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Showing posts from August, 2020

पाप की मुक्ति तो प्रायश्चित से ही होती है। Paap ki Mukti to praschit se hi hoti hai.

   राजा शर्याति अपने परिवार समेत एक बार वन विहार के लिए गए। एक सुरम्य सरोवर के निकट पड़ाव पड़ा। बच्चे इधर - उधर खेल , विनोद करते हुए घूमने लगे। मिट्टी के ढेर के नीचे से दो तेजस्वी मणियाँ जैसी चमकती देखीं तो राजकन्या को कुतूहल हुआ। उसने लकड़ी के सहारे उन चमकती वस्तुओं को निकालने का प्रयत्न किया। किंतु तब उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब उन चमकती वस्तुओं में से रक्त की धारा बह निकली। सुकन्या को दुःख भी हुआ और आश्चर्य भी।       वह कारण जानने के लिए अपने पिता के पास पहुँची। शर्याति ने सुना तो वे स्तब्ध रह गए। टीले के नीचे च्यवन ऋषि तपस्या कर रहे थे। संभवतः लड़की ने उन्हीं की आँखें फोड़ दी हैं। परिवार समेत राजा वहाँ पहुँचे। देखा वृद्ध च्यवन नेत्रहीन होकर कराह रहे हैं। समाधि उनकी टूट चुकी थी। पाप की मुक्ति तो प्रायश्चित से ही होती है। इस लक्ष्य को राज्य परिवार ने भली प्रकार समझ रखा था। कायरता क्षमा माँगती है और वीरता क्षतिपूर्ति करने को प्रस्तुत रहती है। सुकन्या ने अपने अपराध की गुरुता को समझा और उसके अनुसार प्रायश्चित करने का भी साहसपूर्ण निर्णय कर डाला। राजकन्या ने घोषित किया - वह आजीवन अंध

हम अपने बुरे कर्मों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं ham Apne bure karmo ko chhodane ke liye taiyar nahin

एक चोर अक्सर एक साधु के पास आता और उससे ईश्वर से साक्षात्कार का उपाय पूछा करता था। लेकिन साधु टाल देता था। लेकिन चोर पर इसका असर नहीं पड़ता था। वह रोज पहुँच जाता था। एक दिन साधु ने कहा , ' तुम्हें सिर पर कुछ पत्थर रखकर पहाड़ पर चढ़ना होगा। वहाँ पहुंचने पर ही ईश्वर के दर्शन की व्यवस्था की जाएगी। ' चोर के सिर पर पांच पत्थर लाद दिए गए और साधु ने उसे अपने पीछे - पीछे चले आने को कहा। इतना भार लेकर वह कुछ ही दूर चला तो पत्थरों के बोझ से उसकी गर्दन दुखने लगी। उसने अपना कष्ट कहा तो साधु ने एक पत्थर फिंकवा दिया। थोड़ी देर चलने पर शेष भार भी कठिन प्रतीत हुआ तो चोर की प्रार्थना पर साधु ने दूसरा पत्थर भी फिंकवा दिया। यही क्रम आगे भी चला। अंत में सब पत्थर फेंक दिए गए और चोर सुगमतापूर्वक पर्वत पर चढ़ता हुआ ऊँचे शिखर पर जा पहुंचा। साधु ने कहा , ' जब तक तुम्हारे सिर पर पत्थरों का बोझ रहा , तब तक पर्वत के ऊँचे शिखर पर तुम्हारा चढ़ सकना संभव नहीं हो सका। पर जैसे ही तुमने पत्थर फेंके , वैसे ही चढ़ाई सरल हो गई। इसी तरह पापों का बोझ सिर पर लादकर कोई मनुष्य ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकता। ' च

कर्ण जैसा दानवीर नहीं। Karan jaisa danvir nahin.

दानवीरों की चर्चा में एक बार कृष्ण पांडवों से बोले - ' मैंने कर्ण जैसा दानवीर नहीं देखा और न ही सुना । ' पांडवों को यह बात पसंद नहीं आयी। भीम ने पूछ ही लिया - ' कैसे ? ' कृष्ण ने कहा - ' समय आने पर बतलाऊंगा। ' बात आई - गई हो गई। कुछ दिनों बाद वर्षा की झड़ी लग गई। उस समय एक याचक युधिष्ठिर के पास आया और बोला - ' महाराज ! मैं आपके राज्य में रहने वाला ब्राह्मण हूँ। बिना हवन किये कुछ भी नहीं खाता पीता। मेरे पास यज्ञ के लिए चन्दन की लकड़ी नहीं है। आपके पास हो तो मुझ पर कृपा करें। अन्यथा मैं भूखा - प्यासा मर जाऊंगा । ' युधिष्ठिर ने तुरंत कर्मचारी को बुलवाया और लकड़ी देने को कहा। कोषागार में सूखी लकड़ी नहीं थी। तब महाराज ने भीम व अर्जुन को चन्दन की लकड़ी का प्रबंध करने का आदेश दिया। मगर सूखी लकड़ी नहीं मिली। ब्राह्मण को हताश देख कृष्ण ने कहा - ' मेरे साथ आइए । ' भगवान ने अर्जुन व भीम को भी इशारा किया तो वेश बदलकर वे भी ब्राह्मण के संग हो लिए। कृष्ण सबको लेकर कर्ण के महल में गए। ब्राह्मण ने जाकर लकड़ी की अपनी वही मांग दोहराई। कर्ण ने भी अपने भण्डार के मुखि

संसार गहन भ्रम - जाल में जकड़ा हुआ है। Sansar ghan Braham jal mein jhagada hua hai.

काशी में गंगा के तट पर एक संत का आश्रम था। एक दिन उनके एक शिष्य ने पूछा , गुरुवर ! शिक्षा का निचोड़ क्या है ? ’ संत ने मुस्कुराकर कहा , ‘ एक दिन तुम खुद ही जान जाओगे। ’ बात आई - गई हो गई। कुछ समय बाद एक रात संत ने उस शिष्य से कहा , ‘ वत्स , इस पुस्तक को मेरे कमरे में तख़्त पर रख दो। ’ शिष्य पुस्तक लेकर कमरे में गया , लेकिन तत्काल लौट आया। वह डर से कांप रहा था। संत पूछा , ‘ क्या हुआ , इतना डरे हुए क्यों हो? ’ शिष्य ने कहा , ‘ गुरुवर , कमरे में सांप है। ’ संत ने कहा , ‘ यह तुम्हारा भ्रम होगा। कमरे में सांप कहां से आयेगा। तुम फिर जाओ और किसी मन्त्र का जाप करना। सांप होगा तो भाग जाएगा। ’ शिष्य दोबारा कमरे में गया। उसने मंत्र का जाप भी किया , लेकिन सांप उसी स्थान पर था। वह डरकर फिर बाहर आ गया और संत से बोला , ‘ सांप वहां से जा नहीं रहा है। ’ संत ने कहा , ‘ इस बार दीपक लेकर जाओ। सांप होगा तो दीपक के प्रकाश से भाग जाएगा। ’ शिष्य इस बार दीपक लेकर गया तो देखा कि वहां सांप नहीं है। सांप की जगह एक रस्सी लटकी हुई थी। अन्धकार के कारण उसे रस्सी का वह टुकडा सांप नजर आ रहा था। बाहर आकर शिष्य ने

