाकई में धन्य हो तो तुम्हारी सभी शिकायतें और असंतोष खत्म हो जायेगा , और तुम असुरक्षित न महसूस करते हुए आभारी , तृप्त और शांतिपूर्ण बन जाओगे। खुद के लिए समय निकालो तुम रोज़ केवल जानकारी जुटाने में लगे रहते हो और अपने लिए सोचने और चिंतन करने के लिए समय नहीं निकालते। उसके बाद तुम्हें सुस्ती और थकान महसूस होती है। मौन के कुछ क्षण तुम्हारी रचनात्मकता के स्रोत हैं। मौन त

नव-वर्ष में शांति से उठाएं पहला कदम nav varsh me shanti se uthane pahla kadam

नया वर्ष , नया समय , नए निर्णय , नए सपने और उन्हें पूरा करने के लिए नया उत्साह। इस एक तारीख के गर्भ में आने वाले तीन सौ चौसठ दिन की कहानियां छिपी हैं। इसलिए नए के उत्साह का मतलब केवल सक्रियता ही न समझी जाए। यह पहली तारीख केवल दिमाग और शरीर को दौड़ाने में ही खर्च न कर दी जाए। आज थोड़ा समय रुकने को भी दीजिए। मेडिटेशन करके , निर्विचार होकर शांति के साथ पहला कदम उठाइए। वरना चाहत तो हमारी जीतने की होगी , पर पराजय विश्व विजेता रावण की तरह हो जाएगी। सुंदरकांड का दृश्य है। हनुमान बीते वर्ष की तरह लंका का माहौल पूरी तरह बदलकर जा चुके थे। आज रावण अपनी सभा में पहुंचा था , नई शुरुआत करनी थी उसे निर्णयों की। तुलसीदासजी ने दृश्य लिखा है - अस कहि बिहसि ताहि उर लाई। चलेउ सभां ममता अधिकाई।। मंदोदरी हृदयं कर चिंता। भयउ कंत पर बिधि बिपरीता।। यानी रावण ने ऐसा कहकर हंसकर उसे हृदय से लगा लिया और अधिक स्नेह जताते हुए वह सभा में चला गया। बीते वक्त और आने वाले वक्त के साथ चिंता एवं खुशी का माहौल रहता है। भविष्य की चिंता में थी मंदोदरी , क्योंकि वह अपने पति का कमजोर पक्ष जानती थी। ज्यों ही रावण सभा में जा

अपना अपना देखने का नजरिया apna apna dekhne ka najriya

एक बार एक संत अपने शिष्यों के साथ नदी में स्नान कर रहे थे। तभी एक राहगीर वंहा से गुजरा तो महात्मा को नदी में नहाते देख वो उनसे कुछ पूछने के लिए रुक गया। वो संत से पूछने लगा महात्मन एक बात बताईये कि यंहा रहने वाले लोग कैसे है क्योंकि मैं अभी अभी इस जगह पर आया हूँ और नया होने के कारण मुझे इस जगह को कोई विशेष जानकारी नहीं है। इस पर महात्मा ने उस व्यक्ति से कहा कि भाई में तुम्हारे सवाल का जवाब बाद में दूंगा पहले तुम मुझे ये बताओ कि तुम जिस जगह से आये वो वंहा के लोग कैसे है ? इस पर उस आदमी ने कहा उनके बारे में क्या कहूँ महाराज वंहा तो एक से एक कपटी और दुष्ट लोग रहते है इसलिए तो उन्हें छोड़कर यंहा बसेरा करने के लिए आया हूँ। महात्मा ने जवाब दिया बंधू तुम्हे इस गाँव में भी वेसे ही लोग मिलेंगे कपटी दुष्ट और बुरे । वह आदमी आगे बढ़ गया । थोड़ी देर बाद एक और राहगीर उसी मार्ग से गुजरता है और महात्मा से प्रणाम करने के बाद कहता है महात्मा जी मैं इस गाँव में नया हूँ और परदेश से आया हूँ और इस ग्राम में बसने की इच्छा रखता हूँ। लेकिन मुझे यंहा की कोई खास जानकारी नहीं है इसलिए आप मुझे बता स

