Skip to main content

Posts

Showing posts from June, 2020

व्यर्थ की वस्तुओं का मोह नहीं बल्कि जीवन में संतुष्टि होनी चाहिए। Vyarth ki vastuon ka moh Nahin balki jivan mein santushti honi chahie.

एक समय राजा मान सिंह प्रसिद्ध कवि कुंभनदास के दर्शन के लिए वेश बदलकर उनके घर पहुंचे। उस समय कुंभनदास अपनी बेटी को आवाज लगाते हुए कह रहे थे , ' बेटी , जरा दर्पण तो लाना , मुझे तिलक लगाना है। ' बेटी जब दर्पण लाने लगी तो वह नीचे गिरकर टूट गया। यह देखकर कुंभनदास बोले , ' कोई बात नहीं , किसी बर्तन में जल भर लाओ। ' राजा , कुंभनदास के पास बैठकर बातें करने लगे और बेटी एक टूटे हुए घड़े में पानी भरकर ले आई। जल की छाया में अपना चेहरा देखकर कुंभनदास ने तिलक लगा लिया।यह देखकर राजा दंग रह गए। वह कुंभनदास से अत्यंत प्रभावित हुए। राजा यह सोचकर प्रसन्न थे कि कवि कुंभनदास उन्हें पहचान नहीं पाए हैं। राजा वहां से चले गए। अगले दिन वह एक स्वर्ण जड़ित दर्पण लेकर कवि के पास पहुंचे और बोले , ' कविराज , आपकी सेवा में यह तुच्छ भेंट अर्पित है। कृपया इसे स्वीकार कीजिए। ' कुंभनदास विनम्रतापूर्वक बोले , ' महाराज आप! अच्छा तो कल वेश बदलकर आप ही हम से मिलने आए थे। कोई बात नहीं। हमें आपसे मिलकर बहुत अच्छा लगा। पर एक विनंती है। ' राजा ने पूछा , ' क्या कविराज ? ' कु

वह तुम तक लौट के आएगा …. vah tum tak laut ke aaega.....

एक औरत अपने परिवार के सदस्यों के लिए रोजाना भोजन पकाती थी और एक रोटी वह वहां से गुजरने वाले किसी भी भूखे के लिए पकाती थी। वह उस रोटी को खिड़की के सहारे रख दिया करती थी जिसे कोई भी ले सकता था। एक कुबड़ा व्यक्ति रोज उस रोटी को ले जाता और बिना धन्यवाद देने के अपने रास्ते पर चलता हुआ वह कुछ इस तरह बडबडाता " जो तुम बुरा करोगे वह तुम्हारे साथ रहेगा और जो तुम अच्छा करोगे वह तुम तक लौट के आएगा ।" दिन गुजरते गए और ये सिलसिला चलता रहा , वो कुबड़ा रोज रोटी ले जाता रहा और इन्ही शब्दों को बडबडाता रहा । " जो तुम बुरा करोगे वह तुम्हारे साथ रहेगा और जो तुम अच्छा करोगे वह तुम तक लौट के आएगा । " वह औरत उसकी इस हरकत से तंग आ गयी और मन ही मन खुद से कहने लगी कि " कितना अजीब व्यक्ति है , एक शब्द धन्यवाद का तो देता नहीं है और न जाने क्या क्या बडबडाता रहता है। मतलब क्या है इसका। " एक दिन क्रोधित होकर उसने एक निर्णय लिया और बोली &

