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Showing posts from November, 2020

इंसान अपने दु:ख खुद खरीदता है insan Apne dukh khud khareedta hai

एक बार गुरु नानक देव एक नगर में गए। वहां सारे नगरवासी इकट्ठे हो गए। वहां एक महिला भक्त गुरु नानक देव जी से कहने लगी ,  'महाराज मैंने सुना है , आप सभी के दु:ख दूर करते हो। मेरे भी दु:ख दूर करो। मैं तो रोज रोटी अपने घर से बनाकर लंगर में बांटती हूं , फिर भी मुझे सुख क्यों नहीं महसूस होता ? ' गुरु नानक देव जी ने कहा , ' तुम दूसरों का दु:ख अपने घर लाती हो , इसीलिए दु:खी हो।' महिला भक्त बोली , ' महाराज , मुझे कुछ समझ नहीं आया , मुझ अज्ञानी को ज्ञान दो। ' फिर गुरु नानक देव ने पूछा , ' तुम जो रोटी लंगर में बांटती हो , उसके बदले में वहां से क्या लेकर जाती हो ? ' स्त्री ने जवाब दिया , सिर्फ आपके लंगर के सिवा और कुछ भी नहीं । ' गुरु नानक देव जी ने कहने लगे , ' लंगर का मतलब है एक रोटी खाना और अपने गुरु का शुकर मनाना। पर तुम तो रोज बड़ी - बड़ी थैलियों में रोटी भर - भर के वापस ले जाती हो। तुम अपने घर के सभी को लंगर खिलाती हो , पर यह नहीं जानती कि गुरुद्वारे में इस लंगर को चखने से कितनों के दु:ख दूर होने थे। तुमने अपने सुख के लिए दूसरों के दु:ख दूर नहीं होन

महादान निर्धन की उत्कट भावनाओं का mahadan nirdhan ki utkat bhavnaon ka

वह सुबह उठा और देखा कि मकान के पीछे बे-मौसम का कमल का फूल खिला था। उसने फूल तोड़ा , सोचा , सिवा सम्राट् के कोई भी व्यक्ति इस में बे-मौसमी कमल का सही मूल्यांकन नहीं कर पाएगा। कमल हाथ में लेकर वह निर्धन राजमहल की ओर रवाना हो गया। राह में मंत्री मिल गया। बे-मौसम का कमल देखकर वह भी आकर्षित हो गया। कहा , ' इस फूल का कितना लोगे ? ' उसने कहा , ' सौ रूपए। ' मंत्री ने कहा , ' हजार दूंगा , कमल मुझे दे दो ।' वह निर्धन चौंका। एक फूल का हजार रुपया ! जरूर इसमें कोई राज है। अगर सम्राट से मिलना हो जाए तो वह इससे भी अधिक मूल्य देगा। उसने कहा , ' क्षमा करें , मैं विक्रय नहीं कर पाऊंगा ।' मंत्री जा रहा था बुध्द के दर्शन को। सोचा बे-मौसम का फूल है , चाहे जो मूल्य लगे , आज इसे भगवान बुध्द के चरणों में चढ़ाना है। उसने कहा , ' दस हजार दूंगा ।' लेकिन वह निर्धन इंकार कर गया। जैसे-जैसे मंत्री रुपए बढ़ाता गया , वैसे-वैसे उसने कहा , ' मुझे नहीं बेचना है। ' अन्तत: मंत्री खाली हाथ चला गया। जैसे ही मंत्री का रथ गया कि राजा रथ आया। वह निर्धन प्रसन्न हो गया। उसने सो