हुनर को कोई दबा नहीं सकता hunar koi daba Nahin Sakta

   फलेरा नाम के धनी व्यक्ति के घर में एक अनपढ़ लड़का बर्तन मांजने का काम करता था। उसे जब भी फुर्सत मिलती , वह पास के एक मूर्तिकार के यहां चला जाता। वहां मूर्तियां बनते और पत्थर कटते वह बहुत ही ध्यान से देखता। अपनी लगन के कारण मूर्तियों को देख-देखकर ही मूर्तियां बनाने में कुशल हो गया। एक दिन उसके मालिक ने नगर के प्रतिष्ठित व्यक्तियों और राज्य के बड़े-बड़े अधिकारियों को दावत पर बुलाया। हॉल के मध्य एक बड़ी मेज रखी हुई थी जिसे मुख्य बैरे ने सजाया था पर सजावट करते हुए उससे कुछ ऐसी गलती हो गई कि वह हताश हो गया।   बर्तन मांजने वाले लड़के ने जब मुख्य बैरे की हालत देखी तो उससे बोला , ' यदि आप आज्ञा दें तो मैं प्रयास करके देखूं। ' मुख्य बैरा वहां से हट गया। लड़का तुरंत अपने कार्य में जुट गया। उसके दिमाग में क्या था , किसी को मालूम नहीं था। उसने तुरंत ढेर सारा मक्खन मंगाया और जमे हुए मक्खन से चीते की आकर्षक मूर्ति बना दी। मूर्ति देख वहां के सभी बैरे वाह-वाह कर उठे। विशिष्ट मेहमान आने लगे। आगंतुकों में एक मूर्तिकला का विषेशज्ञ भी था। वह मूर्ति के सौंदर्य से अभिभूत था। उसने मुख्य बैरे से पूछ

हनुमान से सीखें ये सबसे महत्वपूर्ण संस्कार… Hanuman se sikhen yah sabse mahatvpurn sanskar

दूसरे का मान रखते हुए हम सम्मान अर्जित कर लें , इसमें गहरी समझ की जरूरत है। होता यह है कि जब हम अपनी सफलता , सम्मान या प्रतिष्ठा की यात्रा पर होते हैं , उस समय हम इसके बीच में आने वाले हर व्यक्ति को अपना शत्रु ही मानते हैं। महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए मनुष्य सारे संबंध दांव पर लगा देता है। आज के युग में महत्वाकांक्षी व्यक्ति का न कोई मित्र होता है , न कोई शत्रु। उसे तो सिर्फ अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति करनी होती है। हर संबंध उसके लिए शस्त्र की तरह हैं। लेकिन कुछ लोग ऐसे होते हैं , जो दूसरे की भावनाओं , रिश्ते की गरिमा और सबके मान-सम्मान को ध्यान में रखकर अपनी यात्रा पर चलते हैं। हनुमानजी उनमें से एक हैं। सुंदरकांड में एक प्रसंग है। हनुमानजी और मेघनाद का युद्ध हो रहा था। मेघनाद बार-बार हनुमानजी पर प्रहार कर रहा था , लेकिन उसका नियंत्रण बन नहीं रहा था। तब उसने हनुमानजी पर ब्रह्मास्त्र का प्रहार किया। हनुमानजी को भी वरदान था कि वह किसी अस्त्र-शस्त्र से पराजित नहीं होंगे। उनका नाम बजरंगी इसीलिए है कि वे वज्रांग हैं। जिसे कह सकते हैं स्टील बॉडी। जैसे ही शस्त्र चला , हनुमानजी ने विचार कि