सबका भला तो अपना भला sabka bhala to apna bhala

विराट राज्य की एकमात्र तथा रूपवती राजकन्या रत्नावती के विवाह हेतु महाराज इन्द्रजीत ने चार राजकुमारों का चयन किया था। अंतिम परीक्षा यह थी की जो राजपुत्र राजकन्या रत्नावती के साथ भोजन करेगा उसके साथ राजकन्या का विवाह होगा और उसे ही विराट राज्य का उत्तराधिकारी घोषित किया जायेगा। प्रथम राजकुमार रत्नावती से मिलने आये। परिचय बातचीत के पश्चात् भोजन के लिये बैठे। सामन्य रूप से बढ़िया भोज चल रहा था। राजपुत्र समझ ही नहीं पा रहे थे की भोजन पूरा करने में कठिनाई क्या हो सकती है ? उसी समय बगल वाले कक्ष से चार भयानक खूंखार कुत्ते राजकुमार की और दौड़ पड़े। अनापेक्षित रूप से कुत्तों का आक्रमण देखकर राजपुत्र की स्थिती डर के कारण दयनीय हो गयी। भोजन करना तो दूर ही रहा लेकिन अपनी जान बचाने की सोचने लगे अर्थात राजपुत्र ने अपनी हार मान ली। अन्य दो राजपुत्र के साथ भी यहीं हुआ। चौथे राजपुत्र सूर्यसेन भोजन पर बैठे । भोजन शुरू हुआ , निश्चित समय पर कुत्तो ने कक्ष मे प्रवेश किया लेकिन सूर्यसेन ने शांति से अपना भोजन शुरू रखा। राजकन्या रत्नावती , इन्द्रजीत महाराज भी देखते रहे। चारो खूंखार कुत्ते जैसे

क्रोध में लिया गया निर्णय भविष्य में गलत ही साबित होता है। Krodh mein liya Gaya nirnay bhavishya mein galat hi sabit hota hai.

महर्षि दधिचि के पुत्र का नाम था पिप्लाद , क्योंकि वह सिर्फ पीपल का फल ही खाया करते थे। इसलिए उन्हें पिप्लाद के नाम से पुकारा जाता था। दरअसल , अपने पिता की तरह पिप्लाद भी बहुत तेजवान और तपस्वी थे। जब पिप्लाद को यह पता चला कि देवताओं को अस्थि - दान देने के कारण उनके पिता की मृत्यु हो गई , तो उन्हें बहुत दु:ख हुआ। आगबबूला होकर उन्होंने देवताओं से बदला लेने का निश्चय किया। यही सोचकर वह शंकर भगवान को खुश करने के लिए उनकी तपस्या करने लगा। उनकी तपस्या से आखिर शंकर भगवान खुश हुए और पिप्लाद से वरदान मांगने को कहा। पिप्लाद ने कहा – भगवन मुझे ऐसी शक्ति दो , जिससे मैं देवताओं से अपने पिता की मृत्यु का बदला ले सकूं। भगवान शंकर तथास्तु कहकर अंर्तध्यान हो गए। उनके अंर्तध्यान होने के तुरंत बाद वहां एक काली कलूटी लाल - लाल आंखों वाली राक्षसी प्रकट हुई। उसने पिप्लाद से पूछा , स्वामी आज्ञा दीजिए मुझे क्या करना है। पिप्लाद ने गुस्से में कहा , सभी देवताओं को मार डालो। आदेश मिलते ही राक्षसी पिप्लाद की तरफ झपट पड़ी। पिप्लाद अचंभित हो चीख पड़े , यह क्या कर रही हो। इस पर राक्षसी ने कहा , स्वामी अभी -

सुख-शांति देने वाले होते हैं आशीर्वाद sukh - shanti Dene Wale hote hain aashirwad.