समय को सोच समझकर खर्च करें samay ko Soch samajh Kar kharch Karen

भगवान बुद्ध समय की महत्ता को बहुत अच्छी तरह से जानते थे। वे अपना एक भी क्षण कभी व्यर्थ नहीं गंवाते थे। एक बार उनके पास एक व्यक्ति आया और बोला , ‘ महाराज , आप हर बार विमुक्ति की बात करते हैं। आखिर यह दुःख होता किसे है और दुःख को कैसे दूर किया जा सकता है ? ’ प्रश्नकर्ता का प्रश्न निरर्थक था। बुद्ध बेतुकी चर्चा में उलझना नहीं चाहते थे। उन्होंने कहा , ‘ अरे भाई ! तुम्हें प्रश्न करना ही नहीं आया। प्रश्न यह नहीं था कि दुःख किसे होता है बल्कि यह कि दुःख क्यों होता है ? ........और इसका उत्तर है कि आप निरर्थक चर्चाओं में समय न गंवाएं। ऐसा करने पर आपको दुःख नहीं आयेगा। यह बात ठीक उसी तरह है कि किसी विष बुझे तीर से किसी को घायल कर देना और फिर बाद में उससे पूछना कि यह तीर किसने बनाया है। भाई उस तीर के लगने पर उसका उपचार जरूरी है न कि निरर्थक बातों में समय गंवाना। बुद्ध के जवाब ने उन जैसे कई लोगों की आंखे खोल दी। इस बात को संक्षेप में कहें तो कई लोग कई तरह की बेतुकी बातों में समय को पानी की तरह बहा देते हैं। बहते पानी को तो फिर भी संरक्षित किया जा सकता है , लेकिन एक बार जो समय चला गया उसे वा

समय का सम्मान

प्रश्नकर्ता का प्रश्न निरर्थक था। बुद्ध बेतुकी चर्चा में उलझना नहीं चाहते थे। उन्होंने कहा , ‘अरे भाई ! तुम्हें प्रश्न करना ही नहीं आया। प्रश्न यह नहीं था कि दुःख किसे होता है बल्कि यह कि दुःख क्यो होता है ? भाई उस तीर के लगने पर उसका उपचार जरूरी है न कि निरर्थक बातों में समय गंवाना। बुद्ध के जवाब ने उन जैसे कई लोगों की आंखे खोल दी। इस बात को संक्षेप में कहें तो कई लोग कई तरह की बेतुकी बातों में समय को पानी की तरह बहा देते हैं। बहते पानी को तो फिर भी संरक्षित किया जा सकता है , लेकिन एक बार जो समय चला गया उसे वापिस कभी नहीं लाया जा सकता। इसलिए समय को सोच समझकर खर्च करें। यह प्रकृति की दी हुई आपके पास अनमोल धरोहर है। कहते हैं कि अगर समय का आप ध्यान नहीं रखते तो समय भी आपकी कद्र नहीं करता।

क्रोध करने से मति भ्रष्ट हो जाती है krodh karne se mati bhrasht ho jaati hai

हिमालय के घने वनों में कभी सफेद हाथियों की दो विशिष्ट प्रजातियाँ हुआ करती थीं - छद्दन्त और उपोसथ। छद्दन्त हाथियों का रंग सफेद हुआ करता था और उनके छ: दाँत होते थे। ( ऐसा पालि साहित्य मे उल्लिखित है। ) छद्दन्त हाथियों का राजा एक कंचन गुफा में निवास करता था। उसके मस्तक और पैर माणिक के समान लाल और चमकीले थे। उसकी दो रानियाँ थी - महासुभद्दा और चुल्लसुभद्दा। एक दिन गजराज और उसकी रानियाँ अपने दास - दासियों के साथ एक सरोवर में जल - क्रीड़ा कर रहे थे। सरोवर के तट पर फूलों से लदा एक साल - वृक्ष भी था। गजराज ने खेल - खेल में ही साल वृक्ष की एक शाखा को अपनी सूंड से हिला डाला। संयोगवश वृक्ष के फूल और पराग महासुभद्दा को आच्छादित कर गये। किन्तु वृक्ष की सूखी टहनियाँ और फूल चुल्लसुभद्दा के ऊपर गिरे। चुल्लसुभद्दा ने इस घटना को संयोग न मान , स्वयं को अपमानित माना। नाराज चुल्लसुभद्दा ने उसी समय अपने पति और उनके निवास का त्याग कर कहीं चली गई। तत: छद्दन्तराज के अथक प्रयास के बावजूद वह कहीं ढूंढे नहीं मिली। कालान्तर में चुल्लसुभद्दा मर कर मद्द राज्य की राजकुमारी बनी और विवाहोपरान्त वाराणसी की पटरानी। क

बिना दर्द सहे कोई हमदर्द नहीं बनता Bina dard Sahe koi humdard Nahin banta

एक थका माँदा शिल्पकार लंबी यात्रा के बाद किसी छायादार वृक्ष के नीचे विश्राम के लिये बैठ गया। अचानक उसे सामने एक पत्थर का टुकड़ा पड़ा दिखाई दिया। उसने उस सुंदर पत्थर के टुकड़े को उठा लिया , सामने रखा और औजारों के थैले से छेनी - हथौड़ी निकालकर उसे तराशने के लिए जैसे ही पहली चोट की , पत्थर जोर से चिल्ला पड़ा , " उफ मुझे मत मारो। " दूसरी बार वह रोने लगा , " मत मारो मुझे , मत मारो... मत मारो। शिल्पकार ने उस पत्थर को छोड़ दिया , अपनी पसंद का एक अन्य टुकड़ा उठाया और उसे हथौड़ी से तराशने लगा। वह टुकड़ा चुपचाप वार सहता गया और देखते ही देखते उसमें से एक देवी की मूर्ति उभर आई। मूर्ति वहीं पेड़ के नीचे रख वह अपनी राह पकड़ आगे चला गया। कुछ वर्षों बाद उस शिल्पकार को फिर से उसी पुराने रास्ते से गुजरना पड़ा , जहाँ पिछली बार विश्राम किया था। उस स्थान पर पहुँचा तो देखा कि वहाँ उस मूर्ति की पूजा अर्चना हो रही है , जो उसने बनाई थी। भीड़ है , भजन आरती हो रही है , भक्तों की पंक्तियाँ लगीं हैं , जब उसके दर्शन का समय आया , तो पास आकर देखा कि उसकी बनाई मूर्ति का कितना सत्कार हो रहा है ! जो पत्थर

जो परोपकारी है वही प्रजा के मन का राजा है jo paropkari hai vahi praja ke Man Ka raja hai

कोसलपुर के राजा बड़े परोपकारी थे। एक बार पास के राज्य काशी के राजा ने कोसल पर आक्रमण कर उस पर अधिकार कर लिया। हार के बावजूद कोसल के राजा ने आत्म - समर्पण नहीं किया तथा किसी तरह से बचकर राज्य से दूर चले गए। कोसलपुर की प्रजा अपने राजा के चले जाने से परेशान रहने लगी। काशीराज ने देखा कि प्रजा हृदय से अपने राजा को ही याद करती है। काशीराज ने घोषणा की कि जो कोसल के निर्वासित राजा को पकडवाएगा , उसे एक हजार स्वर्णमुद्राएँ तथा कई गाँव इनाम में दिए जाएंगे। पर राज्य का कोई नागरिक इस पाप के लिए तैयार नहीं हो रहा था। एक दिन कोसलराज जंगल में भटक रहे थे कि एक व्यक्ति उनके पास आया और कोसलपुर जाने का मार्ग पूछा। राजा ने पूछा - ' तुम वहां क्यों जाना चाहते हो ? ' उसने जवाब दिया - ' मैं व्यापारी हूँ। नौका से सामान ला रहा था , लेकिन नौका नदी में डूब गई। मैं भिखारी जैसा हो गया हूँ। सुना है कि कोसलपुर के राजा बड़े धर्मात्मा हैं। मैं उन्हीं की शरण में जा रहा हूँ। ' राजा ने कहा - ' चलो , मैं तुम्हें वहां तक ले चलता हूँ। ' राजा उसे लेकर काशीराज के दरबार में पहुंचे। काशीराज ने उस जटाधारी