मन ही माया है Man hi Maya hai

मन से मुक्त हो जाना ही संन्यास है। इसके लिए पहाड़ों पर या गुफाओं में जाने की कोई जरूरत नहीं है। दुकान में , बाजार में , घर में.. हम जहां भी हों , वहीं मन से छूटा जा सकता है..। संत लाख कहें कि संसार माया है , लेकिन सौ में से निन्यानबे संत तो खुद ही माया में उलझे रहते हैं। लोग भी अंधे नहीं हैं। वे सब समझते हैं। वे समझते हैं कि महाराज हमें समझा रहे हैं कि संसार माया है , वहीं वे स्वयं माया में ही उलझे हुए हैं। मेरा मानना है कि संसार माया नहीं , बल्कि सत्य है। संसार माया नहीं , वास्तविक है। परमात्मा से वास्तविक संसार ही पैदा हो सकता है। अगर ब्रह्मा सत्य है , तो जगत मिथ्या कैसे हो सकता है ? ब्रह्मा का ही अवतरण है जगत। उसी ने तो रूप धरा , उसी ने तो रंग लिया। वही तो निराकार आकार में उतरा। उसने देह धरी। अगर परमात्मा ही असत्य हो , तभी तो संसार असत्य हो सकता है। लेकिन न तो परमात्मा असत्य है , न ही संसार। दोनों सत्य के दो पहलू हैं - एक दृश्य एक अदृश्य। माया फिर क्या है ? मन माया है। मैं संसार को माया नहीं कहता , मन को कहता हूं। मन है एक झूठ , क्योंकि मन वासनाओं , कामनाओं , कल्पनाओं और स्मृतियों क

रिश्ते की बुनियाद ही प्रेम है rishte ki buniyad hi prem hai

प्रेम नहीं हो तो रिश्तों में दूसरा कोई भाव अपना असर नहीं दिखाएगा। अगर मामला निजी संबंधों का हो तो उसमें अधिक सावधानी रखना होती है। हमारे सबसे करीबी संबंधों में जीवनसाथी सबसे ऊपर होता है। इस रिश्ते की बुनियाद ही प्रेम है। प्रेम हो यह अच्छा है, लेकिन प्रेम को भी नयापन चाहिए। एक सी अभिव्यक्ति और व्यवहार बोरियत पैदा करता है , रिश्ते में ऊबाउपन आ जाता है । पति-पत्नी के संबंधों में जरूरी है एक दूसरे से जीवंत संवाद होना। इस रिश्ते में एकांत की आवश्यकता होती है। आधुनिक दंपत्तियों की समस्या होती है कि जब वे दोनों एकांत में होते हैं तो बातचीत में कोई तीसरा ही होता है। यह हमेशा याद रखें कि अगर आप अपने दाम्पत्य में प्रेम को जीवित रखना चाहते हैं तो कोशिश करें कि जब भी एकांत में हों तो बातचीत का मुद्दा भी आप दोनों ही रहें। कोई तीसरा व्यक्ति आपकी बातों का विषय ना हो। इससे दो फायदे होते हैं एक तो अपने साथी को समझने का अवसर मिलता है , दूसरा विवाद की संभावना नहीं रहती। जरूरी नहीं है कि पति-पत्नी एकांत में हों तो कोई गंभीर मुद्दा ही चर्चा में रहे। हल्की-फुल्की बातचीत और हंसी-मजाक भी होते रहना चाहिए। भा

व्यसन कोई भी ऐसा नहीं जिसे छोड़ा ना जा सके vyasan koi bhi aisa Nahin jise chhoda Na ja sake