विद्वानों , तपस्वियों और प्रशस्त आप्तजनों से ईष्टसिद्धि के लिए शक्ति और कल्याण के लिए आशीर्वाद प्राप्त करना , भारत की एक पुरानी परंपरा है। आशीर्वाद एक प्रकार की शुभ कल्पना है। जैसे बुरे विचार का एक वातावरण दूर - दूर तक फैलता है , वैसे ही शुभ भावना की गुप्त विचार तरंगेें दूर - दूर तक फैलती हैं और मनुष्य को तीव्रता से प्रभावित करती हैं। भलाई चाहने वाला यदि पुष्ट मस्तिष्क का व्यक्ति होता है , तो उसका गुप्त प्रभाव और भी तेज रहता है। विद्वानों , तपस्वियों तथा प्रशस्त आप्तजनों का जीवन नि:स्वार्थ होता है। वे समाज का हित चिंतन ही किया करते हैं। मन और वचन से सबकी भलाई ही चाहते हैं। उन्हें किसी से व्यक्तिगत लाभ नहीं उठाना होता। इसलिए उनका शक्तिशाली मस्तिष्क प्रबल विचार तरंगें फेंका करता है। वे सबके विषय में शुभ कल्पनाएं ही किया करते हैं। फलस्वरूप उनके आशीर्वाद में अद्भुत फलदायिनी शक्ति होती है। आशीर्वाद में मन की उज्जवलता , शुभचिंतन , शुभकल्पना ही फलदायक होती है। जिसका मन उज्जवल विचारों से परिपूर्ण है , वह सर्वत्र प्रकाश ही प्रकाश फैलाएगा। उससे आशा और उत्साह ही बढ़ेंगे। आशीर्वाद पाकर हमारा चेहरा

त्याग बिना यज्ञ का पुण्य भी व्यर्थ होता है। Tyag Bina yagya ka punya bhi vyarth hota hai.

एक बार का पुराना प्रसंग है। चारों ओर सूखा पडा था। अकाल था। कुछ खाने को नहीं मिल रहा था। एक परिवार को कई दिन इसी प्रकार भुखमरी मैं काटने पड़े। परिवार के लोग आसन्न - मरण बन गये। एक दिन उन्हें जौ का आटा मिला। परिवार ने सोचा , इसकी पांच रोटियां बनाएंगे। चारों एक - एक खा लेंगे। पांचवी , भगवान को अर्पण करेंगें। रोटियां बनीं। वे भोजन प्रारंभ करने जा रहे थे कि एक बुभुक्षित की आवाज सुनी। देखा - एक नरकंकाल खड़ा था। गृहस्वामी ने उसे अपनी रोटी दे दी। पर उसकी क्षुधा शांत नहीं हुई। उसने और रोटी मांगी तो पत्नी ने , फिर पुत्र ने और अंत में पुत्रवधू ने भी अपनी रोटी दे दी। चारों ने अपने हिस्से की रोटी दी। वह तृप्त होकर चला गया। खाने की वस्तु सामने थी , पर उसे दूसरे की भूख मिटाने के लिये देकर , वे चारों संतोष से मर गये। कहते हैं , कुछ समय बाद वहां एक नेवला आया। उसके शरीर में वहां गिरे कुछ दाने लग गये। उससे उसका आधा शरीर स्वर्णमय हो गया। उसी समय आकाशवाणी हुई , “ ऐसी धूलि और कहीं मिले तो उसका शेष शरीर भी सुवर्णमय हो जावेगा। ” पर वैसा नहीं हो पाया। आखिर वह नेवला , उस स्थान पर गया जहां युधिष्ठिर , अपने

रोगियों और बच्चों को कष्ट से राहत देना ही प्रभु की सच्ची प्रार्थना है। Rogiyon aur bacchon ko kasht se rahat dena he Prabhu ki sacchi prathna hai.

