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Showing posts from March, 2019

आरक्षण - aarakshan

आरक्षण भी असुरक्षा के भय से उत्पन्न हुई पद्धति है। जिसका हश्र हर कोई देख रहा है। किसी भी वजह से किसी के भी दिमाग में बैठा ना कि आप कमजोर हैं। आपको यदि सुरक्षा नहीं मिली, तो आप का विकास नहीं होगा। यह एक बहुत बड़ी विपरीत धारणा है। यदि वास्तविकता में किसी का विकास करना हो तो उसके मन से भय व अविश्वास को निकालने की जरूरत है। उन्हें अच्छी शिक्षा देने और संघर्ष के लिए तैयार करने की जरूरत है। यदि हम ज्यादा आरक्षण का सहारा देंगे, तो वह जाति या वर्ग विशेष कभी भी विकसित ही नहीं हो पाएगा। इसके साथ परस्पर मतभेद वह जातिवाद का जहर फैलता ही जाएगा। जिस चीज को भुलाने की जरूरत है उस चीज को बढ़ावा देंगे, तो हमारा भविष्य कभी अच्छा नहीं हो सकता। आरक्षण पूर्णतया वैज्ञानिक पद्धति है। लोगों को यह सिखाना कि किसी और को मिलने वाला अवसर आपको मिलना चाहिए, वैज्ञानिक कैसे हो सकता है। जो लोग किसी समाज के शुभचिंतक के रूप में कार्य करना चाहते हैं, उन्हें आरक्षण के बजाय ऐसे तरीके पर कार्य करना चाहिए जिससे समाज का वास्तविक भला हो सके। लोगों को प्रशिक्षित कर, उनके मन से यह डर निकालना है कि हम किसी से क

भरत - बाहुबली का युद्ध, बाहुबली की दीक्षा तथा केवल ज्ञान Bharat Baahubali Ka Yudh, Bahubali ki Deeksha tatha keval Gyan

भरत श्रेष्ठ आपके अठानवें भाइयों ने दीक्षा ग्रहण कर ली है। अन्य तो सब आपकी आज्ञा मानते हैं पर महा अभिमानी बाहुबली आपकी आज्ञा नहीं मानते। वह अपनी भुजा के बल का बहुत पराक्रम दिखाते हैं। इसीलिए उन्हें मूल से उखाड़ देना चाहिए। यह एक ऐसा महा रोग है, जो आपके लिए व्याधि उत्पन्न कर रहा है। यह सुनकर भरत महाराजा ने अपने सुवेग नामक दूत को सब बात समझाकर बाहुबली के पास भेजा। दूत के मुंह से भरत का संदेश सुन बाहुबली की भृकुटी तन गई। दूत ! भरत अभी भूखा है। अपने अठानवें भाइयों का राज्य हड़प कर भी तृप्त नहीं हुआ। मैं युद्ध करना नहीं चाहता। आक्रमण को अभिशाप मानता हूं। किंतु आक्रमणकारी को सहन करूं, यह मेरी सहनशक्ति से परे है सहन करने की भी एक सीमा होती है।उसे अपनी शक्ति का गर्व है। वह सब को दबाकर रखना चाहता है, वह शक्ति का सदुपयोग नहीं दुरुपयोग है। मैं उसे बतलाना चाहता हूं कि आक्रमण कितना बुरा है। बाहुबली की बात सुनकर दूत लौट आया। उसने भरत महाराजा के पास आकर सारी बात कह सुनाई। भरत भी चुप बैठने वाले कहां थे। विशाल सेना के साथ युद्ध करने हेतु "बहली देश" की सीमा पर पहुंच गए

महामंत्र नवकार की महीमा । Maha Mantra navkar ki Mahima.

मंत्रों में शिरोमणि "नवकार मंत्र" का सतत मन में स्मरण करें। इसके स्मरण से इस भव में ही नहीं बल्कि परभव में भी जीव अनंत सुख को पाता है। नवकार मंत्र के प्रभाव से भील - भीलडी परभव में राजा - रानी बनें। नवकार मंत्र के स्मरण से श्रीमती ने जैसे ही घडे में हाथ डाला सर्प फूल की माला बन गई। शिवकुमार को नवकार मंत्र में स्वर्ण पुरुष की प्राप्ति हुई अमर कुमार की मरण सूली सिंहासन बन गई। इसीलिए अत्यंत हो भाव पूर्वक नवकार मंत्र का स्मरण करें। अपने मरण को महोत्सव बनाने के लिए समाधि- मरण के इन दस अधिकारों को अपने जीवन में उतारे तथा अपना जीवन प्रभु की आज्ञा में बनाएं। जिससे अंत समय में प्रभु की याद आ सके। एक साधु भगवंत को अपने गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण था। इस एक गुण के अतिरिक्त कुछ नहीं आता था। जब उनका अंतिम समय आया तब सभी साधु उन्हें समाधि देने के लिए नवकार मंत्र आदि सुनाने लगे। लेकिन उनका मन नवकार मंत्र में स्थिर बनने के बदले वे क्रोधित हो उठे। इतने में उनके गुरु वहां आए और कहा कि "तू मन को नवकार" में स्थिर कर। गुरु के प्रति समर्पण होने से एक पल

जीवन समर्पण मांगता है। Jeevan samarpan mangta hai.

आदमी ने दुनिया पर विश्वास किया लेकिन अपनी संभावनाओं , अपनी क्षमताओं पर कभी विश्वास नहीं किया। शायद यही कारण है कि वह महापात्र होकर भी भिक्षापात्र लेकर भीख मांगने को विवश है। एक पाषाण को पूज्य बना देना, एक पत्थर को प्रतिमा बना देना बड़ा सरल है, लेकिन एक इंसान को भगवान बना पाना बड़ा कठिन है। एक पत्थर भगवान बन जाता है, पर आदमी नहीं बन पाता। क्या कारण है ? कारण स्पष्ट है, पाषाण प्रतिमा बन जाता है, भगवान बन जाता है क्योंकि जब कोई शिल्पी उस पर कोई छैनी और हथोड़ा चलाता है, तो वह कोई प्रतिकार नहीं करता है। श्रद्धा समर्पण भाव से शिल्पी की हर चोट को सहता है, शिल्पी जितना काटता है कट जाता है, जितना छिलता है छिल जाता है, जितना मिटाता है मिट जाता है। वह पाषाण कभी कोई प्रतिकार नहीं करता लेकिन इंसान पर यदि कोई सद्गुरु जरा सी भी चोट करता है तो प्रतिकार करता है, उठ खड़ा होता है, भाग - दौड मचाता है, मरने - मारने के लिए खड़ा हो जाता है। यही वजह है कि इंसान भगवान नहीं बन पाता। यही कारण है कि जीवन में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन, कोई आमूल - चूल तब्दीली नहीं हो पाती है जीवन समर्पण मांगता है

सबसे सस्ता आदमी। Sabse sasta Aadmi.