परमपिता परमेश्वर ही सर्वशक्तिमान है parampita parmeshwar hi sarvashaktiman hai

एक बार दैत्यों पर विजय प्राप्त कर लेने से , देवताओं को अहंकार हो गया। उस सर्वशक्तिमान् ने सोचा कि उनका यह बढा हुआ अहंकार दूर करना चाहिये। उसने एक बृहद् रूप धारण किया और देवताओं के सम्मुख अचानक प्रकट हो गया। उस विचित्र अलौकिक आकृति को देखकर देवता चकित रह गये। वायु देवता को उस आकृति का परिचय प्राप्त करने के लिए भेजा गया। उस आकृति ने अपने आपको यक्ष बताया और वायु के सामने एक घास का तिनका रखकर , उसे हटाने की चुनौती दी। संसार को हिला देनेवाली शक्ति के साथ वायु ने प्रयास किया। परंतु एक बाल बराबर भी उसको नहीं खिसका सका। वायु क्षुब्ध होकर वापस आया। फिर अग्निदेवता को भेजा गया। वह भी उस तिनके को भस्म नहीं कर सका। अंत में स्वयं देवराज इन्द्र उसे देखने गये। कितु वह आकृति अचानक लुप्त हो गई। उस रहस्य को सुलझा न सकने से , इंद्र को भी लज्जित होकर लौटना पड़ा। तब उनके मस्तिष्क में आया कि यक्ष के रूप में , साक्षात् सर्वशक्तिमान ही थे , जिसकी दया से उसकी शक्ति की एक - एक चिनगारी उन्हें प्राप्त हुई है।

प्राण भगवान् की अमानत थे सो उन्होंने वापस ले लिए pran bhagwan ki amanat the so unhone wapas le liye

धर्मगुरु रबी मेहर और दिनों की भाँति आज भी अपनी पाठशाला में बच्चों को पाठ सिखाते रहे। उस दिन उन्होंने भगवान् की न्यायकारिता का उपदेश किया। अपनी धर्मपत्नी को भी वह प्रातःकाल यही समझा कर आए थे कि यह संसार और यहाँ का सब कुछ भगवान् का है उसे समर्पित किए बिना किसी वस्तु का उपभोग नहीं करना चाहिए। उन दिनों नगर में महामारी फैली थी। दुर्भाग्य ने उस दिन उन्हीं के घर घेरा डाला और मेहर के दोनों फूल से सुंदर बच्चों को मृत्यु की गोद में सुला दिया। मेहर की धर्मशाला पत्नी ने दोनों बच्चों के शव शयनागार में लिटा दिए और उन्हें सफेद चादर से ढक दिया। आप घर की सफाई और भोजन की व्यवस्था में व्यस्त हो गई। साँझ हुई और रबी मेहर घर लौटे। मेहर ने आते ही पूछा - दोनों बच्चे कहाँ हैं ? ’’ संतोष स्मित मुद्रा में पत्नी ने कहा - यहाँ कहीं खेल रहे होंगे , जल लीजिए , हाथ - मुँह धोकर भोजन कर लीजिए। भोजन तैयार है। ’’ मेहर ने निश्चिंत होकर भगवान् का ध्यान किया और फिर पाकशाला में आए। उन्हें घर में आज कुछ उदासी दिख रही थी। बच्चे नहीं थे। पूछा - बच्चे अभी भी खेलकर नहीं लौटे क्या?’’ पत्नी ने कहा - अभी बुलाए देती हूँ ल

उत्कृष्ट भावना से ही भगवान की भक्ति की जानी चाहिए utkrusht Bhavna se hi bhagwan ki bhakti ki jaani chahie

आखेट की खोज में भटकता विश्वबंधु शवर नील पर्वत की एक गुफा में जा पहुँचा। वहाँ भगवान नील - माधव की मूर्ति के दर्शन पाते ही शवर के हृदय में भक्ति भावना स्रोत उमड़ पड़ा। वह हिंसा छोड़ कर भगवान नील की रात - दिन पूजा करने लगा। उन्हीं दिनों मालवराज इंद्रप्रद्युम्न किसी अपरिचित तीर्थ में मंदिर बनवाना चाहते थे। उन्होंने स्थान की खोज के लिए अपने मंत्री विद्यापति को भेजा। विद्यापति ने वापस जाकर राजा को नील पर्वत पर शवर विश्वबंधु द्वारा पूजित भगवान नील - माधव की मूर्ति की सूचना दी। राजा तुरंत मंदिर बनवाने के लिए चल दिया। विद्यापति राजा इंद्रप्रद्युम्न को उक्त गुफा के पास लाया , किंतु आश्चर्य मूर्ति वहाँ नहीं थी। राजा ने क्रोधित होकर कहा - विद्यापति तुमने व्यर्थ ही कष्ट दिया है। यहाँ तो मूर्ति नहीं है। ’’ विद्यापति ने कहा - महाराज मैंने अपनी आँखों से इसी गुफा में भगवान नील - माधव की मूर्ति देखी है। अवश्य ही कोई ऐसी बात हुई है जिससे भगवान की मूर्ति अंतर्ध्यान हो गई है। राजन् ! आते समय आप क्या भावना करते आए हैं ? ’’ राजा इन्द्रप्रद्युम्न ने बताया की मैं केवल इतना ही सोचता आया
एक निश्चय-एक अमल एक लड़के ने एक बहुत धनी आदमी को देखकर धनवान बनने का निश्चय किया। कई दिन वह कमाई में लगा रहा और कुछ पैसे भी कमा लिया। इस बीच उसकी भेंट एक विद्वान से हुई। अब उसने विद्वान बनने का निश्चय किया और दूसरे ही दिन से कमाई-धमाई छोड़कर पढ़ने में लग गया। अभी अक्षर अभ्यास ही सीख पाया था कि उसकी भेंट एक संगीतज्ञ से हुई। उसे संगीत में अधिक आकर्षण दिखाई दिया, अतः उस दिन से पढ़ाई बंद कर दी और संगीत सीखने लगा। काफी उम्र बीत गई, न वह धनी हो सका न विद्वान। न संगीत सीख पाया न नेता बन सका। तब उसे बड़ा दुःख हुआ। एक दिन उसकी एक महात्मा से भेंट हुई। उसने अपने दुःख का कारण बताया। महात्मा मुसकरा कर बोले-बेटा दुनियाँ बड़ी चिकनी है। जहाँ जाओगे कोई न कोई आकर्षण दिखाई देगा। एक निश्चय कर लो और फिर जीते-जी उसी पर अमल करते रहो तो तुम्हारी उन्नति अवश्य हो जाएगी। बार-बार रुचि बदलते रहने से कोई भी उन्नति न कर पाओगे।’’ युवक समझ गया और अपना एक उद्देश्य निश्चित कर उसी का अभ्यास करने लगा। --Archana App