एक पुजारी थे। लोग उन्हें अत्यंत श्रद्धा एवं भक्ति - भाव से देखते थे। पुजारी प्रतिदिन सुबह मंदिर जाते और दिन भर वहीं यानी मंदिर में रहते। सुबह से ही लोग उनके पास प्रार्थना के लिए आने लगते। जब कुछ लोग इकट्ठे हो जाते , तब मंदिर में सामूहिक प्रार्थना होती। जब प्रार्थना संपन्न हो जाती , तब पुजारी लोगों को अपना उपदेश देते। उसी नगर एक गाड़ीवान था। वह सुबह से शाम तक अपने काम में लगा रहता। इसी से उसकी रोजी - रोटी चलती। यह सोच कर उसके मन में बहुत दु:ख होता कि मैँ हमेशा अपना पेट पालने के लिए काम धंधे में लगा रहता हूँ , जबकि लोग मंदिर में जाते है और प्रार्थना करते हैं। मुझ जैसा पापी शायद ही कोई इस संसार में हो। मारे आत्मग्लानि के गाड़ीवान ने पुजारी के पास पहुंचकर अपना दु:ख जताया। ' पुजारी जी! मैं आपसे यह पूछने आया हूँ कि क्या मैं अपना यह काम छोड़ कर नियमित मंदिर में प्रार्थना के लिए आना आरंभ कर दूँ। ' पुजारी ने गाड़ीवान की बात गंभीरता से सुनी। उन्होंने गाड़ीवान से पूछा ,' अच्छा , तुम यह बताओ कि तुम गाड़ी में सुबह से शाम तक लोगों को एक गांव से दूसरे गांव तक पहुंचाते हो। क्या कभी ऐसे

कोरा वाक्य - ज्ञान निरर्थक होता है ‌ kora vakya - gyan nirarthak hota hai.

रामकृष्ण परमहंस के एक शिष्य थे। उनको श्री ठाकुर ने कहा कि प्रत्येक जीव में नारायण का ही वास है। शिष्य ने इस वाक्य को मन में रख लिया। एक समय एक छोटे से रास्ते पर चलते समय सामने से एक हाथी आता हुआ उसने देखा ! उस हाथीपर बैठा महावत चिल्लाकर पादचारी लोगों को समझा रहा था कि “ हाथी पागल है , मेरे काबू में नहीं है , रास्ते से हट जाओ। ” शिष्य को प्राणी मात्र में नारायण है , इतनी बात याद थी। हाथी में भी नारायण का वास मानकर उसने उस मस्त हाथी के सामने साष्टांग नमस्कार किया। हाथी पागल तो था ही , उसने अपनी सूंड से उस शिष्य को उठाकर फैंक दिया। शिष्य को बहुत चोट आयी। ऐसी अवस्था में उसने रामकृष्ण के पास जाकर संपूर्ण किस्सा निवेदन किया और कहा , “ आपने मुझे सत्य नहीं बताया। यदि मुझ में और हाथी में नारायण का ही वास है , तो उस हाथीने मुझे क्यों फैक दिया ? ” रामकृष्ण ने पूछा , “ हाथी अकेला था या उसपर कोई बैठा था ? और बैठनेवाला चुपचाप था या कुछ बोलता था ? ” शिष्यने उत्तर दिया , “हाथी पर महावत बैठा था और चिल्लाकर कह रहा था कि हाथी पागल है , मेरे काबू में नहीं है। पादचारी रास्ते से हट जाये। ” रामकृ

छोटी बुराई , बड़ी बुराई के लिए रास्ता खोलती है। Chhoti burai , badi burai ke liye rasta kholti hai.

नौशेरवां ईरान का बड़ा ही न्यायप्रिय बादशाह था। छोटी सी छोटी चीजों में भी न्याय की तुला उसके हाथ में रहती थी। सबसे अधिक ध्यान वह अपने आचरण पर रखता था। एक बार बादशाह जंगल की सैर करने गया। उसके साथ कुछ नौकर चाकर भी थे। घूमते - घूमते वह शहर से काफी दूर निकल आए। इस बीच बादशाह को भूख लगी। बादशाह ने सेवकों से कहा कि यहीं भोजन बनाने की व्यवस्था की जाए। खाना वहीं तैयार किया गया। बादशाह जब खाना खाने बैठा तो उसे सब्जी में नमक कम लगा। उसने अपने सेवकों से कहा कि जाओ और गांव से नमक लेकर आओ। दो कदम पर गांव था। एक नौकर जाने को हुआ तो बादशाह ने कहा , ' देखो जितना नमक लाओ , उतना पैसा दे आना। ' नौकर ने यह सुना तो बादशाह की ओर देखा। बोला , ' सरकार नमक जैसी चीज के लिए कौन पैसा लेगा आप उसकी फिक्र क्यों करते हैं ? ' बादशाह ने कहा , ' नहीं तुम उसे पैसे देकर आना। ' नौकर बड़े आदर से बोला , ' हुजूर , जो आपको नमक देगा , उसके लिए कोई फर्क नहीं पड़ेगा , उल्टे खुशी होगी कि वह अपने बादशाह की सेवा में अपना अमूल्य योगदान दे रहा है। ' तब बादशाह बोला , ' यह मत भूलो की छोटी चीजों से ही