इच्छा मत करना । इच्छा दु:खदाई है। आशा बहुत भटकाती है। आशा बहुत दौड़ाती है। सारी दुनिया आशा के खातिर दौड़ती नजर आती है। एक आदमी सोचता है मेरे पास दस हजार रुपए हो जाए तो मैं सुखी हो जाऊंगा और यदि उसके पास दस हजार रुपए हो जाते हैं तो वह सुखी नहीं होता है। क्योंकि उसमें अब एक नई आशा पैदा हो गई। दस हजार से क्या होगा ? कम से कम लाख तो होना ही चाहिए। अब वह लाख के लिए भागेगा। पहले दस हजार रुपए के लिए भाग रहा था रहा था, अब वह लाख रुपए के लिए भाग रहा है। सोच रहा है कि कहीं से भी और किसी भी तरह एक लाख रुपए हो जाए तो सब ठीक हो जाए और यदि पुण्य योग से लाख रुपए हो भी गए तो कुछ भी ठीक नहीं होने वाला,क्योंकि फिर वही आशा कहेगी कि जब लाख रुपए हो सकते हैं तो दस लाख रुपए भी हो सकते हैं। महंगाई के जमाने में लाख रुपए होते भी क्या है ? आजकल लाख रुपए वाली की पूछी क्या है ? महंगाई का जमाना है। महंगाई तेजी से बढ़ रही है और इस महंगाई के युग में लाख रुपए क्या मायने रखते हैं ? महंगाई दिन - दूनी, रात - चौगुनी बढ़ रही है इसीलिए लाख से काम नहीं चलेगा। कम से कम दस लाख रुपए तो होना ही चाहिए। सभी चीजों

भक्ति मुक्ति का कारण है। Bhakti Mukti ka Karan hai.

प्रभु के चरणों में बैठने का सुख, उनके चरणों की भक्ति का आनंद अद्भुत है। प्रभु से मांगना है तो सत्संग मांगना, प्रभु भक्ति मांगना। अभी तो तुम उससे धन-संपत्ति मांगते हो, संसार का वैभव मांगते हो, इधर उधर का कूड़ा - करकट मांगते हो। अरे, यह तो भाग्य का विषय है जो मिलना है वह तो मिलना ही है। ना मांगो तब भी मिलना है। कितना मिलना है - यह तो जन्म से पूर्व ही जन्म की पुस्तिका में लिख दिया जाता है । जो मिलने ही वाला है, उसे मांगना क्या ? अगर तुम्हारा पैसा बैंक के खाते में जमा है तो तुम्हारा दुश्मन भी काउंटर पर बैठा हो तो उसे भी देना पड़ेगा, और यदि खाते में कुछ भी जमा नहीं है तथा तुम्हारा अपना ही लड़का काउंटर पर बैठा है, तो वह भी नहीं दे पाएगा। प्रभु के चरणों में बैठकर इतनी ही प्रार्थना करना कि हे प्रभु ! तू मुझे हमेशा अपने चरणों में रखना। भगवान से चरण मांगना, उनका आचरण मांगना,उन जैसा समाधि - मरण मांगना, उन जैसा परम जागरण मांगना, क्योंकि जीवन की सब समृद्धि भगवान के ही श्री चरणों में ही बसती है। भगवान से कहना - प्रभु ! तूने जो हजारों - लाखों रुपए दिए हैं उसमें से कुछ लाख, कुछ हजार कम क

प्रणाम करने लायक हूं या नहीं। Pranam karne layak hu ya nahi.

स्वामी रामतीर्थ के विषय में कहा जाता है कि जब कोई उन्हें प्रणाम करने के लिए, नमन करने के लिए आगे बढ़ता, तो वे चार कदम पीछे हट जाते और उससे कहते, भाई! ठहरो, रुक जाओ, इतनी जल्दी मत करो। नमन करने में इतनी शीघ्रता मत करो। पहले मेरे विषय में अच्छी तरह जान लो कि मैं प्रणाम करने के लायक हूं या नहीं। दूसरों की सुनी - सुनाई बातों में आकर एकदम से प्रणाम मत करो। दूसरे प्रणाम कर रहे हैं इसीलिए तुम मत करो। पहले मेरे विषय में अच्छी तरह जांच - पड़ताल कर लो कि मैं प्रणाम के काबिल हूं या नहीं। मेरा चरित्र कैसा है ? मेरे पास - पड़ोस वालों से थोड़ा इस विषय में पूछ लो। मेरी परछाई से मेरे बारे में थोड़ी - सी जानकारी हासिल कर लो कि मैं क्या हूं ? कि मैं गुरु बनाने के योग्य हूं या नहीं ? तो वह पीछे हट जाते, कहते - इतनी जल्दी मत करो। अभी तो मैं जिंदा हूं, दो-चार दिन तो जी ऊंगा ही। वह कहते - किसी को गुरु बनाने से पहले, संत मानने से पहले अच्छी तरह सोच विचार लो, जांच - परख लो और फिर यदि एक बार श्रद्धा से सिर झुका दिया, गुरु स्वीकार कर लिया तो फिर कभी उसकी आलोचना मत करना, फिर कभी उसकी बुरा

विश्वास का महत्व। Vishwas ka mahatva.

जीवन में जो महत्व स्वास का है, समाज में वही महत्व विश्वास का है। विश्वास जीवन की स्वास है, विश्वास जीवन की आस है, विश्वास जीवन की प्यास है। दुनिया विश्वास पर टिकी है। जब तक विश्वास- है तब तक दुनिया है। विश्वास उठा यह दुनिया भी उठ जाएगी । लोग कहते हैं, पृथ्वी शेषनाग पर टिकी है लेकिन मैं कहता हूं कि दुनिया शेषनाग पर नहीं टिकी है, अपितु हमारे - तुम्हारे आपसी विश्वास पर टिकी है। विश्वास सृष्टि की बुनियाद है, श्रद्धा जीवन की नींव है। जीवन की इमारत श्रद्धा और विश्वास के मजबूत पायों पर ही तो खड़ी होती है। पति का पत्नी पर विश्वास है तो जीवन में खुशियां हैं। यह विश्वास टूटा और जीवन नर्क बन गया। बापका बेटे में और बेटे का बाप में विश्वास है तो रिश्तो में माधुर्य है, मिठास है। यह विश्वास उठा कि जीवन में कड़वाहट आई। मालिक का नौकर पर विश्वास न हो तो व्यापार ठप्प हो जाए और नौकर का मालिक पर से विश्वास जाता रहे तो सेवा एक पीड़ादाई बोझ बन जाएगी । स्मरण रहे संसार विश्वास से चलता है, धर्म श्रद्धा से चलता है और विज्ञान तर्क से चलता है। विज्ञान में श्रद्धा का कोई मूल्य नहीं ।

समर्पण श्रेष्ठ श्री हनुमान जी। Samarpan shresth Shri Hanumanji.