लालच और वैराग्य lalach aur vairagya

भतृहरि जंगल में बैठे साधना में लीन थे। अचानक उनका ध्यान भंग हुआ। आंख खुली तो देखा जमीन पर पड़ा एक हीरा सूर्य की रोशनी को भी फीकी कर रहा है। एक समय था जब भतृहरि राजा थे। अनेक हीरे - मोती उनकी हथेलियों से होकर गुजरे थे। लेकिन ऎसा चमकदार हीरा , तो उन्होंने कभी नहीं देखा था। एक पल के लिए उनके मन में इच्छा जागी इस हीरे को क्यों न उठा लूं। लेकिन चेतना ने , भीतर की आत्मा ने वैसा करने से इनकार कर दिया। लालच की उठी तरंगें भतृहरि के मन को आंदोलित नहीं कर सकीं। तभी उन्होंने देखा दो घुड़सवार घोड़ा दौड़ाते हुए चले आ रहे हैं। दोनों के हाथ में नंगी तलवार थी। दोनों ने हिरा देखा और उस पर अपना हक बताने लगे। जुबानी कोई फैसला न हो पाया , तो दोनों आपस में भिड़ गए। तलवारें चमकीं और एक क्षण बाद भतृहरि ने देखा जमीन पर लहूलुहान पड़ी दो लाशें। हीरा अपनी जगह पड़ा , अब भी अपनी चमक बिखेर रहा था। लेकिन इतने समय में ही बहुत कुछ हो गया। एक के मन में लालच उठा , किंतु वह वैराग्य को पुष्ट कर गया और दो व्यक्ति कुछ क्षण पहले जीवित थे , एक निर्जीव पत्थर के लिए उन्होंने प्राण न्यौछावर कर दिए। धरती पर पड़ा हीरा नह

एक हाथ से ताली नहीं बज सकती। Ek hath se Tali Nahin baj sakti.

एक बार महात्मा बुद्ध किसी गांव में गए। वहां एक स्त्री ने उनसे पूछा कि आप तो किसी राजकुमार की तरह दिखते हैं , आपने युवावस्था में गेरुआ वस्त्र क्यों धारण किया है ? बुद्ध ने उत्तर दिया कि मैंने तीन प्रश्नों के हल ढूंढने के लिए संन्यास लिया है। बुद्ध ने कहा - हमारा शरीर युवा और आकर्षक है , लेकिन यह वृद्ध होगा , फिर बीमार होगा और अंत में यह मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा। मुझे वृद्धावस्था , बीमारी और मृत्यु के कारण का ज्ञान प्राप्त करना है। बुद्ध की बात सुनकर स्त्री बहुत प्रभावित हो गई और उसने उन्हें भोजन के लिए आमंत्रित किया। जैसे ही ये बात गांव के लोगों को मालूम हुई तो सभी ने बुद्ध से कहा कि वे उस स्त्री के यहां न जाए , क्योंकि वह स्त्री चरित्रहीन है। बुद्ध ने गांव के सरपंच से पूछा कि क्या ये बात सही है ? सरपंच ने भी गांव के लोगों की बात में सहमती जताई। तब बुद्ध ने सरपंच का एक हाथ पकड़ कर कहा कि अब ताली बजाकर दिखाओ। इस पर सरपंच ने कहा कि यह असंभव है , एक हाथ से ताली नहीं बज सकती। बुद्ध ने कहा कि ठीक इसी प्रकार कोई स्त्री अकेले ही चरित्रहीन नहीं हो सकती है। यदि इस गांव के पुरुष चरित्रही

प्रकृति का स्वभाव prakriti Ka swabhav

एक राजा भोजन करते हुए अपने मंत्री से कहता , ' आज सब्जी बड़ी स्वादिष्ट बनी है। ' कभी कहता , ' आज सब कुछ बड़ा ही सरस बना है। ' राजा सदैव हर वस्तु की तारीफ ही करता। इस पर विद्वान मंत्री कहता , ' इसमें प्रशंसा की क्या बात है। अच्छा और बुरा होना तो वस्तु का स्वभाव है। कभी एक वस्तु अच्छी लगती है , तो कभी वही बुरी लगने लगती है। आज किसी में गुण दिखाई देता है , तो कभी उसी में दोष दिखाई देने लगता है। ' पर इस बात से राजा सहमत नहीं होता था। एक दिन राजा और मंत्री कहीं जा रहे थे। वे एक गंदे रास्ते से निकले। राजा ने नाक बंद करके कहा , ' देखो , इसमें से कितनी दुर्गंध आ रही है। कितना गंदा है यह पानी। ' राजा ने इस बात को कई बार दोहराया तो मंत्री बोला , ' राजन , इसमें खिन्न होने की क्या बात है। यह तो पदार्थ का स्वभाव है। ' मंत्री ने खाई का थोड़ा पानी एक बर्तन में ले लिया और घर लाकर उसे खूब उबाला , फिर उसमें सुगन्धित पदार्थ डाले। मंत्री एक दिन वही पानी लेकर राजा के पास गया। भोजन के समय उसने वही पानी राजा को पीने के लिए दिया। राजा पानी पीकर बोला , ' अरे , यह पानी

कर्म का महत्त्व ही जीवन का सार है। Karam ka mahatva hi jivan ka sar hai.

एक बेरोजगार आदमी की पत्नी ने उसे घर से निकालते हुए कहा आज कुछ न कुछ कमाकर ही लौटना नहीं तो घर में नहीं घुसने दूंगी। आदमी दिन भर इधर - उधर भटकता रहा , लेकिन उसे कुछ काम नहीं मिला। निराश मन से वह जा रहा था कि उसकी नजर एक मरे हुए सांप पर पड़ी। उसने एक लाठी पर सांप को लटकाया और घर की ओर जाते हुए सोचने लगा , इसे देखकर पत्नी डर जायेगी और आगे से काम पर जाने के लिए नहीं कहेगी। घर जाकर उसने सांप को पत्नी को दिखाते हुए कहा , ' यह कमाकर लाया हूं। ' पत्नी ने लाठी को पकड़ा और सांप को घर की छत पर फेंक दिया। वह सोचने लगी कि मेरे पति की पहली कमाई जो कि एक मरे हुए सांप के रूप में मिली , ईश्वर जरूर इसका फल हमें देंगे क्योंकि मैंने सुना है कि कर्म का महत्त्व होता है। वह कभी व्यर्थ नहीं जाता। तभी एक बाज उधर से उड़ते हुए निकला जिसने अपनी चोंच में एक कीमती हार दबा रखा था। बाज की नजर छत पर पड़े हुए सांप पर पड़ी। उसने हार को वहीं छोड़ा और सांप को लेकर उड़ गया। पत्नी ने हार को पति को दिखाते हुए सारी बात बताई। पति अब कर्म के महत्व को समझ चुका था। उसने हार को बेचकर अपना व्यवसाय शुरू किया। कल का गरीब इंसान आज

संसार एक मायाजाल है sansar ek Maya jaal hai

एक सूफी फकीर मस्जिद में बैठकर अल्लाह से अपनी लौ में लीन थे।  चारों तरफ प्रकाश फैला था। तभी अचानक झरोखे से एक पक्षी अन्दर आ गया। वह कुछ देर तक तो अन्दर इधर - उधर होता रहा। फिर बाहर निकलने की कोशिश करने लगा। कभी वह इस कोने से निकलने की कोशिश करता तो कभी उस कोने से। उसकी छटपटाहट बढती जा रही थी। कभी वह दीवार से टकराता तो कभी छत से। किन्तु उस तरफ नहीं जाता , जिस झरोखे से वह अन्दर आया था। फकीर बहुत ध्यान से देख रहा था। उसे चिंता हो रही थी कि उसे कैसे समझाए कि जैसे अन्दर आने का रास्ता निश्चित है , उसी प्रकार बाहर जाने का रास्ता भी निश्चित है। द्वार तो वही होता है , किन्तु सिर्फ दिशा बदल जाती है। फकीर ने उसे बाहर निकालने की कोशिश की , किन्तु वो उतना ही घबरा जाता और बैचेन होने लगा। उसे लगता कि वह उसे मारने आया है। फकीर का ध्यान पक्षी से हटा और वह कुछ सोचने लगा। फकीर ने सोचा कि इस संसार में आकर हम क्या इसी परिंदे की तरह नहीं उलझ जाते ? जब हम जीवन में प्रवेश कर जाते हैं तब हमारे पास उससे निकलने का रास्ता तो होता है , पर अज्ञान के कारण हम उस रास्ते को देख नहीं पाते। जीवन के प्रपंच हमें भांति