गौतम प्रभु को राग - मुक्त किया Gautam Prabhu ko raag - mukt Kiya

इंद्रभूति गौतम तीर्थंकर महावीर के परम शिष्य थे। महावीर प्राय: उन्हें कहा करते थे , ' शिष्य , होश संभालो। ' गौतम के लिए महावीर सर्वोपरि थे। एक क्षण के लिए भी महावीर का त्याग उनके लिए असहनीय था। परमात्मा से प्रेम किया जाता है , पर गौतम ने तो राग - श्रृंखलाएं निर्मित कर ली थी। महावीर के ज्ञान से अब कुछ भी अवशेष नहीं था। वह देख रहे थे शिष्य के हृदय में अंकुरित होते हुए राग को। उन से अपना भविष्य भी ना छुपा था और गौतम का भी। वह इस सत्य से भी परिचित थे कि वे शीघ्र ही देह - मुक्त होने वाले हैं। महावीर ने गौतम को बुलाया और कहा , ' वत्स ! तुम कुशल उपदेष्टा हो। जाओ पड़ोस के गांव में और ग्राम - प्रमुख देवशर्मा को प्रतिबोध देकरा आओ। गौतम महावीर से दूर हो गए और अर्हत् ने निर्वाण प्राप्त कर लिया। गौतम ग्राम - प्रमुख को प्रतिबोधत कर लौट रहे थे। मार्ग में उन्हें ज्ञात हुआ कि महावीर नहीं रहे। गौतम विलाप करने लगे यह सोच कर कि प्रभु के रहते हुए भी परम ज्ञान उपलब्ध ना कर पाया तो अब कैसे करूंगा ? पूछा उन्होंने प्रभु के अनुयायियों को , ' क्या मेरे लिए प्रभु कोई संदेश छोड़ गए हैं ?'

परमज्ञान किसी की सहायता से प्राप्त नहीं किया जा सकता है Param gyan Kisi ki sahayata se a prapt nahin kiya ja sakta hai

तीर्थंकर महावीर कुमारग्राम के बाहर ध्यानस्थ थे। वही एक ग्वाला आया। महावीर के निकट पहुंचकर उसने अपनी गायों को गिना तो दो गायें कम थी। उसने ध्यानस्थ महावीर से कहा , ' साधो ! मेरी दो गायें पीछे छूट गई है। मैं उन्हें लेने जाता हूं। जरा इन गायों का ध्यान रखना।' महावीर से बिना जवाब पाये ग्वाला पीछे छुटी गायों को लेने रवाना हो गया। महावीर जो अन्तर्जगत में खोए हुए थे। बाहर कि उन्हें कहां खबर थी ? गायें , जिन्हें ग्वाला महावीर के पास छोड़ कर गया था , घास चरते - चरते कहीं और चली गयीं। ग्वाला लौटा। वहां एक भी गाय नहीं थी। मात्र वही साधु खड़ा था जिसके भरोसे गायें छोड़कर वह रवाना हुआ था। उसने पूछा , ' साधो ! मेरी गायें कहां है ? महावीर ने तो यह भी न सुना। जब साधक अन्तर का घण्टनाद सुन रहा हो तो बाहर की आवाज उस तक कैसे पहुंच पायेगी ? महावीर मौन खड़े थे। यह मौन ग्वाले को न सुहाया। उसने महावीर के मौन का अर्थ लगाया , ' जरूर इसी साधु ने गायें छिपा दी है।' वह क्रोधित हो उठा और महावीर को मारने दौड़ा। तत्काल किसी ने उसका हाथ पकड़ लिया। ग्वाला सकपका उठा। उसके हाथ को अधर में रोकने वाला

अमृत नहीं बांट सकते तो विष फैलाने का अधिकार तुम्हें किसने दिया ? Amrit Nahin bant sakte to Vish failane Ka adhikar tumhen kisne Diya ?

अह्रतृ महावीर उत्तर वाचाल की ओर जा रहे थे। मार्ग में दो पगडण्डियां आयीं। ग्रामीणों ने बताया , ' यह वह पगडंडी है जो सीधी उत्तर वाचाल पहुंचती है और दूसरी घूमकर । लेकिन आप दूसरी पगडंडी पर जाएं , क्योंकि छोटी पगडंडी के मार्ग में महाविषधर सर्प रहता है । जहां उस नागराज का स्थान है , उसके आसपास के वातावरण में विष की इतनी प्रचंड लहरें उठती हैं कि वहां पत्ते भी कभी खिल नहीं पाते। ' अभयदाता को भला किसका भय ! महावीर उस पगडंडी की ओर रवाना हो गए जिसमें विषधर का निवास स्थान था। वर्षों से उस मार्ग से कोई भी इंसान न गुजरा था। सर्पराज , जिसके प्रचंड विष के कारण लोग उसे चण्डकौशिक कहा करते थे , वृक्ष के नीचे लेटा हुआ था। वातावरण में किसी मनुष्य की गंध आयी। सोचा , ' क्या कोई मनुष्य यहां तक पहुंच गया है क्या मेरी विष - तरंगों ने उसे प्रभावित नहीं किया है ? वह क्रोध से तमतमा गया , फुफकारता हुआ पहुंचा वहां , जहां अह्रतृ ध्यानस्थ थे । आव देखा न ताव , उसने अह्रतृ के अंगूठे को डस लिया पर आश्चर्य ! अंगूठे से दूध बह रहा था। विषहर का मुकाबला भला विषधर कैसे कर सकता था ? महावीर ने क्रोध से फुफकार