एक समय शराब का एक व्यसनी एक संत के पास गया और विनम्र स्वर में बोला , ' गुरूदेव , मैं इस शराब के व्यसन से बहुत ही दु:खी हो गया हूँ। इसकी वजह से मेरा घर बरबाद हो रहा है। मेरे बच्चे भूखे मर रहे हैं , किन्तु मैं शराब के बगैर नही रह पाता ! मेरे घर की शांति नष्ट हो गयी है। कृपया आप मुझे कोई सरल उपाय बताएँ , जिससे मैं अपने घर की शांति फिर से पा सकूँ । ' गुरूदेव ने कहा , ' जब इस व्यसन से तुमको इतना नुकसान होता है , तो तुम इसे छोड़ क्यों नहीं देते ? ' व्यक्ति बोला , ' पूज्यश्री , मैं शराब को छोड़ना चाहता हूं , पर यह ही मेरे खून में इस कदर समा गयी है कि मुझे छोड़ने का नाम ही नहीं ले रही है । ' गुरूदेव ने हँस कर कहा , ' कल तुम फिर आना ! मैं तुम्हें बता दूँगा कि शराब कैसे छोड़नी है ? ' दूसरे दिन निश्चित समय पर वह व्यक्ति महात्मा के पास गया। उसे देख महात्मा झट से खड़े हुए और एक खम्भे को कस कर पकड़ लिया। जब उस व्यक्ति ने महात्मा को इस दशा में देखा , तो कुछ समय तो वह मौन खड़ा रहा , पर जब काफी देर बाद भी महात्माजी ने खम्भे को नहीं छोड़ा , तो उससे रहा नहीं गया और पूछ बै

कर्म Karma

सफलता के साथ शांति चाहिए तो अपने लिए भी जीएं । आज आप कितना भी काम कर लीजिए , लेकिन शाम को घर लौटते समय एक बेचैनी साथ लेकर ही जाएंगे। काम बहुत कर रहे हैं लेकिन संतुष्टि नहीं है। लोग सफलता की अंधी दौड़ में दौड़ तो रहे हैं , मनचाहा पैसा भी कमा रहे हैं लेकिन इस सब के बीच कुछ चीज हम खोते जा रहे हैं , वो है हमारे भीतर की मौलिकता , मासूमीयत , अपने भीतर का आनंद और संवेदनाएं। कर्म कीजिए , ये आपके लिए जरूरी है लेकिन रोजमर्रा की जिंदगी में से कुछ समय ऐसे कामों के लिए हो जो आपके निजी जीवन के लिए हो। ये कर्म ही हमारे अंतर्मन को संतुष्टि का भाव देंगे। हर काम केवल परिणाम के लिए किया जाए , फायदे के लिए किया जाए , ये ठीक नहीं। कुछ काम कभी-कभी यूं ही किया कीजिए। अपने जीवन में से कुछ समय अपनी निजता के लिए निकालें। कुछ समय खुद को भी दें। इस समय का उद्देश्य लाभ का भाव नहीं , आत्म संतुष्टि का भाव होना चाहिए। थोड़ा मेडिटेशन करें , वो काम करें जो आपके भीतर मरती जा रही प्रतिभा को जीवित रखे , जैसे संगीत , चित्रकारी या आपका कोई और शौक। कभी-कभी किसी मंदिर में जाकर थोड़ी देर आंखें मूंदकर बैठें। किसी गरीब

अमर क्रांतिकारी सूर्यसेन के बलिदान दिवस को हमें भूलना नहीं चाहिए Amar krantikari Surya Sen ke balidan divas ko hamen bhulna Nahin chahie