आजादी ही आत्म संतुष्टि हैं azadi hi atma santushti hai

एक कौआ था जो अपनी जिंदगी से बहुत खुश और संतुष्ट था। एक बार वह एक तालाब पर पानी पीने रुका। वहां पर उसने सफ़ेद रंग के पक्षी हंस को देखा। उसने सोचा मैं बहुत काला हूँ और हंस इतना सुन्दर इसलिए शायद हंस इस दुनिया का सबसे खुश पक्षी होगा। कौआ हंस के पास गया और बोला तुम दुनिया के सबसे खुश प्राणी हो।   हंस बोला – मैं भी यही सोचा करता था कि मैं दुनिया का सबसे खुश पक्षी हूँ । जब तक कि मैंने तोते को न देखा था। तोते को देखने के बाद मुझे लगता है कि तोता ही दुनिया का सबसे खुश पक्षी है क्योंकि तोते के दो खूबसूरत रंग होते है इसलिए वही दुनिया का सबसे खुश पक्षी होना चाहिए। कौआ तोते के पास गया और बोला – तुम ही इस दुनिया के सबसे खुश पक्षी हो । तोता ने कहा – मैं पहले बहुत खुश था और सोचा करता था कि मैं ही दुनिया का सबसे खूबसूरत पक्षी हूँ  लेकिन जब से मैंने मोर को देखा है , मुझे लगता है कि वो ही दुनिया का सबसे खुश पक्षी है। क्योंकि उसके कई तरह के रंग है और वह मुझसे भी खूबसूरत है। कौआ चिड़ियाघर में मोर के पास गया और देखा कि सैकड़ों लोग मोर को देखने के लिए आए है। कौआ मोर के पास गया और बोला – तुम दुनिया के सबसे

जहां धर्म है वहां पर ही विजय हैं jahan dharm hi vahan per hi Vijay hi

रूपनगर में एक दानी और धर्मात्मा राजा राज्य करता था। एक दिन उनके पास एक साधु आया और बोला , ' महाराज ,आप बारह साल के लिए अपना राज्य दे दीजिए या अपना धर्म दे दीजिए। ' राजा बोला ,' धर्म तो नहीं दे पाऊंगा। आप मेरा राज्य ले सकते है। ' साधु राजगद्दी पर बैठा और राजा जंगल की ओर चल पड़ा।जंगल में राजा को एक युवती मिली। उसने बताया कि वह आनंदपुर राज्य की राजकुमारी है। शत्रुओं ने उसके पिता की हत्या कर राज्य हड़प लिया है।          उस युवती के कहने पर राजा ने एक दूसरे नगर में रहना स्वीकार कर लिया। जब भी राजा को किसी वस्तु की आवश्यकता होती वह युवती मदद करती।   एक दिन उस राजा से उस नगर का राजा मिला। दोनों में दोस्ती हो गई।                                                            एक दिन उस विस्थापित राजा ने नगर के राजा और उसके सैनिकों को भोज पर बुलाया। नगर  का राजा यह देखकर हैरान था कि उस विस्थापित राजा ने इतना सारा  इंतजाम कैसे किया। विस्थापित राजा खुद भी हैरान था। तब उसने उस युवती से पूछा ,' तुमने इतने कम समय में ये सारी व्यवस्थाएं कैसे की? ' उस युवती ने राजा से कहा ,' आ

यंत्र मंत्र तंत्र छोड़ो और स्वतंत्रता स्थापित करो। Yantra Mantra tantra chhodo aur swatantrata sthapit karo.

शिव जी का तंत्र बहुत समय पहले की बात है। एक बड़ा सा तालाब था उसमें सैकड़ों मेंढक रहते थे। तालाब में कोई राजा नहीं था , सच मानो तो सभी राजा थे। दिन पर दिन अनुशासन हीनता बढ़ती जाती थी और स्थिति को नियंत्रण में करने वाला कोई नहीं था। उसे ठीक करने का कोई यंत्र तंत्र मंत्र दिखाई नहीं देता था।  नई पीढ़ी उत्तरदायित्व हीन थी। जो थोड़े बहुत होशियार मेंढक निकलते थे वे पढ़ – लिखकर अपना तालाब सुधारने की बजाय दूसरे तालाबों में चैन से जा बसते थे। हार कर कुछ बूढ़े मेंढकों ने घनी तपस्या से भगवान शिव को प्रसन्न कर लिया और उनसे आग्रह किया कि तालाब के लिये कोई राजा भेज दें। जिससे उनके तालाब में सुख चैन स्थापित हो सके। शिव जी ने प्रसन्न होकर नंदी को उनकी देखभाल के लिये भेज दिया।  नंदी तालाब के किनारे इधर उधर घूमता , पहरेदारी करता लेकिन न वह उनकी भाषा समझता था न उनकी आवश्यकताएँ। अलबत्ता उसके खुर से कुचलकर अक्सर कोई न कोई मेंढक मर जाता। समस्या दूर होने की बजाय और बढ़ गई थी। पहले तो केवल झगड़े झंझट होते थे लेकिन अब तो मौतें भी होने लगीं। फिर से कुछ बूढ़े मेंढकों ने तपस्या से शिव जी को प्रसन्न किया और राजा को

जानकारी जिसका ज्ञान सबको होना चाहिए jankari jiska Gyan sabko hona chahie

1. योग ,भोग और रोग ये तीन अवस्थाएं है। 2.  * लकवा * - सोडियम की कमी के कारण होता है । 3.  * हाई वी पी में * -  स्नान व सोने से पूर्व एक गिलास जल का सेवन करें तथा स्नान करते समय थोड़ा सा नमक पानी मे डालकर स्नान करे । 4.  * लो बी पी * - सेंधा नमक डालकर पानी पीयें । 5.  * कूबड़ निकलना *- फास्फोरस की कमी । 6.  * कफ * - फास्फोरस की कमी से कफ बिगड़ता है , फास्फोरस की पूर्ति हेतु आर्सेनिक की उपस्थिति जरुरी है । गुड व शहद खाएं 7.  * दमा , अस्थमा * - सल्फर की कमी । 8.  * सिजेरियन आपरेशन * - आयरन , कैल्शियम की कमी । 9.  * सभी क्षारीय वस्तुएं दिन डूबने के बाद खायें * । 10.  * अम्लीय वस्तुएं व फल दिन डूबने से पहले खायें * । 11.  * जम्भाई *- शरीर में आक्सीजन की कमी । 12.  * जुकाम * - जो प्रातः काल जूस पीते हैं वो उस में काला नमक व अदरक डालकर पियें । 13.  * ताम्बे का पानी * - प्रातः खड़े होकर नंगे पाँव पानी ना पियें । 14.   * किडनी * - भूलकर भी खड़े होकर गिलास का पानी ना पिये । 15.  * गिलास * एक रेखीय होता है तथा इसका सर्फेसटेन्स अधिक होता है । गिलास अंग्रेजो ( पुर्तगाल) की सभ्यता से आयी है अतः

संकट में मातृभाषा ही काम देती है। Sankat mein matrubhasha hi Kam deti hai.