राज्याभिषेक के अवसर पर धर्म विग्रह श्री राम ने मुनियों एवं ब्राह्मणों को नाना प्रकार के दान से संतुष्ट कर उनका आशीर्वाद प्राप्त किया । तद न्नतर उन्होंने अपने मित्र सुग्रीव , युवराज , अंगद , विभीषण , जाम्बवान , नल और नील आदि सारे वानर , भालूओं को बहुमूल्य अलंकार एवं श्रेष्ठ रत्न प्रदान किए। उसी समय भगवान श्रीराम ने महारानी सीता को अनेक सुंदर वस्त्र आभूषण अर्पित किया तथा एक सुंदर मुक्ताहार भी दिया ।यह हार पवन देवता ने अत्यंत आदर पूर्वक श्री राम को दिया था। माता सीता ने देखा कि प्रभु श्रीराम ने सबको बहुमूल्य उपहार दिया , किंतु पवनकुमार हनुमान को अब तक कुछ नहीं मिला। माता सीता ने प्रभु के द्वारा प्राप्त दुर्लभ मुक्ताहार निकाल कर हाथ में ले लिया। महारानी सीता की इच्छा का अनुमान कर प्रभु ने कहा - 'प्रिये! तुम जिसे चाहो , इसे दे दो।' माता सीता ने वह बहुमूल्य मुक्ताहार " श्री हनुमान जी" के गले में डाल दिया। चारों तरफ हनुमान जी के भाग्य की प्रशंसा होने लगी । परंतु हनुमान जी की मुखाकृति पर प्रसन्नता का कोई चिन्ह नहीं दिखाई पड़ रहा था। वह सोच

एक मुट्ठी राख है शरीर। Ek mutthi rakh hai sharir

पानी पर खींची लकीर जैसा है जीवन। पानी पर लकीर खींच भी नहीं पाते और लकीर मिट जाती है । हम जन्म की खुशियां मना भी नहीं पाते हैं और मौत का मातम छा जाता है। लोग भी कितने नासमझ हैं । अपने बर्थ-डे को तो याद रखते हैं ; उसे धूमधाम से मनाते हैं मगर मृत्यु की कभी चर्चा भी नहीं करते, और अगर कोई भूल से पूछ ले कि भाई साहब ! आप कब मरोगे ? तो शायद तुम गुस्से में उसे ही मार डालो। लोगों को जीवन का उभरना तो याद रहता है, पर वह दिन का ढलना भूल जाते हैं। सूरज उग गया है तो अब ढलने में देर नहीं लगने वाली है। जिसको तुम जवानी कहते हो, वह तो आधे दिन का पूरा हो जाना है। जवानी आधी मौत है। जवानी पर ज्यादा मत इतराओ मत। सोच लो , तुम आधे मर गए। तुम अधमरे हो गए हो और अधमरा कब तक जिंदा रहेगा। वह तो पहले ही आधा मरा हुआ होता है। तो तुम्हारे शरीर की हैसियत एक मुट्ठी राख से ज्यादा नहीं है। यह जो पांच-छह फुट का सुंदर शरीर दिख रहा है ना और जिसको सजाने - संवारने और सुखी रखने के लिए तुम दिन भर पाप करते हो । शरीर की जवानी के नशे में आकर तुम धर्म , तप , त्याग , भगवान सबको भूल गए हो। यह शरीर जि

एक मुट्ठी राख है शरीर। Ek mutthi rakh hai sharir

पानी पर खींची लकीर जैसा है जीवन। पानी पर लकीर खींच भी नहीं पाते और लकीर मिट जाती है । हम जन्म की खुशियां मना भी नहीं पाते हैं और मौत का मातम छा जाता है। लोग भी कितने नासमझ हैं । अपने बर्थ-डे को तो याद रखते हैं ; उसे धूमधाम से मनाते हैं मगर मृत्यु की कभी चर्चा भी नहीं करते, और अगर कोई भूल से पूछ ले कि भाई साहब ! आप कब मरोगे ? तो शायद तुम गुस्से में उसे ही मार डालो। लोगों को जीवन का उभरना तो याद रहता है, पर वह दिन का ढलना भूल जाते हैं। सूरज उग गया है तो अब ढलने में देर नहीं लगने वाली है। जिसको तुम जवानी कहते हो, वह तो आधे दिन का पूरा हो जाना है। जवानी आधी मौत है। जवानी पर ज्यादा मत इतराओ मत। सोच लो , तुम आधे मर गए। तुम अधमरे हो गए हो और अधमरा कब तक जिंदा रहेगा। वह तो पहले ही आधा मरा हुआ होता है। तो तुम्हारे शरीर की हैसियत एक मुट्ठी राख से ज्यादा नहीं है। यह जो पांच-छह फुट का सुंदर शरीर दिख रहा है ना और जिसको सजाने - संवारने और सुखी रखने के लिए तुम दिन भर पाप करते हो । शरीर की जवानी के नशे में आकर तुम धर्म , तप , त्याग , भगवान सबको भूल गए हो। यह शरीर जिस दिन

चौकीदार बनोगे या जमींदार ? Chaukidar banogi yeah jamidar ?

अकड़ हिंसा है। मूर्छा परिग्रह समर्पण है। समर्पण स्वर्ग है। अहंकार नर्क है। विनय मुक्ति द्वार है । सत्य ईश्वर है । संयम जीवन है । परिग्रह पाप है । करुणा धर्म है । सुख-दुख मन के समीकरण है। आदमी बड़प्पन से बड़ा होता है, ऊंचे आसन पर बैठने से बड़ा नहीं होता । एक व्यक्ति ने यह चिट भेजी हैं। गुमनाम चिट है। इस पर भेजने वाले का नाम , पता कुछ नहीं है। इसमें लिखा है - गुरु जी ! आप उसे सिहासन पर , ऊंची चौकी पर बैठते हो और हम लोगों को नीचे बिठाते हो , क्या यह अच्छी बात है ? एक तरफ तो आप कहते हैं कि सभी आत्माएं समान है । दूसरी तरफ आप खुद ऊंची चौकी पर बैठे हो और हमें नीचे जमीन पर बिठाओ, क्या यह मनुष्यता का अपमान नहीं है ? इससे तो यही जाहिर होता है कि आप अपने को बड़ा और हमें छोटा मानते हैं। बात बड़ी तार्किक है। मैं इस संदर्भ में इतना ही कहना चाहूंगा - इस चौकी पर बैठना मेरी मजबूरी है , शौक नहीं। मैं तो चाहता हूं कि तुम भी मेरी तरह मेरे साथ इस चौकी पर बैठो । आओ , मैं निमंत्रण दे रहा हूं। इस चौकी पर बैठने के लिए हिम्मत चाहिए। हिमालय जैसी हिम्मत चाहिए। इस चरित्र की चौकी पर बैठना

चौकीदार बनोगे या जमींदार ? Chaukidar banogi yeah jamidar ?