12 जनवरी प्रसिद्द क्रन्तिकारी अमर बलिदानी एवं अंग्रेजों को हिला कर रख देने वाले चटगांव शस्त्रागार काण्ड के मुख्य शिल्पी मास्टर सूर्यसेन का बलिदान दिवस है जिन्हें 1934 में 12 जनवरी के दिन ही फांसी पर लटका दिया गया। चटगांव (वर्तमान में बंगलादेश का जनपद) के नोआपारा में कार्यरत एक शिक्षक श्री रामनिरंजन के पुत्र के रूप में 22 मार्च 1894 को जन्में सूर्यसेन की प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा चटगांव में ही हुई थी। जब वह इंटरमीडिएट में थे तभी अपने एक राष्ट्रप्रेमी शिक्षक की प्रेरणा से वह बंगाल की प्रमुख क्रांतिकारी संस्था अनुशीलन समिति के सदस्य बन गए और क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लेने लगे लगे। इस समय उनकी आयु 22 वर्ष थी। आगे की शिक्षा के लिए वह बहरामपुर गए और उन्होंने बहरामपुर कॉलेज में बी.ए. में दाखिला ले लिया। यहीं उन्हें प्रसिद्ध क्रांतिकारी संगठन “ युगांतर ” के बारे में पता चला और वह उससे अत्यधिक प्रभावित हुए। युवा सूर्य सेन के हृदय में स्वतंत्रता प्राप्ति की भावना दिन-प्रति-दिन बलवती होती जा रही थी और इसीलिए 1918 में चटगांव वापस आकर उन्होंने स्थानीय स्तर पर युवाओं को संगठित करने के लिए “युगां

समय ही ऐसा पदार्थ है जो एक निश्चित मात्रा में मनुष्य को मिलता है samay hi aisa padarth hai jo ek nishchit matra mein manushya ko milta hai

समय का सदुपयोग करना सीखें समय जितना कीमती और फिर न मिलने वाला तत्व है उतना उसका महत्व प्रायः हम लोग नहीं समझते। हममें से बहुत से लोग अपने समय का सदुपयोग बहुत ही कम करते हैं। आज का काम कल पर टालते और उस बचे हुए समय को व्यर्थ की बातों में नष्ट करते रहते हैं। जबकि समय ही ऐसा पदार्थ है जो एक निश्चित मात्रा में मनुष्य को मिलता है , लेकिन उसका उतना ही अपव्यय भी होता है। संसार में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं जिसकी प्राप्ति मनुष्य के लिए असंभव हो। प्रयत्न और पुरुषार्थ से सभी कुछ पाया जा सकता है , लेकिन समय ही एक ऐसी चीज है जिसे एक बार खोने के बाद कहीं नहीं पाया जा सकता। एक बार हाथ से निकला हुआ वक्त फिर कभी हाथ नहीं आता। कहावत है —‘‘ बीता हुआ समय और कहे हुए शब्द वापिस नहीं बुलाये जा सकते। ’’ काल को महाकाल कहा गया है। वह परमात्मा से भी महान है। भक्ति साधना द्वारा परमात्मा का साक्षत्कार कई बार किया जा सकता है किन्तु गुजरा हुआ वक्त पुनः नहीं मिलता। समय ही जीवन है , क्योंकि उससे ही जीवन बनता है। उसका सदुपयोग करना जीवन का उपयोग करना और दुरुपयोग करना जीवन को नष्ट करना है। वक्त किसी की भी प्रतीक्षा

औसत आदमी इस भ्रमण चक्र में निरत रहकर दिन गुजार देता है। Ausat aadami is Brahman chakra mein nirath rahakar din gujar deta hai

समय का सदुपयोग करना सीखें जीवन क्या है? इसका उत्तर एक शब्द में अपेक्षित हो तो कहा जाना चाहिए — ‘ समय ’। समय और जीवन एक ही तथ्य के दो नाम हैं। कोई कितने दिन जिया ? इसका उत्तर वर्षों की काल गणना के रूप में ही दिया जा सकता है। समय की सम्पदा ही जीवन की निधि है। उसका किसने किस स्तर का उपयोग किया , इसी पर्यवेक्षण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि किसका जीवन कितना सार्थक अथवा निरर्थक व्यतीत हुआ। शरीर अपने लिए ढेरों समय खर्च करा लेता है। आठ-दस घण्टे सोने सुस्ताने में निकल जाते हैं। नित्य कर्म और भोजन आदि में चार घण्टे से कम नहीं बीतते। इस प्रकार बाहर घण्टे नित्य तो उस शरीर का छकड़ा घसीटने में ही लग जाते हैं। जिसके भीतर हम रहते और कुछ कर सकने के योग्य होते हैं। इस प्रकार जिन्दगी का आधा भाग तो शरीर अपने ढांचे में खड़ा रहने योग्य बनने की स्थिति बनाये रहने में ही खर्च हो लेता है। अब आजीविका का प्रश्न आता है। औसत आदमी के गुजारे की साधन सामग्री कमाने के लिए आठ घण्टे कृषि , व्यवसाय , शिल्प , मजदूरी आदि में लगा रहना पड़ता है। इसके साथ ही पारिवारिक उत्तरदायित्व भी जुड़ते हैं। परिजनों की प्रगति और व