यह उन दिनों की कथा है , जब गोपाल भांड बंगाल के राजदरबार के एक प्रमुख सदस्य थे। अपने विनोदी स्वभाव से न केवल वह सबका मनोरंजन करते थे बल्कि कई गुत्थियां भी हंसते-हंसते सुलझा देते थे। बंगाल के राजा का उन्हें स्नेह प्राप्त था। राजा उन्हें हर तरह से प्रोत्साहन भी दिया करते थे। एक बार राजसभा में एक पंडित पधारे। वह कहीं दूर से आए थे। वे भारत की अधिकांश प्रचलित भाषाएं , यहां तक कि संस्कृत , अरबी , फारसी भी धाराप्रवाह बोल सकते थे। उनका खूब स्वागत - सत्कार किया गया। आते ही उन्होंने अपने भाषा ज्ञान की डींग हांकी। किसी ने पूछा कि उनकी मातृभाषा क्या है तो उन्होंने चुनौती देने के अंदाज में कहा कि वे इसका पता लगाकर दिखाएं। दरबार में उपस्थित पंडित और दूसरे लोग सन्न रह गए। उन्होंने गोपाल भांड की ओर देखा। गोपाल बोले , ' मैं तो भाषाओं का जानकार नहीं , पर मैं यह पता लगा सकता हूं कि उस पंडित की मातृभाषा क्या हैं ? पर शर्त यह है कि मुझे अपने तरीके से पता लगाने की अनुमति दी जाए। ' दरबारियों के कहने पर राजा ने गोपाल भांड को इसकी अनुमति दे दी। अगले दिन सब लोग सीढ़ियों से उतर रहे थे। वह पंड

आत्मा होने का बोध पाठ कराना aatma hone ka bodh paath karana

एक महात्माजी किसी गांव में गए। अनेक शास्त्रीय प्रमाणों के आधार पर 'आत्मा ' पर लंबा वक्तव्य दिया। एक युवक , जो अपने आपको बौद्धिक मानता था , बोला - महात्मन ! अपने प्रवचन दिया , बड़ा श्रम किया , इसके लिए आपके प्रति हमारा आभार ज्ञापन। किंतु बाबाजी! इतना सुनने के बाद भी आत्मा के अस्तित्व में मेरा कोई विश्वास नहीं है। मैं तो नास्तिक दर्शन चार्वाक को सही मानता हूं , जिसका सिद्धांत - जब तक जीओ , सुख से जीओ। वैषयिक सुखों का भोग करो क्योंकि शरीर के नष्ट हो जाने के बाद पुनर्जन्म जैसा कुछ नहीं है। जो कुछ है , इसी जीवन में है। फिर भी मेरा कोई आग्रह नहीं है। यदि आप मुझे आत्मा को हाथ में लेकर दिखा दें तो मैं मान लूंगा कि आत्मा भी कोई चीज है। संत ने सोचा , इसे युक्ति से समझाना चाहिए। बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा - युवक ! तुमने कभी स्वप्न देखा है ? युवक बोला - हां महाराज! कल रात ही मैंने बड़ा सुंदर स्वप्न देखा। लोकसभा का चुनाव हुआ और उसमें मैं जीत गया। मुझे प्रधानमंत्री बना दिया गया। 15 अगस्त का दिन आया। मैंने लालकिले से जनता को संबोधित किया। यह सब कुछ मैंने स्वप्न में देखा था।

निष्पाप जीवन

एक सज्जन ने एकनाथ से पूछा - ' महाराज , आपका जीवन कितना सीधा - सादा और निष्पाप है। हमारा जीवन ऐसा क्यों नहीं। आप कभी किसी पर गुस्सा नहीं होते। किसी से लड़ाई - झगड़ा नहीं करते। कितने शांत हैं आप ! ' एकनाथ ने कहा -  ' अभी मेरी बात छोड़ो। तुम्हारे सम्बन्ध में मुझे एक बात मालूम हुई है । आज से सात दिन के भीतर तुम्हारी मौत आ जायेगी । ' एकनाथ की कही बात को झूठ कौन मानता ! सात दिन में मृत्यु !  हे भगवान ! यह क्या अनर्थ ? वह मनुष्य जल्दी - जल्दी घर दौड़ गया। कुछ सूझ नहीं पड़ता था। आख़िरी समय की , सब कुछ समेट लेने की बातें कर रहा था। वह बीमार हो गया। बिस्तर पर पड़  गया। छह दिन बीत गए। सातवें दिन एकनाथ उससे मिलने आये। उसने नमस्कार किया। एकनाथ ने पूछा - ' क्या हाल है ? उसने कहा - ' बस अब चला । ' एकनाथ ने पूछा - ' इन छह दिनों में कितना पाप किया ? पाप के कितने विचार मन में आए ? ' वह मरणासन्न व्यक्ति बोला - ' एकनाथ जी , पाप का विचार करने की तो फुर्सत ही नहीं मिली। मौत आँखों के सामने खडी थी । ' एकनाथ ने कहा - ' हमारा जीवन इतना निष्पाप क्यों है , इसका उत्

अभिमान ही प्रगति में बाधक हैं। Abhimaan hi Pragati mein badhak hai.

एक प्रसिद्ध मूर्तिकार अपने पुत्र को मूर्ति बनाने की कला में दक्ष करना चाहता था। उसका पुत्र भी लगन और मेहनत से कुछ समय बाद बेहद खूबसूरत मूर्तियाँ बनाने लगा। उसकी आकर्षक मूर्तियों से लोग भी प्रभावित होने लगे। लेकिन उसका पिता उसकी बनाई मूर्तियों में कोई न कोई कमी बता देता था। उसने और कठिन अभ्यास से मूर्तियाँ बनानी जारी रखीं। ताकि अपने पिता की प्रशंसा पा सके। शीघ्र ही उसकी कला में और निखार आया। फिर भी उसके पिता ने किसी भी मूर्ति के बारे में प्रशंसा नहीं की। निराश युवक ने एक दिन अपनी बनाई एक आकर्षक मूर्ति अपने एक कलाकार मित्र के द्वारा अपने पिता के पास भिजवाई और अपने पिता की प्रतिक्रिया जानने के लिये स्वयं ओट में छिप गया। पिता ने उस मूर्ति को देखकर कला की भूरि - भूरि प्रशंसा की और बनानेवाले मूर्तिकार को महान कलाकार भी घोषित किया। पिता के मुँह से प्रशंसा सुन छिपा पुत्र बाहर आया और गर्व से बोला - " पिताजी वह मूर्तिकार मैं ही हूँ। यह मूर्ति मेरी ही बनाई हुई है। इसमें आपने कोई कमी नहीं निकाली। आखिर आज आपको मानना ही पड़ा कि मैं एक महान कलाकार हूँ। " पुत्र की बात पर पिता बोला , &qu

सच्चे हृदय से की गई साधना कभी निष्फल नहीं होती। Sacchi hriday se ki gai Sadhna kabhi nishfal nahin Hoti.