गुरु ने शिष्य को आत्मा का साक्षात्कार करवाया । Guru ne shishya ko aatma ka sakshatkar karvaya.

एक शिष्य अपने आचार्य से आत्मसाक्षात्कार का उपाय पूछा। पहले तो उन्होंने समझाया बेटा यह कठिन मार्ग है , कष्ट क्रियाएँ करनी पड़ती हैं। तू कठिन साधनाएँ नहीं कर सकेगा , पर जब उन्होंने देखा कि शिष्य मानता नहीं तो उन्होंने एक वर्ष तक एकांत में गायत्री मंत्र का निष्काम जाप करके अंतिम दिन आने का आदेश दिया। शिष्य ने वही किया। वर्ष पूरा होने के दिन आचार्य ने झाड़ू देने वाली स्त्री से कहा कि अमुक शिष्य आवे तब उस पर झाड़ू से धूल उड़ा देना। स्त्री ने वैसा ही किया। साधक क्रोध में उसे मारने दौड़ा , पर वह भाग गई। वह पुनः स्नान करके आचार्य - सेवा में उपस्थित हुआ। आचार्य ने कहा - अभी तो तुम साँप की तरह काटने दौड़ते हो , अतः एक वर्ष और साधना करो। ’’ साधक को क्रोध तो आया परंतु उसके मन में किसी न किसी प्रकार आत्मा के दर्शन तीव्र लगन थी , अतएव गुरु की आज्ञा समझकर चला गया। दूसरा वर्ष पूरा होने पर आचार्य ने झाड़ू लगाने वाले स्त्री से उस व्यक्ति के आने पर झाड़ू छुआ देने को कहा। जब वह आया तो उस स्त्री ने वैसा ही किया। परंतु इस बार वह कुछ गालियाँ देकर ही स्नान करने चला गया और फिर आचार्य जी के

आसक्ति ही आत्मज्ञान का बंधन है। Aasakti he aatm gyan Ka Bandhan hai.

काकभुसुण्डि जी के मन में एक बार यह जानने की इच्छा हुई कि क्या संसार में ऐसा भी कोई दीर्घजीवी व्यक्ति है , जो विद्वान भी हो पर उसे आत्मज्ञान न हुआ हो ? इस बात का पता लगाने के लिए महर्षि वशिष्ठ से आज्ञा लेकर निकल पड़े। ग्राम ढूँढ़ा , नगर ढूँढ़े वन और कंदराओं की खाक छानी तब कहीं जाकर विद्याधर नामक ब्राह्मण से भेंट हुई , पूछने पर मालूम हुआ कि उनकी आयु चार कल्प की हो चुकी है और उन्होंने वेद शास्त्र का परिपूर्ण अध्ययन किया है। शास्त्रों के श्लोक उन्हें ऐसे कंठस्थ थे , जैसे तोते को राम नाम। किसी भी शंका का समाधान वे मजे से कर देते थे। काकभुसुण्डि जी को उनसे मिलकर बड़ी प्रसन्नता हुई , किंतु उन्हें बड़ा आश्चर्य यह था कि इतने विद्वान होने पर भी विद्याधर को लोग आत्मज्ञानी क्यों नहीं कहते। यह जाने के लिए काकभुसुण्डि जी चुपचाप विद्याधर के पीछे घूमने लगे। विद्याधर एक दिन नीलगिरी पर्वत पर वन - विहार का आनंद ले रहे थे , तभी उन्हें कण्वद की राजकन्या आती दिखाई दी , नारी के सौंदर्य से विमोहित विद्याधर प्रकृति के उन्मुक्त आनंद को भूल गए , कामावेश ने उन्हें इस तरह दीन कर दिया जैसे मणिहीन सर्प। वे

हमें जो अधिकार मिले हैं उन्हें अपना कर्तव्य समझकर पालन करें। Hamen Jo adhikar mile hain unhen apna kartavya samajhkar palan Karen.