एक गिलहरी बनी भगवान गौतम बुद्ध की प्रेरणास्त्रोत ek gilhari Bani bhagwan Gautam buddh ki prerna strot

एक बार महात्मा बुद्ध ज्ञान प्राप्ति के लिए घोर तप कर रहे थे। उन्होंने अपने शरीर को काफी कष्ट दिया , घने जंगलों में कड़ी साधना की , पर आत्म ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई। एक दिन निराश होकर बुद्ध सोचने लगे , ‘‘ मैंने अभी तक कुछ भी प्राप्त नहीं किया अब आगे क्या कर पाऊंगा? ’’   निराशा और अविश्वास के इन नकारात्मक भावों ने उन्हें क्षुब्ध कर दिया। कुछ ही क्षणों बाद उन्हें प्यास लगी। वह थोड़ी दूर स्थित एक झील पर पहुंचे। वहां उन्होंने एक दृश्य देखा कि एक नन्ही-सी गिलहरी के दो बच्चे झील में डूब गए हैं। पहले तो वह गिलहरी जड़वत बैठी रही , फिर कुछ देर बाद उठ कर झील के पास गई। अपना सारा शरीर झील के पानी में भिगोया और फिर बाहर आकर पानी झाडऩे लगी। ऐसा वह बार-बार करने लगी। बुद्ध सोचने लगे , ‘‘ इस गिलहरी का प्रयास कितना मूर्खतापूर्ण है , क्या कभी यह इस झील को सुखा सकेगी? ’’   किंतु गिलहरी का यह प्रयास लगातार जारी रहा। बुद्ध को लगा मानो गिलहरी कह रही हो कि यह झील कभी खाली होगी या नहीं यह तो मैं नहीं जानती किंतु मैं अपना प्रयास नहीं छोड़ूंगी। अंतत: उस छोटी-सी गिलहरी ने भगवान बुद्ध को अपने लक्ष्य-मार्ग से व

हम सभी आशा पर जीते हैं ham sabhi Asha per jite Hain

सभी भिक्षु एकत्र थे। परस्पर चर्चा के दौरान एक ने कहा , ' सारा नगर बुद्ध के प्रवचन में उपस्थित हुआ है , लेकिन राजपुरोहित कट्टरपंथी है , इसीलिए वह कभी भी प्रवचन सभा में नहीं आया है । हमें ऐसी कोशिश करनी चाहिए ताकि राजपुरोहित अह्रत् की सन्निधि में उपस्थित हो। ' कोई कुछ न बोला। सभी जानते थे कि राजपुरोहित कट्टर सांप्रदायिक है , तो साथ ही क्रूर स्वभावी भी है । वह करुणा के द्वार पर उपस्थित नहीं हो सकता । विज्ञानभिक्षु ने कहा , ' मैं प्रस्तुत हूं इस सेवा के लिए । अगर प्रभु आज्ञा दे तो मैं राजपुरोहित को सन्निधि उपस्थित कर सकता हूं । ' प्रभु ने स्वीकृति दे दी । विज्ञानभिक्षु ने प्रयत्न प्रारंभ कर दिया। राजपुरोहित के घर विज्ञानभिक्षु आहार के लिए गए , लेकिन उसने भिक्षु को देखते ही द्वार बंद कर दिया। भिक्षु दूसरे दिन फिर गए। राजपुरोहित द्वार पर ही खड़ा था। जैसे ही भिक्षु को देखा उसने द्वार बंद कर दिया। ऐसे आठ माह बीत गए। भिक्षु प्रतिदिन राजपुरोहित के घर जाते लेकिन उनके पहुंचते ही द्वार बंद कर दिया जाता। भिक्षु प्रतिदिन इस आशा से राजपुरोहित के द्वार पर पहुंच जाते कि आज नहीं तो कल