बहुत पुरानी बात है। हस्तिनापुर के जंगल में दो साधक अपनी नित्य साधना में लीन थे। उधर से एक देवर्षि का प्रकट होना हुआ। देवर्षि को देखते ही दोनों साधक बोल उठे - ' परमात्मन ! आप देवलोक जा रहे हैं क्या ? आप से प्रार्थना है कि लौटते समय प्रभु से पूछिए कि हमारी मुक्ति कब होगी। ' यह सुनकर देवर्षि वहां से चले गए। एक महीने के उपरांत देवर्षि वहां फिर प्रकट हुए। उन्होंने प्रथम साधक के पास जाकर प्रभु के संदेश को सुनाते हुए कहा - ' प्रभु ने कहा है कि तुम्हारी मुक्ति पचास वर्ष बाद होगी। ' यह सुनते ही वह साधक अवाक् रह गया। उसने विचार किया कि मैंने दस वर्ष तक निरंतर तपस्या की , कष्ट सहे , भूखा - प्यासा रहा , शरीर को क्षीण किया। फिर भी मुक्ति में पचास वर्ष ! मैं इतने दिन और नहीं रुक सकता। निराश हो , वह साधना को छोड़ अपने परिवार में वापस जा मिला। देवर्षि ने दूसरे साधक के पास जाकर कहा - ' प्रभु ने तुम्हारी मुक्ति के विषय में मुझे बताया है कि साठ वर्ष बाद होगी। ' साधक ने सुनकर बड़े संतोष की सांस ली। उसने सोचा , जन्म - मरण की परंपरा मुक्ति की एक सीमा तो हुई। मैंने एक दशाब्द

वे रहेंगे तो आदर्श और संस्कार जीवित रहेंगे। Ve rahenge tu Adarsh aur Sanskar jeevit rahenge.

एक बार मगध के शासक ने कौशल राज्य पर हमला कर दिया। कौशल नरेश ने तुरंत अपनी प्रजा को नगर खाली कर किसी सुरक्षित प्रदेश में निकल जाने को कहा। राजाज्ञा मानकर सभी नागरिक अपने परिवार और सामान समेत नगर से प्रस्थान कर गए। मगघ की सेना ने नगर में प्रवेश किया और कौशल नरेश तथा उनके साथ चल रहे कुछ अन्य नागरिकों को घेर लिया। कौशल नरेश ने मगध के सेनापति से अनुरोध किया कि अगर वह उनके साथ चल रहे बारह लोगों को मुक्त कर दें तो वे स्वयं बिना शर्त आत्मसमर्पण कर देंगे। सेनापति ने शर्त स्वीकार कर ली। कौशल नरेश के साथ चल रहे बारह लोगों को छोड़ दिया गया और कौशल नरेश को उनके अंगरक्षकों के साथ मगध नरेश के सामने प्रस्तुत किया गया। सेनापति ने बारह लोगों को छोड़े जाने वाली बात मगध नरेश को बताई तो वह आश्चर्य में पड़ गए। उन्होंने कौशल नरेश से पूछा - जिन बारह लोगों को आपने छुड़वाया वे कौन थे ? कौशल नरेश ने उत्तर दिया - मान्यवर , वे हमारे राज्य के संत और विद्वान थे। मैं रहूं या न रहूं इससे कोई अंतर नहीं आने वाला है। लेकिन एक राज्य के लिए संतों और विद्वानों का बचे रहना आवश्यक है। वे राज्य की संपत्ति हैं। वे र

जिंदगी का सार jindagi ka Saar

एक दिन स्कूल में छुट्टी होने के कारण एक दर्जी का बेटा , अपने पापा की दुकान पर चला गया । वहाँ जाकर वह बड़े ध्यान से अपने पापा को काम करते हुए देखने लगा। उसने देखा कि उसके पापा कैंची से कपड़े को काटते हैं और कैंची को पैर के पास दबा कर रख देते हैं । फिर सुई से उसको सीते हैं और सीने के बाद सुई को अपनी टोपी पर लगा लेते हैं । जब उसने इसी क्रिया को चार - पाँच बार देखा तो उस से रहा नहीं गया , तो उसने अपने पापा से कहा ..... कि वह एक बात उनसे पूछना चाहता है ? पापा ने कहा - बेटा बोलो क्या पूछना चाहते हो ? बेटा बोला - पापा मैं बड़ी देर से आपको देख रहा हूं ,आप जब भी कपड़ा काटते हैं , उसके बाद कैंची को पैर के नीचे दबा देते हैं , और सुई से कपड़ा सीने के बाद , उसे टोपी पर लगा लेते हैं , ऐसा क्यों ? इसका जो उत्तर पापा ने दिया - उन दो पंक्तियाँ में मानों उसने ज़िन्दगी का सार समझा दिया । यही कारण है कि मैं सुई को टोपी पर लगाता हूं और कैंची को पैर के

बीते हुए कल के कारण आज और भविष्य को मत बिगाड़ो beete hue kal ke Karan aaj aur bhavishya ko mat bigado

बुद्ध भगवान एक गाँव में उपदेश दे रहे थे। उन्होंने कहा कि “ हर किसी को धरती माता की तरह सहनशील तथा क्षमाशील होना चाहिए। क्रोध ऐसी आग है जिसमें क्रोध करनेवाला दूसरोँ को जलाएगा तथा खुद भी जल जाएगा। ” सभा में सभी शान्ति से बुद्ध की वाणी सून रहे थे , लेकिन वहाँ स्वभाव से ही अतिक्रोधी एक ऐसा व्यक्ति भी बैठा हुआ था जिसे ये सारी बातें बेतुकी लग रही थी । वह कुछ देर ये सब सुनता रहा फिर अचानक ही आग - बबूला होकर बोलने लगा , “ तुम पाखंडी हो। बड़ी - बड़ी बाते करना यही तुम्हारा काम है । तुम लोगों को भ्रमित कर रहे हो। तुम्हारी ये बातें आज के समय में कोई मायने नहीं रखती ” ऐसे कई कटु वचनों सुनकर भी बुद्ध शांत रहे। अपनी बातो से ना तो वह दु:खी हुए , ना ही कोई प्रतिक्रिया की , यह देखकर वह व्यक्ति और भी क्रोधित हो गया और उसने बुद्ध के मुंह पर थूक कर वहाँ से चला गया। अगले दिन जब उस व्यक्ति का क्रोध शांत हुआ तो उसे अपने बुरे व्यवहार के कारण पछतावे की आग में जलने लगा और वह उन्हें ढूंढते हुए उसी स्थान पर पहुंचा , पर बुद्ध कहाँ मिलते वह तो अपने शिष्यों के साथ पास वाले एक अन्य गाँव निकल चुके थे । व्यक्ति ने बुद

माँ की नसीहत Maa ki nasihat

एक बार मालदा शहर के बगीचे में एक अफगान व्यापारी वशीर मोहम्मद ने रात बिताई। सवेरे अपना सामान समेटकर वह वहां से चल पड़ा। कई मील पहुंचने के बाद उसे याद आया कि सोने के सिक्कों से भरी थैली तो एक पेड़ की डाली पर ही लटकी रह गई है। धन के बिना व्यापार के लिए भी आगे नहीं जाया जा सकता। दु:खी मन से वह वापस उसी ओर चल पड़ा। संयोगवश वीरेश्वर मुखोपाध्याय नामक एक बालक बगीचे में पहुंचा। खेलते - खेलते वह उस पेड़ के पास पहुंच गया , जिस पर सिक्कों से भरी थैली टंगी थी। बालक ने उत्सुकतावश थैली उतारी। उसके अन्दर सोने की मुद्राएँ देखकर वह हैरान रह गया। उसने माली से पूछताछ की तो पता चला कि काबुल का व्यापारी रात गुजारकर यहां से दक्षिण की ओर रवाना हुआ है। यह सुनते ही बालक थैली लेकर दक्षिण की ओर दौड़ चला। तभी उसे वशीर मोहम्मद उस ओर आता हुआ नजर आया। बालक ने उसकी पोशाक देखकर अंदाजा लगा लिया कि यही काबुल व्यापारी है। उधर वशीर मोहम्मद ने भी बालक के हाथ में अपनी थैली देखी। बालक बोला , ‘ शायद यह थैली आपकी ही है। ’ मैं इसे आपको लौटाने के लिए आ रहा था। एक नन्हे बालक के मुंह से यह सुनकर वशीर मोहम्मद दंग होकर बोला , ‘ क्य