दया , करुणा , प्रेम , वात्सल्य  , धर्म का एक स्वरूप है। ईश्वर की प्रतिष्ठा मन मंदिर में तब ही होगी   -   जब हमारे हृदय में दया , करुणा , प्रेम एवं वात्सल्य का वास होगा। संत तुलसीदास जी ने मानस चिंतन कर लिखा -      दया धर्म का मूल है ,पाप मूल अभिमान। तुलसी दया न छोड़िये,जब लग घट में प्राण। अहिंसा परमो धर्म -  हिंसा के आगे ' आ ' लगा दो तो अहिंसा शब्द बना। अभिमान से जुड़े हृदय में हिंसा उत्पन्न होती है जो स्थूल हिंसा से भी ज्यादा खतरनाक है। धर्मस्थलों में अभिमान की लड़ाई  चलती है तो वे धर्मस्थल दूषित हो जाते हैं। भरत चक्रवर्ती इस युग के प्रथम राजपूत्र थै -  चक्रवर्ती दिग्विजय कर तमिस्त्रा गुफा में अपना नाम लिखने पहुंचे भरतजी के मन में चक्रवर्ती होने का गर्व था। गुफा में जाकर देखा उनसे पहले कई चक्रवर्ती अपना नाम इतिहास में दर्ज करा चुके थे। वहां कोई भी स्थान खाली नहीं था , यह देख वो स्थान ढूंढने लगे । तभी गुफारक्षक देव ने उपस्थित होकर भरतजी से कहा किसी का नाम मिटा दो और खाली जगह पर अपना नाम लिख दो। भरतजी ने कहा ऐसा कैसे हो सकता है ? देव ने कहा -   ऐसे ही होता चला आया है। तुम से पहल

चंचलता से बुद्धि का नाश होता है। Chanchalta se buddhi ka Nash hota hai.

किसी तालाब में कम्बुग्रीव नामक एक कछुआ रहता था। तालाब के किनारे रहने वाले संकट और विकट नामक हंस से उसकी गहरी दोस्ती थी। तालाब के किनारे तीनों हर रोज खूब बातें करते और शाम होने पर अपने-अपने घरों को चल देते। एक वर्ष उस प्रदेश में जरा भी बारिश नहीं हुई। धीरे - धीरे वह तालाब भी सूखने लगा। अब हंसों को कछुए की चिंता होने लगी। जब उन्होंने अपनी चिंता कछुए से कही तो कछुए ने उन्हें चिंता न करने को कहा। उसने हंसों को एक युक्ति बताई। उसने उनसे कहा कि सबसे पहले किसी पानी से लबालब तालाब की खोज करें फिर एक लकड़ी के टुकड़े से लटकाकर उसे उस तालाब में ले चलें। उसकी बात सुनकर हंसों ने कहा कि वह तो ठीक है पर उड़ान के दौरान उसे अपना मुंह बंद रखना होगा। कछुए ने उन्हें भरोसा दिलाया कि वह किसी भी हालत में अपना मुंह नहीं खोलेगा। कछुए ने लकड़ी के टुकड़े को अपने दांत से पकड़ा फिर दोनो हंस उसे लेकर उड़ चले। रास्ते में नगर के लोगों ने जब देखा कि एक कछुआ आकाश में उड़ा जा रहा है तो वे आश्चर्य से चिल्लाने लगे। लोगों को अपनी तरफ चिल्लाते हुए देखकर कछुए से रहा नहीं गया। वह अपना वादा भूल गया। उसने जैसे ही कुछ कहने के लि

वातावरण सुरक्षा मानव जाति का श्रेष्ठ र्कतव्य है। Vatavaran suraksha manav jaati ka shreshth kartavya hai.