अकड़ हिंसा है। मूर्छा परिग्रह समर्पण है। समर्पण स्वर्ग है। अहंकार नर्क है। विनय मुक्ति द्वार है । सत्य ईश्वर है । संयम जीवन है । परिग्रह पाप है । करुणा धर्म है । सुख-दुख मन के समीकरण है। आदमी बड़प्पन से बड़ा होता है, ऊंचे आसन पर बैठने से बड़ा नहीं होता । एक व्यक्ति ने यह चिट भेजी हैं। गुमनाम चिट है। इस पर भेजने वाले का नाम , पता कुछ नहीं है। इसमें लिखा है - गुरु जी ! आप उसे सिहासन पर , ऊंची चौकी पर बैठते हो और हम लोगों को नीचे बिठाते हो , क्या यह अच्छी बात है ? एक तरफ तो आप कहते हैं कि सभी आत्माएं समान है । दूसरी तरफ आप खुद ऊंची चौकी पर बैठे हो और हमें नीचे जमीन पर बिठाओ, क्या यह मनुष्यता का अपमान नहीं है ? इससे तो यही जाहिर होता है कि आप अपने को बड़ा और हमें छोटा मानते हैं। बात बड़ी तार्किक है। मैं इस संदर्भ में इतना ही कहना चाहूंगा - इस चौकी पर बैठना मेरी मजबूरी है , शौक नहीं। मैं तो चाहता हूं कि तुम भी मेरी तरह मेरे साथ इस चौकी पर बैठो । आओ , मैं निमंत्रण दे रहा हूं। इस चौकी पर बैठने के लिए हिम्मत चाहिए। हिमालय जैसी हिम्मत चाहिए। इस चरित्र की चौकी पर बैठना इतना

गुरु ही तारणहार है। - Guru hi Taranhaar hai

एक बार नारद जी भगवान लक्ष्मी नारायण के दर्शन हेतु पहुंचे। भगवान ने नारद जी से कुशलता पूछी और उन्हें आशीर्वाद प्रदान किया। नारद जी ने बताया कि वह पृथ्वी लोक पर भ्रमण करके आ रहे है। लक्ष्मी माता ने कहा नारद जी ,आपने पृथ्वी लोक पर गुरु से दीक्षा ली या नहीं। नारद जी ने कहा नहीं माता इस पर लक्ष्मीजी माता ने कहा कि पृथ्वी लोक ही ऐसी जगह है जहां पर मनुष्य नर से नारायण बन सकता है । बिना गुरु के यह असंभव है। और आप पृथ्वी लोक पर जाकर भी बिना गुरु बनाएं ही आ गए। लक्ष्मी माता जी ने कहा आप दोबारा पृथ्वी लोक पर जाएं और गुरु से दीक्षा लेकर आएं अन्यथा आपका यहां आना वर्जित कर दिया जाएगा । नारद जी भगवान और माता को प्रणाम करके पुनः पृथ्वी लोक पर जाने के लिए प्रस्थान कर गए। नारद जी पृथ्वी लोक पहुंचकर विचार करने लगे की माता ने कहा है इसीलिए गुरु तो बनाना ही है। तो उन्होंने विचार किया कि जो सुबह में समुद्र के तट पर सबसे प्रथम व्यक्ति मुझे दिखाई देगा उसे ही मैं अपना गुरु बना लूंगा । सुबह सुबह नारद जी सागर तट पर इंतजार कर रहे थे, कि उन्हें सामने से एक मछुआरा आता हुआ दिखाई दिया। उन्होंने तुरंत ही मछुआरे के पै

बड़े मत बनना। Bade mat bana.

एक मेंढक था। उसमें हाथी को रौब और मदमस्त चाल से चलता हुआ देखा। मेंढक के दिमाग में एक धुन सवार हो गई कि मैं भी हाथी जैसा दिखूं; मेरा भी हाथी जैसा विशाल शरीर हो और हाथी जैसी मदमस्त चाल चलूं ? बस, फिर क्या था ? वह मेंढक साइकिल की दुकान पर पहुंचा । और बोला- भैया! मेरे शरीर में इतनी हवा भरो कि मैं हाथी जितना बड़ा हो जाऊं । दुकानदार ने मेंढक को बहुत समझाया: तू अपने होने में ही खुश रह, हाथी जैसे बनने का ख्याल छोड़ दे। मगर मेंढक की समझ में कुछ नहीं आया । दुकानदार ने मजबूरन पंप उठाया और मेंढक के शरीर में हवा भरना शुरू कर दिया। मेंढक ने कहा और भरो । उसने एक-दो पंप और मारे । मेंढक बोला और भरो । दुकानदार ने एक-दो पंप और मारे । मेंढक बोला : और भरो। बस , भरते जाओ, रुको मत। जब तक मैं फुल कर हाथी जैसा बड़ा न हो जाऊं , भरते जाओ। उसने एक पंप और मारा की मेंढक का पेट फट गया और उसके प्राण पखेरू उड़ गए । वो मेंढक और कोई नहीं , तुम ही हो । तुम भी तो झूठे रौब और प्रदर्शन में मरे जा रहे हो । अहंकार की झूठी हवा में तू ले जा रहे हो। तो , वह मेंढक तुम ही हो जिसके सिर पर बड़ा बनने का भूत सवार है । बड़ा कौन ? म

दुनिया की दस चंचल चीजें । Duniya ki Das Chanchal chinjhe.

असली समस्या मन है। इंद्रियां तो केवल स्विच है, मेन-स्विच तो मन ही है। जब कभी भी कोई विश्वामित्र अपनी तपस्या और साधना से फिसलता और गिरता है तो इसके लिए दोष हमेशा मेनका को दिया जाता है जबकि दोष ' मेनका' का नहीं, आदमी के ' मन- का 'है कोई भी आदमी मेनका के आकर्षण की वजह से नहीं, अपितु अपने मन की कमजोरी की वजह से गिरता है। मन बड़ा खतरनाक है। दुनिया से 10 चीजें चंचल है दस मकार चंचल है। आदमी का मन , मधुकर (भंवरा ),मेघ, मानिनी (स्त्री ),मदन (कामदेव), मरुत (हवा) मर्कट (बंदर), मां (लक्ष्मी), मद (अभिमान), मत्स्य - यह दस चीजें दुनिया में चंचल है, और इनमें भी आदमी का मन सर्वाधिक चंचल है । इस मन को समझना, समझाना बडी टेढ़ी खीर है। पल- पल में बदलता है, क्षण- क्षण में फिसलता है । एक पल में एवरेस्ट की चोटी पर चढ़ जाता है और अगले ही पल बंगाल की खाड़ी में उतर जाता है। आदमी का मन चंचल है। मन हमेशा नशे में रहता है । मन पर कई तरह का नशा चढ़ा है पद का नशा, ज्ञान का नशा, पैसे का नशा, प्रतिष्ठा का नशा, शक्ति का नशा, रूप का नशा, इस तरह दुनिया में सैकड़ों तरह के नशे है। जो मानव मन पर

क्या कहेंगे लोग ? Kya kahenge log ?