लाभ लोभ को पैदा करता है labh lobh ko paida karta hai

अभिनिष्क्रमण से पूर्व जब तीर्थंकर महावीर वर्षी दान दे रहे थे , तब सोमभट्ट ब्राह्मण जीविकोपार्जन के लिए विदेश गया हुआ था , पर भाग्य का मारा वह खाली हाथ लौटा। पत्नी ने कहा , ' अब क्या आए हो ! जब यहां धन लूटा रहे थे महावीर , तब तुम बाहर थे और जब वह प्रव्रजित हो चुके हैं तब तुम घर आए हो। जाओ अब भी , उनके पास , वे करुणा - सागर हैं। तुम्हारी झोली भर देंगे।' सोनभट्ट घर से रवाना हो गया। वन में महावीर के पास पहुंचा और उनसे याचना की। महावीर के पास ऐसा कुछ नहीं था जो उस गरीब ब्राह्मण को दे सके। जिस आत्म - संपदा के वे स्वामी थे, वह उस गरीब के किसी काम न थी। उन्होंने इधर - उधर देखा। शरीर पर वस्त्रों के नाम पर केवल एक वस्त्र था, जिसे प्रदान किया था इंद्र ने, अभिनिष्क्रमण के समय। महावीर ने कुछ सोचा, उस वस्त्र को हाथ में लिया, दो भाग किए और एक भाग ब्राह्मण को दे दिया। जब सोमभट्ट उस वस्त्र - खंड को लेकर वस्त्र - विक्रेता के पास पहुंचा तो उसने कहा, ' यह वस्त्र लाखों का है, पर पूरी कीमत तभी मिल सकती है, जब इस का शेष भाग भी साथ हो।' लाभ लोभ को पैदा करता है। सोमभट्ट फिर चला गया महावीर

कुछ नहीं पर बहुत कुछ हो गया Kuchh Nahin per bahut kuchh ho Gaya

ऋषभ के साथ आमोद - प्रमोद करने के लिए देव- देवेंद्र- विद्याधर आया करते थे। आज ऋषभ का जन्म - दिवस था। स्वयं देवेंद्र देवलोक की नृत्यांगना नीलांजना के साथ ऋषभ को बधाई देने पहुंचे थे। ऋषभ और देवेंद्र अपने मित्रों और सहचरों के साथ नीलांजना का भावविभोर नृत्य देख रहे थे। देवेंद्र ने देखा कि ऋषभ इस नृत्य से अभिभूत हुए हैं। देवेंद्र ने पूछा , ' कैसा लगा ?' ऋषभ जवाब में मुस्कुरा दिए। तभी देवेंद्र सहमे। नीलांजना नृत्य करते-करते ही जमीन पर गिर पड़ी। ऋषभ और देवेंद्र दोनों के पास दिव्य दृष्टि थी। देवेंद्र ने पाया कि नीलांजना का आयुष्य पूर्ण हो चुका है , पर ऋषभ के आनंद में भंग न हो अतः तत्क्षण अपनी शक्ति से दूसरी नृत्यांगना को उपस्थित कर दिया। वह नृत्य शुरू करने ही वाली थी कि ऋषभ अपने सिंहासन से खड़े हो गए। देवेंद्र ने पूछा , ' क्या हुआ ?' ऋषभ ने इतना ही कहा , ' कुछ नहीं हुआ , फिर भी बहुत कुछ हो गया ।' पूछा , ' मतलब ?' ऋषभ ने जवाब दिया ' जीवन - बोध ' देवेंद्र कुछ समझ ना पाए। ऋषभ ने कहा , 'नीलांजना की मृत्यु ने वैराग्य की किरण जगा दी। मैं सोच भी