निरंतर सत्संग से दुर्जन भी सज्जन हो जाते हैं nirantar satsang se durjan bhi sajjan ho jaate Hain

महात्मा बुद्ध एक गाँव में ठहरे हुए थे। वे प्रतिदिन शाम को वहाँ पर सत्संग करते थे। भक्तों की भीड़ होती थी , क्योंकि उनके प्रवचनों से जीवन को सही दिशा बोध प्राप्त होता था। बुद्ध की वाणी में गजब का जादू था। उनके शब्द श्रोता के दिल में उतर जाते थे। एक युवक प्रतिदिन बुद्ध का प्रवचन सुनता था। एक दिन जब प्रवचन समाप्त हो गए , तो वह बुद्ध के पास गया और बोला , महाराज ! मैं काफी दिनों से आपके प्रवचन सुन रहा हूँ , किंतु यहाँ से जाने के बाद मैं अपने गृहस्थ जीवन में वैसा सदाचरण नहीं कर पाता , जैसा यहाँ से सुनकर जाता हूँ। इससे सत्संग के महत्त्व पर शंका भी होने लगती है। बताइए , मैं क्या करूँ? बुद्ध ने युवक को बाँस की एक टोकरी देते हुए उसमें पानी भरकर लाने के लिए कहा। युवक टोकरी में जल भरने में असफल रहा। बुद्ध ने यह कार्य निरंतर जारी रखने के लिए कहा। युवक प्रतिदिन टोकरी में जल भरने का प्रयास करता , किंतु सफल नहीं हो पाता। कुछ दिनों बाद बुद्ध ने उससे पूछा , “ इतने दिनों से टोकरी में लगातार जल डालने से क्‍या टोकरी में कोई फर्क नजर आया? ” युवक बोला , “ एक फर्क जरूर नजर आया है। पहले टोकरी के साथ मिट्ट

कभी-कभी मूर्ख बनना भी फायदेमंद होता है Kabhi Kabhi murkh banna bhi faydemand hota hai

मुल्ला नसीरुद्दीन की बुद्धि और प्रतिभा की लोग बहुत तारीफ़ करते थे। कुछ लोग उनको मुर्ख गधा भी कहते थे। उनके बुद्धिचातुर्य के बारे में एक एक कथा बहुत प्रचलित है जो दोस्तों हम आपको आज सुनाते है। एक समय में मुल्ला नसीरुद्दीन इतने गरीब हो गये कि उनको घर घर भटक के भीख माँगना पड़ता था। मुल्ला का बड़ी मुश्किल से पेट भरता था। मुल्ला हमेशा अपने नगर के बाजार में भीख मांगने जाते थे। इस बात से उनके विरोधियो के चेहरे पर अजीब सी मुस्कान आ गयी थी। वो लोग बहुत खुश थे और मुल्ला को जलाने के लिए वो हर दिन कोई ना कोई षडयंत्र रचते रहते थे। वो मुल्ला के सामने खड़े होकर अपने दोनों हाथो में सिक्का रखते थे जिसमे एक सोने का और दूसरा चांदी का सिक्का रहता था। वो मुल्ला को दोनों में से कोई एक सिक्का लेने के लिए कहते थे। मुल्ला जी हमेशा चांदी का सिक्का पसंद करते थे। उनकी इस मुर्खता से उनके विरोधी इतने खुश हो जाते थे कि वो मुल्ला के सामने ही नाचने लगते थे लेकिन कभी मुल्ला इस बात का बुरा नही मानते थे। एक दिन उस नगर में एक सज्जन भ्रमण के लिए आये। उन्होंने यह नजारा अपनी आँखों से देखा तो उनको मुल्ला पर बड़ा तरस आया। व