क्या कहेंगे लोग? यह सबसे बड़ा रोग है । कवि ' मजबूर 'की यह पंक्तियां हैं। लोग क्या कहेंगे? यह सोचकर आदमी कुछ नहीं करता। लोग क्या कहेंगे ? यह सोचकर आदमी ना तो दिल खोल कर हंसता है और ना ही रोता है ,और अगर कुछ करता भी है तो यह सोच कर ही करता है कि अगर मैं ना करूंगा तो लोग क्या कहेंगे ? तो, आज का सबसे बड़ा रोग, क्या कहेंगे लोग ? आधुनिक युग की सबसे बड़ी बीमारी है। एक पढ़ा-लिखा नौजवान मंदिर और सत्संग आना चाहता है , धोती - दुपट्टा पहनकर श्री जी का अभिषेक और मुनि को आहार देना चाहता है मगर फिर वह यह सोच कर कि लोग क्या कहेंगे ? कुछ नहीं कर पाता। मैं कहता हूं - भाई! दुनिया तो यूं ही कहेगी और यूं भी कहेगी । दुनिया कहेगी। यह दुनिया बगैर कहे नहीं रहेगी। बचपन की एक कहानी से आपको समझाता हूं। बाप बेटे थे । गधे को लेकर गांव से शहर जा रहे थे ।गधा को साथ लिए पैदल चल रहे थे । गांव वालों ने उन्हें पैदल चलते देखा तो कहा - बड़े मूर्ख है । गधा पास में है और पैदल चल रहे हैं। बाप ने कहा - बेटा सुना ! यह लोग क्या कह रहे हैं ।बेटा बोला - हां पिताजी - आप गधे पर बैठ जाइए । बाप गधे पर बैठ गया । बेटा पै

डॉक्टर नहीं व्यापारी है। Dr nahi vyapari hai

एक व्यक्ति ने पूछा - गुरुजी ! दुनि या का सबसे बड़ा रोग कौन सा है ? दुनिया में तरह तरह के रोग हैं। खतरनाक रोग है। एक से बढ़कर एक रोग है। लाजवाब और लाइलाज रोग हैं। कैंसर है, ऐड्स है, हार्ट अटैक है, डायबिटीज है ,ब्रेन हेमरेज है, पैरालिसिस है, वगैरह । आजकल औषधियां बड़ी है, औषधियों के साथ रोग भी बड़े हैं। पहले मनुष्य सौ वर्षों तक जीता था । अब औसतन 60 से 70 साल से ज्यादा नहीं जीता। पहले पूरे शरीर का एक डॉक्टर होता था और अब एक एक अंग का अलग-अलग डॉक्टर है। आंख का डॉक्टर अलग, कान का डॉक्टर अलग होता है दिल का डॉक्टर अलग, दांत का डॉक्टर अलग, हड्डी का डॉक्टर अलग । आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति जोड़ती थी ।आज भी आयुर्वेदिक चिकित्सा में पूरे शरीर का एक ही डॉक्टर होता है। जिसे वैधजी कहा जाता है। एलोपैथिक चिकित्सा ने शरीर का बंटवारा करके बंटाधार कर दिया और आने वाले समय में तो अभी और भी बटवारा होगा। जब दायीं आंख का डॉक्टर अलग होगा और बायीं आंख का डॉक्टर अलग होगा । अभी तो केवल आई स्पेशलिस्ट होता है, और आने वाले समय में लेफ्ट आई स्पेशलिस्ट और राइट आई स्पेशलिस्ट होगा । इतना ही नहीं दांतों

चिंता चिता समान है। Chinta Chita Saman hai.

आशा ही दु:खदाई नहीं है ,चिंता भी दु:खदाई है । आज का आदमी चिंतन में नहीं, चिंता में जी रहा है ।चिंता चिता समान है। चिंताओं को उगल डालिए। चिंता जहर है, इससे दूर रहिए। चिंताओं को उगलने का एक सरल मार्ग तो यह है कि आप तमाम चिंताओं को लिख डालें और फिर उन्हें गौर से देखें तो सब चिंता ही निराधार लगेगी । चिंताओं से मुक्त होने का एक और रास्ता है। आप अपने निकटतम मित्र के पास बैठिए और मन की सारी चिंताएं उससे कह डालिए। इससे आपका दिल हल्का हो जाएगा। यह मत सोचिए जिसको आप अपनी चिंताएं बता रहे हैं, वह आप की खिल्ली उड़ाएगा और अगर खिली उड़ाता भी है तो उड़ाने दीजिए। खिल्ली भले ही उड़ जाए मगर चिंता मत पालिए। चिंता खिल्ली उडने से भी ज्यादा बुरी है। अपनी मन की बात कहने के लिए कोई न मिलता हो तो मंदिर ,मस्जिद, गुरुद्वारा और चर्च में जाकर अपने ईश्वर, आराध्य को सुना डालिए। श्री चरणों में सारी चिंताओं को डाल आइए। हर हाल में चिंताओं से अपने को दूर रखिए। चिंताएं तुम्हारे सिर पर बैठ गई तो फिर वह तुम्हें कभी खड़ा नहीं होने देंगी। चिंता भी एक खतरनाक रोग है।

संसार कीचड़ और तुम कमल । Sansar keechad aur Tum Kamal.

एक बार एक शिष्य ने गुरु से पूछा - गुरुजी ! विवाह करना कितना आवश्यक है । जरा आप मुझे बताइए गुरु जी ने कहा - ध्यान रखना - विवाह सर्वथा अछूत नहीं है । माना कि संसार कीचड़ है लेकिन ध्यान रखें, इसी कीचड़ में कमल खिलता है। दुनिया के अधिकतर महापुरुष, तीर्थंकर - पुरुष विवाहित थे। भारतीय संस्कृति में गृहस्थ जीवन को भी आश्रम का दर्जा दिया गया है । भारतीय मनीषा शुरू से ही इस बात की पक्षधर रही है कि जो लोग अपनी उर्जा को पूरी तरह से ध्यान - समाधि में नहीं लगा सकते, ऊर्जा का ऊध्वारोहण नहीं कर सकते वे लोग गृहस्थ जीवन में प्रवेश कर धर्म का निर्वाह करें। काम में भी राम की तलाश जारी रखें ,कीचड़ में कमल की साधना करें । कमल का कीचड़ में रहना और मनुष्य का संसार में रहना बुरा नहीं है । बुराई तो यह है कि कीचड़ कमल पर चढ़ आये और संसार हृदय में समा जाए । तुम कमल हो, तुम्हारा परिवार कमल की पंखुड़ियां है तथा संसार कीचड़ हैं। कीचड़ में कमल की तरह जी सके तो गृहस्थआश्रम भी किसी तपोवन से कम महत्वपूर्ण नहीं है। सभी कमल कीचड़ में ही खिलते हैं। राम ,कृष्ण, बुद्ध, महावीर इसी कीचड़ में खिले ।आचार्य कुंदकुंद - जिनसे

णमोकार और अहंकार - namokaar aur ahankaar

दरअसल जब हम किसी की सेवा करते हैं , चरण - वंदना करते हैं ,चरण दबाते हैं , तो इससे हमारा अहंकार टूटता है । ध्यान रखना - अहंकारी व्यक्ति न तो किसी को प्रणाम करता है और ना ही किसी की व्यक्ति की सेवा । सेवा से अहंकार टूटता है । किसी को नमन करने का अर्थ है - अहंकार से मुक्ति पाना । तुम किसी के हाथ तभी जोड़ सकते हो, जब थोड़ा-सा हम अहंकार छोड़ दो । किसी को साष्टांग प्रणाम तभी कर सकते हो, जब इससे भी ज्यादा अहंकार छोड़ दिया हो, और चरण धोकर गंधोदक ,चरणामृत तभी ले सकते हो जब पूर्णतया अंहकार से मुक्त हो गए हो । धर्म की यात्रा अहंकार से मुक्ति की यात्रा है। जैन धर्म का जो मौलिक मंत्र णमोकार है वह पृथ्वी पर दो चार गिने-चुने महत्वपूर्ण मंत्र हैं उनमें से एक है । णमोकार मंत्र में ' णमो 'अंहकार अरिहंताणं बाद में है। णमो कहते ही काम का टूटने लगता है और जब अंहकार टूटेगा तभी अरिहंताण अर्थात अरिहंत से साक्षात्कार होगा । इस पूरे मंत्र में पांच बार ' णमो ' शब्द का प्रयोग है, जो यह दर्शाता है कि पांच बार अहंकार पर चोट की गई है । अंहकार बहुत सख्त है । एक बार की चोट से नहीं टूटता है । इसे

