राजा शर्याति अपने परिवार समेत एक बार वन विहार के लिए गए। एक सुरम्य सरोवर के निकट पड़ाव पड़ा। बच्चे इधर - उधर खेल , विनोद करते हुए घूमने लगे। मिट्टी के ढेर के नीचे से दो तेजस्वी मणियाँ जैसी चमकती देखीं तो राजकन्या को कुतूहल हुआ। उसने लकड़ी के सहारे उन चमकती वस्तुओं को निकालने का प्रयत्न किया। किंतु तब उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब उन चमकती वस्तुओं में से रक्त की धारा बह निकली। सुकन्या को दुःख भी हुआ और आश्चर्य भी। वह कारण जानने के लिए अपने पिता के पास पहुँची। शर्याति ने सुना तो वे स्तब्ध रह गए। टीले के नीचे च्यवन ऋषि तपस्या कर रहे थे। संभवतः लड़की ने उन्हीं की आँखें फोड़ दी हैं। परिवार समेत राजा वहाँ पहुँचे। देखा वृद्ध च्यवन नेत्रहीन होकर कराह रहे हैं। समाधि उनकी टूट चुकी थी। पाप की मुक्ति तो प्रायश्चित से ही होती है। इस लक्ष्य को राज्य परिवार ने भली प्रकार समझ रखा था। कायरता क्षमा माँगती है और वीरता क्षतिपूर्ति करने को प्रस्तुत रहती है। सुकन्या ने अपने अपराध की गुरुता को समझा और उसके अनुसार प्रायश्चित करने का भी साहसपूर्ण निर्णय कर डाला। राजकन्या ने घोषित किया - वह आजीवन अंध
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