पूरी दुनिया में यही पर ब्रह्मा जी का एकमात्र मंदिर है Puri duniya mein yahi per Brahma ji ka ekmatra mandir hai

हिन्दू सनातन धर्म में प्रायः त्रिदेवो ब्रह्मा , विष्णु तथा महेश को अन्य देवो में प्रधानता दी गयी है जिनमे ब्रह्माजी सृष्टि के रचियता है , भगवान विष्णु पालनहार व भगवान शिव संहारकर्ता है।  भारत में आपको भगवान विष्णु और शिव के असंख्य मंदिर बड़े आसनी से मिल जायेंगे परन्तु ब्रह्मा जी का मंदिर आपको भारत ही नही बल्कि पूरी दुनिया में सिर्फ एक ही मिलेगा जो की राजस्थान के प्रसिद्ध तीर्थ स्थल पुष्कर में स्थित है। पुष्कर में स्थित ब्रह्मा जी के मंदिर को यहाँ के लोग उनका निवाश स्थान बतलाते है। इतिहासकारो के अनुसार एक बार ओरंगजेब ने अपने शासन काल के दौरान अनेको  हिन्दू मंदिरो  को ध्वस्त करवाया परन्तु ब्रह्मा जी के इस मंदिर को वह छू तक नही सका। इस मंदिर के समीप ही एक बहुत ही सुन्दर और पवित्र  झील  प्रवाहित होती है। जिसे पुष्कर झील कहा जाता है। इस झील में  स्नान  करने के लिए 52 घाटो का निर्माण किया गया है। तथा कार्तिक माह में बहुत से श्रद्घालु इस  पवित्र झील  में स्नान करने के लिए आते है। शास्त्रो के अनुसार हर हिन्दू को अपने जीवन काल में एक बार पुष्कर धाम की यात्रा करना महत्वपूर्ण है। क्योकि यह भी प्र

आत्म - कल्याण ही मनुष्य जीवन का सच्चा लक्ष्य है aatm Kalyan hi manushya jeevan ka saccha lakshya hai

   एक नवयुवक एक सिद्ध महात्मा के आश्रम में आया करता था। महात्मा उनकी सेवा से प्रसन्न हो बोले - बेटा " आत्म - कल्याण ही मनुष्य जीवन का सच्चा लक्ष्य है इसे ही पूरा करना चाहिए। ’ ’ यह सुन युवक ने कहा - महाराज वैराग्य धारण करने पर मेरे माता - पिता कैसे जीवित रहेंगे ? साथ ही मेरे युवा पत्नी मुझ पर प्राण देती है वह मेरे वियोग में मर जाएगा। महात्मा बोले - कोई नहीं मरेगा बेटा ! यह सब दिखावटी प्रेम है। तू नहीं मानता तो परीक्षा कर ले। युवक राजी हो गया तो महात्मा ने उसे प्राणायाम करना सिखाया और बीमार बनकर साँस रोक लेने का आदेश दिया। युवक ने घर जाकर वहीं किया। बड़े - बड़े वैद्यों से चिकित्सा हुई परंतु दूसरे दिन ही उनसे साँस रोक ली। घर वाले उसे मरा समझ हो - हल्ला मचाने और पछाड़ें खाने लगे। पड़ोस के बहुत से लोग इकट्ठे हो गए। तभी महात्मा भी वहाँ जा पहुँचे और युवक को देखकर उसकी गुण गरिमा का बखान करते हुए बोले - हम इस लड़के को जीवित कर देंगे , परंतु तुम्हें कुछ त्याग करना पड़ेगा। घर वाले बोले - आप हमारा सारा धन , घर-बार यहाँ तक कि प्राण भी ले लें , परंतु इसे जीवित कर दें। महात्मा बोले - एक कटोरा दूध