धर्म ही सच्चा मित्र है। Dharma hi sucha Mitra hai

एक बार गुरु ने सत्संग समाप्त कर अपने शिष्यों से पूछा कि धन कुटुंब और धर्म में से सच्चा सहायक कौन है शिष्य ने सीधा उत्तर ना देकर एक कथा सुनाई। एक व्यक्ति था । उसके तीन मित्र थे । एक बहुत ही प्यारा, दूसरा थोड़ा कम प्यारा और तीसरे का तो सिर्फ परिचय भर था। वह व्यक्ति एक दिन बड़ी भारी मुसीबत में फंस गया।उसने सोचा कि मुसीबत में तो सिर्फ मित्र ही सहायता करते हैं सो मित्र की सहायता पाने के लिए मित्र के पास चल दिया। सर्वप्रथम सबसे प्यारा मित्र था उसके पास सहायता मांगने पहुंच गया। मित्र ने उसे राज दरबार तक भी साथ देने से इंकार कर दिया। दूसरा जो थोड़ा कम प्यारा मित्र था उस से सहायता मांगी पर उसने किसी और तरह से सहायता करनी चाहिए पर राज दरबार तक आना से इंकार कर दिया। अब जिस मित्र का सिर्फ परिचय भर था, व्यक्ति उस मित्र के पास गया । तीसरे मित्र ने मित्रता निभाई राज दरबार तक गया और मित्र को संकट से उबारा । शिष्य ने कहा - गुरु जी धन वह है, जिसे व्यक्ति अपना परम प्यारा मित्र समझता है, पर मरने के बाद वह एक कदम भी आगे साथ नहीं जाता है। कुटुंब वह दूसरा मित्र है, जो यथासंभव सहायता तो करता है ,प

युधिष्ठिर की राजपाट त्याग की शिक्षा । Yudhistir ki Rajpath Tyag ki ichha

महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था, कौरवो का संहार हो गया था। तब भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा , "धर्मराज ! युद्ध समाप्त हो गया है ,और साथ ही साथ धर्म की विजय हुई ।अधर्मीयो का नाश हुआ है, अब आप राज्याभिषेक की तैयारी करें राज्य की लगाम अपने हाथों में ले। युधिष्ठिर ने कहा प्रभु हजारों लाखो छत्रिय युवकों का रक्त बहा है। अपने कितने स्वजन इस युद्ध में स्वाहा हो गए हैं ,अब मुझे वैराग्य आ रहा है मुझे राज सिंहासन पर नहीं बैठना है । सोच रहा हूं कि थोड़े दिन गंगा किनारे चला जाऊं और एकांत में तपस्या करू, ध्यान भजन करू, प्रायश्चित करके अपने अंदर के कर्मों का नाश करू निर्मल होकर फिर शांति से राज करो। श्री कृष्ण मुस्कुराए," पांडु पुत्र फिर आप शांति से राज नहीं कर सकेंगे क्योंकि अब कलयुग का आगमन हो रहा है, उसके लक्षणों की झलक देखनी हो तो आप पांचों भाई अलग अलग दिशा में चले जाओ, वहां पांचों को आश्चर्य दिखाई देंगे आप लोग चले जाओ वहां से लौट आने पर इस विषय में शाम को बात करेंगे पांचो पांडव पांच दिशा में निकल गए । सर्वप्रथम युधिष्ठिर में दो सूंड वाला हाथी देखा उसे देखकर धर्मराज दंग

सत्संग की महिमा -satsang ki mahima

एक मजदूर था, और संतों का प्यारा था ,सत्संग का प्रेमी था, उसने एक प्रतिज्ञा की थी, कि जब भी किसी का सामान उठाएगा या उसकी मजुरी करेगा तब उस यजमान को वह सत्संग सुनाएगा या उस यजमान से वह सत्संग सुनगा । मजदूरी करने से पहले ही वह यह नियम सामने वाले यजमान को बता देता था और उसकी मंजूरी होने पर ही काम करता था। एक बार एक सेठ आया उसने सामान उठाने को कहा, मजदूर जल्दबाजी में अपना नियम भूल गया ,और सामान उठाकर सेठ के साथ चलने लगा, आधे रास्ते जाने के बाद मजदूर को अपना नियम याद आया तो उसने बीच रास्ते में ही सामान उतार कर रख दिया और सेठ से कहा - सेठ जी मेरा नियम है, कि आप मुझे सत्संग सुनाएं या मैं आपको सुनाउ तभी मैं सामान उठाउंगा । सेठ को जरा जल्दी थी इसीलिए सेठ ने कहा भाई तू ही सुना मैं सुनता हूं । मजदूर के अंदर छुपा संत जाग गया और सत्संग के प्रवचन धारा बहना शुरू हो गई। सफर सत्संग सुनते सुनते कट गया । सेठ के घर पहुंचते ही सेठ ने मजदूर का पैसा अदा कर दिया । मजदूर ने पूछा - क्यों सेठ जी ,सत्संग याद रहा । मैंने तो कुछ नहीं सुना, मुझे जल्दी थी, और आधे रास्ते आने के बाद में दूसरा मजदूर कहां खोजने जाऊ

निष्काम गुरु सेवा Nishkaam Guru Seva

वैदिक काल में सुभाष नाम का एक विद्यार्थी गुरुदेव के चरणों में विद्या अध्ययन करने गया। विद्या के साथ में पूरी तन्मयता के साथ में गुरु भक्ति में लग गया। ऐसी गुरु भक्ति की ऐसी गुरु सेवा की, कि गुरू के हृदय में बस गया। गुरु का हृदय जीत लिया। विद्या उपार्जन के बाद जब अपने घर जाने के लिए निकला गुरु जी ने कहा,"बेटा आपने मेरा दिल जीत लिया है, पर हम तो साधारण साधु हैं।हमारे पास धन-दौलत राज्य सत्ता कुछ नहीं है अब तुझे क्या दूं बेटा जिससे तेरा कल्याण हो जाए ऐसा कहते हुए उन्होंने अपनी छाती का एक बाल उखाड़ कर उसे देते हुए कहा - बेटा ले इसे प्रसाद समझकर संभाल के रख ले। जब तक यह तेरे पास रहेगा धन - वैभव - संपत्ति -लक्ष्मी की कोई कमी नहीं रहेगी। गुरुदेव," आपने मुझे पहले ही सब कुछ दे दिया है।" वह तो है ! फिर भी मेरी खुशी के लिए रख ले। सुभाष ने खूब आदर पूर्वक बाल को रख लिया।उसकी सेवा पूजा करता था। घर में सुख शांति समृद्धि का वास हो गया वह धनवान हो गया उसकी ख्याति चारों तरफ फैल ने लग गई। सुभाष के पड़ोसी ने देखा और सोचा यह भी विद्या ग्रहण करके आया है , और मैं भी विद्या ग्रहण करके आय