सत्य ही शाश्वत है बाकी सब झूठ है Satya hi shashwat hai Baki sab jhoot hai

यूनान के सम्राट को अपने धन-वैभव का बहुत घमंड था। उसे अपनी तारीफ सुनना अच्छा लगता था। एक बार सम्राट ने यूनान के विद्वान 'सोलन' को अपने राजमहल में बुलाया। सम्राट को उम्मीद थी कि सोलन सम्राट के वैभव को देख कर प्रशंसा में कुछ कहेगा, किंतु सोलन था सुकरात जैसा विद्वान विचारक। सम्राट ने सोलन को अपना खजाना भी दिखाया। किंतु खजाने में लूट-पाट कर भरे गये हीरे-जवाहरात भी सोलन की प्रशंसा न पा सके। सोलन चुप ही रहा। वह उदास-सा लग रहा था। थक-हार कर सम्राट बोला ," सोलन , इस संसार में तुम्हारे जैसा विद्वान नहीं और मेरे जैसा अकूत धन-संपदा का मालिक सुखी इंसान नहीं। प्रशंसा में कुछ तो कहो। यूनान में तुम्हारे शब्दों का मूल्य है। " सोलन ने कहा ," राजन , मैं चुप ही रहूँ तो बेहतर रहेगा। " सम्राट के पुनः आग्रह करने पर सोलन बोला ," राजन , तुम निपट मूढ़ व्यक्ति हो। तुम्हारा यह सुख क्षणभंगुर है। यह शाश्वत नहीं है। सब मिथ्या है। तुम्हारा यह वैभव तुम्हारे दु:ख का कारण है। " सम्राट का घोर अपमान हुआ। सोलन को मौत की सज़ा देने के लिए राजधानी के चौराहे पर लाया गया। उसे एक और मौक़ा

स्वस्थ रहने के लिए यही मूल मंत्र हैं। Swasth rahane ke liye yahi mul mantra hai.

महाराज शीलभद्र वन - उपवनों में होते हुए तीर्थयात्रा के लिए जा रहे थे। रात्रि को उन्होंने एक आश्रम के निकट अपना पड़ाव डाला। आश्रम में आचार्य दम्पत्ति अपने कुछ शिष्यों के साथ निवास करते थे। शिष्यों का शिक्षण , ईश्वर आराधना , जीवन निर्वाह के लिए शरीर श्रम , इन्हीं में आश्रमवासियों का दिनभर का समय बीतता। उस समय पर राजा शीलभद्र बीमार हो गए। चिकित्सकों के लिए दौड़ - भाग शुरू हुई। कुशल वैद्य चिकित्सकों ने उन्हें स्वस्थ कर दिया। राजा ने आश्रमवासियों के एकांत जीवन पर विचार किया तो उन्होंने एक वैद्य स्थायी रूप से आश्रमवासियों की चिकित्सा के लिए रख दिया। वैद्य को वहाँ रहते काफी समय बीत गया , किंतु कोई भी शिष्य या आचार्य अपनी चिकित्सा के लिए उनके पास नहीं आया। वैद्यराज अपने निष्क्रिय जीवन से क्षुब्ध हो गए। एक दिन उकता कर वह आचार्य के पास गए और बोले - गुरुदेव मुझे इतना समय हो गया यहाँ रहते किंतु कोई भी विद्यार्थी मरे पास चिकित्सा के लिए नहीं आया , इसका क्या कारण है ? ’’ ‘‘ वैद्यराज ! भविष्य में भी शायद ही कोई आपके पास चिकित्सा के लिए आएगा। प्रत्येक आश्रमवासी के सुबह से सायं तक श्रम