माँ से बढ़कर कोई नहीं maa se badhkar koi Nahin

स्वामी विवेकानंद जी से एक जिज्ञासु ने प्रश्न किया , मां की महिमा संसार में किस कारण से गाई जाती है ? स्वामी जी मुस्कराए , उस व्यक्ति से बोले , पांच सेर वजन का एक पत्थर ले आओ। जब व्यक्ति पत्थर ले आया तो स्वामी जी ने उससे कहा , अब इस पत्थर को किसी कपड़े में लपेटकर अपने पेट पर बाँध लो और चौबीस घंटे बाद मेरे पास आओ तो मैं तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दूंगा। स्वामी जी के आदेशानुसार उस व्यक्ति ने पत्थर को अपने पेट पर बांध लिया और चला गया। पत्थर बंधे हुए दिनभर वो अपना काम करता रहा , किन्तु हर क्षण उसे परेशानी और थकान महसूस हुई। शाम होते - होते पत्थर का बोझ संभाले हुए चलना फिरना उसके लिए असह्य हो उठा। थका मांदा वह स्वामी जी के पास पंहुचा और बोला मैं इस पत्थर को अब और अधिक देर तक बांधे नहीं रख सकूंगा। एक प्रश्न का उत्तर पाने के लिए मैं इतनी कड़ी सजा नहीं भुगत सकता। स्वामी जी मुस्कुराते हुए बोले , पेट पर इस पत्थर का बोझ तुमसे कुछ घंटे भी नहीं उठाया गया। मां अपने गर्भ में पलने वाले शिशु को पूरे नौ माह तक ढ़ोती है और गृहस्थी का सारा काम करती है। संसार में मां के सिवा कोई इतना धैर्यवान और सहनशील न

बलि देना मुश्किलों का हल नहीं Bali dena mushkilo Ka hal Nahin

राजा अजातशत्रु का राज्य बहुत अच्छा चल रहा था , किंतु कहते हैं न कि समय हमेशा एक जैसा नहीं रहता। ऐसा ही अजातशत्रु के साथ हुआ। राजा कई मुश्किलों से घिर गए और उन मुश्किलों से बाहर नहीं निकल पा रहे थे। उन्होंने कई युक्तियाँ अपनाई , लेकिन असफल रहे। एक दिन उनकी मुलाकात एक तांत्रिक से हुई। राजा ने तांत्रिक को अपनी मुश्किलें बताईं। तांत्रिक ने राजा की बातों को ध्यान से सुना , फिर उसने एक उपाय बताया। तांत्रिक ने कहा , आपको पशु बलि देनी पड़ेगी , तभी आपकी मुश्किलों का समाधान होगा। पहले तो राजा काफी सोच - विचार में पड़ गया , लेकिन उन्हें जब कोई भी रास्ता न दिखा तो उन्होंने तांत्रिक की बात मान ली। तांत्रिक के कहे एक बड़ा अनुष्ठान किया गया। पशुओं को मैदान में बलि देने के लिए बाँध दिया गया। संयोगवश उस समय महात्मा बुद्ध राजा के नगर में पहुँचे। वे उसी स्थान से गुजर रहे थे , जहाँ पर राजा ने अनुष्ठान कराया था। महात्मा बुद्ध ने जब देखा कि निर्दोष पशुओं की बलि दी जानेवाली है तो वे राजा के पास गए और बोले , राजन ! आप इन निर्दोष पशुओं को क्‍यों मारने जा रहे हैं ? राजा बोले , महात्माजी ! मैं इन्हें मारने

रास्ते में ही ईश्वर के दर्शन हो गए raste mein hi ishwar ke darshan ho Gaye

सरस्वती चंद्र तीर्थयात्रा पर जा रहे थे। लंबे और कठिन सफर को देखते हुए साथ में बर्तन , भोजन और जरूरत का अन्य सामान भी था। रास्ते में एक गांव पार करते हुए वह वहां के एक वीरान मंदिर में रुक गए। पहले तो सोचा कि यहां कोई नहीं होगा पर मंदिर के अंदर गए तो देखा एक बीमार वृद्ध कराह रहे हैं। उनकी हालत देख लगता था कि उन्होंने काफी दिनों से कुछ खाया न हो। सरस्वती चंद्र को उन पर दया आ गई। उन्होंने कुछ समय वहीं रुककर उनकी सेवा करने का फैसला किया। उन्होंने अपने कपड़े उस वृद्ध सज्जन को पहना दिए। अपने सारे बर्तन मंदिर के उपयोग के लिए रख दिए। अपना भोजन भी उन्हें खिला दिया। फिर आसपास से फल और कुछ औषधियां ले आए। खाली समय में सरस्वती चंद्र मंदिर की सफाई में लगे रहते। इस तरह मंदिर का कायाकल्प हो गया। इधर वृद्ध सज्जन धीरे - धीरे स्वस्थ होने लगे। कुछ दिनों के बाद सरस्वती चंद्र बिना तीर्थधाम गए ही घर वापस आ गए। घर वालों ने इस तरह आने का कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि रास्ते में ही उन्हें ईश्वर के दर्शन हो गए। इसलिए आगे जाने की उन्होंने कोई आवश्यकता ही नहीं समझी और लौट आए। इधर मंदिर के पुनरोद्धार हो ज

खुद की पहचान करो khud ki pahchan karo

तथागत यह भी कहते थे कि सबसे पहले व्यक्ति को खुद की पहचान करनी चाहिए । दूसरों की बजाय व्यक्ति खुद के बारे में ज्यादा जानता है। उनका मत था कि बुराई से घृणा करो , बुरे व्यक्ति से नहीं। एक बार की बात है , किसी गाँव के पास बहती नदी के किनारे बुद्ध बैठे थे। किनारे पर पत्थरों की भरमार थी , पर छोटी सी वह नदी अपनी तरल धारा के कारण आगे बढ़ती ही जा रही थी। बुद्ध ने विचार किया कि यह छोटी सी नदी अपनी तरलता के कारण कितनों की प्यास बुझाती है , लेकिन भारी - भरकम पत्थर एक ही स्थान पर पड़े रहते हैं और दूसरों के मार्ग में बाधक बनते रहते हैं। इस घटना की सीख यह है कि दूसरों के रास्ते में रोड़े अटकानेवाले खुद कभी आगे नहीं बढ़ पाते। परंतु जो दूसरों को सद्भाव और स्नेह देता है , वह स्वयं भी आगे बढ़ जाता है। बुद्ध ऐसे ही विचारों में मग्न थे कि तभी उन्होंने ग्रामीणों की एक भीड़ को अपनी ओर आते देखा । बड़ा शोर था और लोग किसी युवती के प्रति अपशब्द बोल रहे थे। तथागत ने देखा कि लोग एक युवती को घसीटकर ला रहे थे और उसको गाली भी दे रहे थे। भीड़ के नजदीक आने पर बुद्ध ने लोगों से युवती को पीटने और अपशब्द कहने का कारण