जीतने में जो आनंद नहीं - वह जिताने में है । - Jeetne main woh anand nahi jo jitaane main hai

खरगोश कछुए के पास आया और उससे एक बार फिर दौड़ने की प्रतियोगिता करने को कहा । उसने कहा कि उसके एक पूर्वज ने पहले दौड में हारकर उनकी बिरादरी का नाम नीचा कर दिया था । वह उस दौड को जीतकर नई पीढ़ी का नाम रौशन करना चाहता था । कछुआ तैयार हो गया । निश्चित दिन और समय पर जंगल के राजा शेर ने दौड़ शुरू करवाई । खरगोश ने दौड़कर लगभग पूरा रास्ता मिनटों में पार कर लिया । वह अंतिम रेखा से केवल सौ कदम दूर था । वह सांस लेने के लिए रुका । उसने सोचा कि वह कछुए को देखते ही दौड़ पूरी कर लेगा । लेकिन रुकने पर उसकी नींद लग गई । कोई पन्द्रह मिनट के बाद ,कछुआ वहां पहुंचा। खरगोश के पास पहुंचकर कछुआ कुछ देर रुका और सोचा... फिर उसने खरगोश को नींद से जगाया और बोलो," तुम क्या कर रहे हो ? क्या तुम्हें तुम्हारे पूर्वज द्वारा तुम्हारी बिरादरी का नाम नीचा कर देना याद नही ? क्या तुम्हें नही पता कि तुम्हारे यहां सोने से हमारी नई पीढ़ी को कितनी समय शर्मिन्दगी उठानी पड़ेगी ? उठो, और बाकी दौड़ पूरी करो । मैं भी आता हूं।" खरगोश अचरज में पड़ गया । उसने कहा," फिर कुछ, जब तुम खुद दौड़ जीत सकते थे, तो तुमने मु

दुनिया की दस चंचल चीजें । Duniya ki Das Chanchal chinjhe.

असली समस्या मन है। इंद्रियां तो केवल स्विच है, मेन-स्विच तो मन ही है। जब कभी भी कोई विश्वामित्र अपनी तपस्या और साधना से फिसलता और गिरता है तो इसके लिए दोष हमेशा मेनका को दिया जाता है जबकि दोष ' मेनका' का नहीं, आदमी के ' मन- का 'है कोई भी आदमी मेनका के आकर्षण की वजह से नहीं, अपितु अपने मन की कमजोरी की वजह से गिरता है। मन बड़ा खतरनाक है। दुनिया से 10 चीजें चंचल है दस मकार चंचल है। आदमी का मन , मधुकर (भंवरा ),मेघ, मानिनी (स्त्री ),मदन (कामदेव), मरुत (हवा) मर्कट (बंदर), मां (लक्ष्मी), मद (अभिमान), मत्स्य - यह दस चीजें दुनिया में चंचल है, और इनमें भी आदमी का मन सर्वाधिक चंचल है । इस मन को समझना, समझाना बडी टेढ़ी खीर है। पल- पल में बदलता है, क्षण- क्षण में फिसलता है । एक पल में एवरेस्ट की चोटी पर चढ़ जाता है और अगले ही पल बंगाल की खाड़ी में उतर जाता है। आदमी का मन चंचल है। मन हमेशा नशे में रहता है । मन पर कई तरह का नशा चढ़ा है पद का नशा, ज्ञान का नशा, पैसे का नशा, प्रतिष्ठा का नशा, शक्ति का नशा, रूप का नशा, इस तरह दुनिया में सैकड़ों तरह के नशे है। जो मानव मन पर सवार

क्या कहेंगे लोग ? Kya kahenge log ?

क्या कहेंगे लोग? यह सबसे बड़ा रोग है । कवि ' मजबूर 'की यह पंक्तियां हैं। लोग क्या कहेंगे? यह सोचकर आदमी कुछ नहीं करता। लोग क्या कहेंगे ? यह सोचकर आदमी ना तो दिल खोल कर हंसता है और ना ही रोता है ,और अगर कुछ करता भी है तो यह सोच कर ही करता है कि अगर मैं ना करूंगा तो लोग क्या कहेंगे ? तो, आज का सबसे बड़ा रोग, क्या कहेंगे लोग ? आधुनिक युग की सबसे बड़ी बीमारी है। एक पढ़ा-लिखा नौजवान मंदिर और सत्संग आना चाहता है , धोती - दुपट्टा पहनकर श्री जी का अभिषेक और मुनि को आहार देना चाहता है मगर फिर वह यह सोच कर कि लोग क्या कहेंगे ? कुछ नहीं कर पाता। मैं कहता हूं - भाई! दुनिया तो यूं ही कहेगी और यूं भी कहेगी । दुनिया कहेगी। यह दुनिया बगैर कहे नहीं रहेगी। बचपन की एक कहानी से आपको समझाता हूं। बाप बेटे थे । गधे को लेकर गांव से शहर जा रहे थे ।गधा को साथ लिए पैदल चल रहे थे । गांव वालों ने उन्हें पैदल चलते देखा तो कहा - बड़े मूर्ख है । गधा पास में है और पैदल चल रहे हैं। बाप ने कहा - बेटा सुना ! यह लोग क्या कह रहे हैं ।बेटा बोला - हां पिताजी - आप गधे पर बैठ जाइए । बाप गधे पर बैठ गया । बेटा पैदल चल

डॉक्टर नहीं व्यापारी है। Dr nahi vyapari hai .

एक व्यक्ति ने पूछा - गुरुजी ! दुनि या का सबसे बड़ा रोग कौन सा है ? दुनिया में तरह तरह के रोग हैं। खतरनाक रोग है। एक से बढ़कर एक रोग है। लाजवाब और लाइलाज रोग हैं। कैंसर है, ऐड्स है, हार्ट अटैक है, डायबिटीज है ,ब्रेन हेमरेज है, पैरालिसिस है, वगैरह । आजकल औषधियां बड़ी है, औषधियों के साथ रोग भी बड़े हैं। पहले मनुष्य सौ वर्षों तक जीता था । अब औसतन 60 से 70 साल से ज्यादा नहीं जीता। पहले पूरे शरीर का एक डॉक्टर होता था और अब एक एक अंग का अलग-अलग डॉक्टर है। आंख का डॉक्टर अलग, कान का डॉक्टर अलग होता है दिल का डॉक्टर अलग, दांत का डॉक्टर अलग, हड्डी का डॉक्टर अलग । आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति जोड़ती थी ।आज भी आयुर्वेदिक चिकित्सा में पूरे शरीर का एक ही डॉक्टर होता है। जिसे वैधजी कहा जाता है। एलोपैथिक चिकित्सा ने शरीर का बंटवारा करके बंटाधार कर दिया और आने वाले समय में तो अभी और भी बटवारा होगा। जब दायीं आंख का डॉक्टर अलग होगा और बायीं आंख का डॉक्टर अलग होगा । अभी तो केवल आई स्पेशलिस्ट होता है, और आने वाले समय में लेफ्ट आई स्पेशलिस्ट और राइट आई स्पेशलिस्ट होगा । इतना ही नहीं दांतों का मामला जब

चिंता चिता समान है। Chinta Chita Saman hai.