लोभ से विनाश ही होता है lobh se vinash hi hota hai

 बहुत समय पहले की बात है , किसी गांव में एक किसान रहता था , गांव में ही खेती का काम करके अपना और अपने परिवार का पेट पलता थ ा। किसान अपने खेतों में बहुत मेहनत से काम करता था , परन्तु इसमें उसे कभी लाभ नहीं होता था। एक दिन दोपहर में धूप से पीड़ित होकर वह अपने खेत के पास एक पेड़ की छाया में आराम कर रहा था , सहसा उस ने देखा कि एक एक सर्प उसके पास ही बाल्मिक (बांबी) से निकल कर फेन फैलाए बैठा है। किसान आस्तिक और धर्मात्मा प्रकृति का सज्जन व्यक्ति था , उसने विचार किया कि ये नागदेव अवश्य ही मेरे खेत के देवता हैं। मैंने कभी इनकी पूजा नहीं की , लगता है इसी लिए मुझे खेती से लाभ नहीं मिला , यह सोचकर वह बाल्मिक के पास जाकर बोला - हे क्षेत्ररक्षक नागदेव ! मुझे अब तक मालूम नहीं था कि आप यहाँ रहते हैं , इसलिए मैंने कभी आपकी पूजा नहीं की अब आप मेरी रक्षा करें , ऐसा कहकर एक कसोरे में दूध लाकर नागदेवता के लिए रखकर वह घर चला गया। प्रात:काल खेत में आने पर उसने देखा कि कसोरे में एक स्वर्ण मुद्रा रखी हुई है।  अब किसान प्रतिदिन नागदेवता को दूध पिलाता और बदले में उसे एक स्वर्ण मुद्रा प्राप्त होती। यह क्रम ब

कामना और लालच का बंधन kamna aur lalach Ka Bandhan

  बहुत समय पहले की बात है। किसी शहर में एक ब्यापारी रहता था। उस ब्यापारी ने कहीं से सुन लिया कि राजा परीक्षित को भगवद्कथा सुनने से ही ज्ञान प्राप्त हो गया था। ब्यापारी ने सोचा कि सिर्फ कथा सुन ने से ही मनुष्य ज्ञानवान हो जाता है तो में भी कथा सुनूंगा और ज्ञानवान बन जाऊंगा। कथा सुनाने के लिए एक पंडित जी बुलाए गए। पंडित जी से आग्रह किया कि वे ब्यापारी को कथा सुनाएं। पंडित जी ने भी सोचा कि मोटी आसामी फंस रही है। इसे कथा सुनाकर एक बड़ी रकम दक्षिणा के रूप में मिल सकती है। पंडित जी कथा सुनाने को तयार हो गए। अगले दिन से पंडित जी ने कथा सुनानी आरम्भ की और ब्यापारी कथा सुनता रहा। यह क्रम एक महीने तक चलता रहा। फिर एक दिन ब्यापारी ने पंडित जी से कहा पंडित जी आप की ये कथाएँ सुन कर मुझ में कोई बदलाव नहीं आया, और ना ही मुझे राजा परीक्षित की तरह ज्ञान प्राप्त हुआ। पंडित जी ने झल्लाते हुए ब्यापारी से कहा आप ने अभी तक दक्षिणा तो दी ही नहीं है , जिस से आप को ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई। इस पर ब्यापारी ने कहा जबतक ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती तब तक वह दक्षिणा नहीं देगा। इस बात पर दोनों में बहस होने लग

क्रोध से फूल भी जलते हैं krodh se phool bhi jalte Hain

क्रोध से फूल भी जलते हैं बहुत समय पहले की बात है। आदि शंकराचार्य और मंडन मिश्र के बीच सोलह दिन तक लगातार शास्त्रार्थ चला। शास्त्रार्थ में निर्णायक थी मंडन मिश्र की धर्मपत्नी देवी भारती। हार - जीत का निर्णय होना बाकी था , इसी बीच देवी भारती को किसी आवश्यक कार्य से कुछ समय के लिए बाहर जाना पड़ गया। जाने से पहले देवी भारती ने दोनों ही विद्वानों के गले में एक - एक फूल माला डालते हुए कहा , ये दोनों मालाएं मेरी अनुपस्थिति में आपके हार और जीत का फैसला करेंगी। कुछ देर बाद देवी भारती लौटी और अपना निर्णय सुना दिया। उनके फैसले के अनुसार आदि शंकराचार्य विजयी घोषित किये गए। सभी दर्शक हैरान हो गए कि बिना किसी आधार के इस विदुषी ने अपने पति को ही पराजित करार दे दिया। एक विद्वान ने देवी भारती से नम्रतापूर्वक जिज्ञासा की , ' हे ! देवी आप तो शास्त्रार्थ के मध्य ही चली गई थी फिर वापस लौटते ही आपने ऐसा फैसला कैसे दे दिया ? ' भारती ने मुस्कुराकर जवाब दिया , ' जब भी कोई विद्वान शास्त्रार्थ में पराजित होने लगता है तो वह क्रुद्ध हो उठता है और मेरे पति के गले की माला उनके क्रोध के ताप से सूख चुकी