आशा ही दु:खदाई नहीं है ,चिंता भी दु:खदाई है । आज का आदमी चिंतन में नहीं, चिंता में जी रहा है ।चिंता चिता समान है। चिंताओं को उगल डालिए। चिंता जहर है, इससे दूर रहिए। चिंताओं को उगलने का एक सरल मार्ग तो यह है कि आप तमाम चिंताओं को लिख डालें और फिर उन्हें गौर से देखें तो सब चिंता ही निराधार लगेगी । चिंताओं से मुक्त होने का एक और रास्ता है। आप अपने निकटतम मित्र के पास बैठिए और मन की सारी चिंताएं उससे कह डालिए। इससे आपका दिल हल्का हो जाएगा। यह मत सोचिए जिसको आप अपनी चिंताएं बता रहे हैं, वह आप की खिल्ली उड़ाएगा और अगर खिली उड़ाता भी है तो उड़ाने दीजिए। खिल्ली भले ही उड़ जाए मगर चिंता मत पालिए। चिंता खिल्ली उडने से भी ज्यादा बुरी है। अपनी मन की बात कहने के लिए कोई न मिलता हो तो मंदिर ,मस्जिद, गुरुद्वारा और चर्च में जाकर अपने ईश्वर, आराध्य को सुना डालिए। श्री चरणों में सारी चिंताओं को डाल आइए। हर हाल में चिंताओं से अपने को दूर रखिए। चिंताएं तुम्हारे सिर पर बैठ गई तो फिर वह तुम्हें कभी खड़ा नहीं होने देंगी। चिंता भी एक खतरनाक रोग है।

संसार कीचड़ और तुम कमल । Sansar keechad aur Tum Kamal.

एक बार एक शिष्य ने गुरु से पूछा - गुरुजी ! विवाह करना कितना आवश्यक है । जरा आप मुझे बताइए गुरु जी ने कहा - ध्यान रखना - विवाह सर्वथा अछूत नहीं है । माना कि संसार कीचड़ है लेकिन ध्यान रखें, इसी कीचड़ में कमल खिलता है। दुनिया के अधिकतर महापुरुष, तीर्थंकर - पुरुष विवाहित थे। भारतीय संस्कृति में गृहस्थ जीवन को भी आश्रम का दर्जा दिया गया है । भारतीय मनीषा शुरू से ही इस बात की पक्षधर रही है कि जो लोग अपनी उर्जा को पूरी तरह से ध्यान - समाधि में नहीं लगा सकते, ऊर्जा का ऊध्वारोहण नहीं कर सकते वे लोग गृहस्थ जीवन में प्रवेश कर धर्म का निर्वाह करें। काम में भी राम की तलाश जारी रखें ,कीचड़ में कमल की साधना करें । कमल का कीचड़ में रहना और मनुष्य का संसार में रहना बुरा नहीं है । बुराई तो यह है कि कीचड़ कमल पर चढ़ आये और संसार हृदय में समा जाए । तुम कमल हो, तुम्हारा परिवार कमल की पंखुड़ियां है तथा संसार कीचड़ हैं। कीचड़ में कमल की तरह जी सके तो गृहस्थआश्रम भी किसी तपोवन से कम महत्वपूर्ण नहीं है। सभी कमल कीचड़ में ही खिलते हैं। राम ,कृष्ण, बुद्ध, महावीर इसी कीचड़ में खिले ।आचार्य कुंदकुंद - जिनसेन इसी

णमोकार और अहंकार - namokaar aur ahankaar

दरअसल जब हम किसी की सेवा करते हैं , चरण - वंदना करते हैं ,चरण दबाते हैं , तो इससे हमारा अहंकार टूटता है । ध्यान रखना - अहंकारी व्यक्ति न तो किसी को प्रणाम करता है और ना ही किसी की व्यक्ति की सेवा । सेवा से अहंकार टूटता है । किसी को नमन करने का अर्थ है - अहंकार से मुक्ति पाना । तुम किसी के हाथ तभी जोड़ सकते हो, जब थोड़ा-सा हम अहंकार छोड़ दो । किसी को साष्टांग प्रणाम तभी कर सकते हो, जब इससे भी ज्यादा अहंकार छोड़ दिया हो, और चरण धोकर गंधोदक ,चरणामृत तभी ले सकते हो जब पूर्णतया अंहकार से मुक्त हो गए हो । धर्म की यात्रा अहंकार से मुक्ति की यात्रा है। जैन धर्म का जो मौलिक मंत्र णमोकार है वह पृथ्वी पर दो चार गिने-चुने महत्वपूर्ण मंत्र हैं उनमें से एक है । णमोकार मंत्र में ' णमो 'अंहकार अरिहंताणं बाद में है। णमो कहते ही काम का टूटने लगता है और जब अंहकार टूटेगा तभी अरिहंताण अर्थात अरिहंत से साक्षात्कार होगा । इस पूरे मंत्र में पांच बार ' णमो ' शब्द का प्रयोग है, जो यह दर्शाता है कि पांच बार अहंकार पर चोट की गई है । अंहकार बहुत सख्त है । एक बार की चोट से नहीं टूटता है । इसे तोड़

धर्म ही सच्चा मित्र है। Dharma hi sucha Mitra hai.

एक बार गुरु ने सत्संग समाप्त कर अपने शिष्यों से पूछा कि धन कुटुंब और धर्म में से सच्चा सहायक कौन है शिष्य ने सीधा उत्तर ना देकर एक कथा सुनाई। एक व्यक्ति था । उसके तीन मित्र थे । एक बहुत ही प्यारा, दूसरा थोड़ा कम प्यारा और तीसरे का तो सिर्फ परिचय भर था। वह व्यक्ति एक दिन बड़ी भारी मुसीबत में फंस गया।उसने सोचा कि मुसीबत में तो सिर्फ मित्र ही सहायता करते हैं सो मित्र की सहायता पाने के लिए मित्र के पास चल दिया। सर्वप्रथम सबसे प्यारा मित्र था उसके पास सहायता मांगने पहुंच गया। मित्र ने उसे राज दरबार तक भी साथ देने से इंकार कर दिया। दूसरा जो थोड़ा कम प्यारा मित्र था उस से सहायता मांगी पर उसने किसी और तरह से सहायता करनी चाहिए पर राज दरबार तक आना से इंकार कर दिया। अब जिस मित्र का सिर्फ परिचय भर था, व्यक्ति उस मित्र के पास गया । तीसरे मित्र ने मित्रता निभाई राज दरबार तक गया और मित्र को संकट से उबारा । शिष्य ने कहा - गुरु जी धन वह है, जिसे व्यक्ति अपना परम प्यारा मित्र समझता है, पर मरने के बाद वह एक कदम भी आगे साथ नहीं जाता है। कुटुंब वह दूसरा मित्र है, जो यथासंभव सहायता तो करता है ,पर उसका सहयोग