एक दिन के दौरान एक व्यक्ति वातावरण में इतना ऑक्सीजन लेता है कि जिस से ऑक्सीजन के तीन सिलेंडर भरे जा सकते हैं। एक सिलेंडर की कीमत रूपए 700 है। इसका अर्थ यही कि इंसान एक दिन में रूपए 2100 का , एक वर्ष में  रुपए 7,66,500 का और उसकी उम्र 65 वर्ष माने तो जीवन के दौरान कुल 5 करोड़ रुपए का ऑक्सीजन वातावरण से ग्रहण करता है और वह भी एक भी रुपया चुकाए बिना ! और यह अक्सीजन मिल रहा है वृक्षों से । प्रश्न यह है कि इंसान पैसे से मिलने वाले गाड़ी , बंगले , फर्नीचर का मूल्य समझता है। खुराक , पानी , दवाई का मूल्य समझता है। परंतु , जिसके बिना जीवन का टिकना असंभव है , ऐसे मुफ्त में मिल रहे ऑक्सीजन का मूल्य समझ सका है भला ? शायद नहीं ! वातावरण में किस हद तक प्रदूषण फैल रहा है , कारखानों और फैक्ट्रियों के निर्माण द्वारा उपजाऊ भूमि को जिस तरह से पथरीला बनाया जा रहा है , वृक्षों का जिस प्रकार संहार किया जा रहा है , यह सब देखते हुए यह लगता है कि आज शुद्ध खुराक और शुद्ध पानी जिस तरह दुर्लभ होते जा रहे हैं उस तरह आने वाले कल में शुद्ध हवा भी दुर्लभ हो जाएगी। शरीर पर लाखों रुपए के गहने हो पर , वस्त्र ना हो , ऐस

दुसरों के दोषों को देखना बंद करें और अपने दोषों पर सदा दृष्टि रखें। Dusron ke doshon ko dekhna band Karen aur apne doshon per sada drishti rakhen.

इस संसार को बनाने वाले ब्रह्माजी ने एक बार मनुष्य को अपने पास बुलाकर पूछा - ‘ तुम क्या चाहते हो ? ’ मनुष्य ने कहा - ‘ मैं उन्नति करना चाहता हूँ , सुख - शान्ति चाहता हूँ और चाहता हूँ कि सब लोग मेरी प्रशंसा करें। ’ ब्रह्माजी ने मनुष्य के सामने दो थैले धर दिये। वे बोले - ‘ इन थैलों को ले लो। इनमें से एक थैले में तुम्हारे पड़ोसी की बुराइयाँ भरी हैं। उसे पीठ पर लाद लो। उसे सदा बंद रखना। न तुम देखना , न दूसरों को दिखाना। दूसरे थैले में तुम्हारे दोष भरे हैं। उसे सामने लटका लो और बार - बार खोलकर देखा करो। ’ मनुष्य ने दोनों थैले उठा लिये। लेकिन उससे एक भूल हो गयी। उसने अपनी बुराइयों का थैला पीठ पर लाद लिया और उसका मुँह कसकर बंद कर दिया। अपने पड़ोसी की बुराइयों से भरा थैला उसने सामने लटका लिया। उसका मुँह खोल कर वह उसे देखता रहता है और दूसरों को भी दिखाता रहता है। इससे उसने जो वरदान माँगे थे , वे भी उलटे हो गये। वह अवनति करने लगा। उसे दुःख और अशान्ति मिलने लगी। तुम मनुष्य की वह भूल सुधार लो तो तुम्हारी उन्नति होगी। तुम्हें सुख - शान्ति मिलेगी। जगत् में तुम्हारी प्रशंसा होगी। तुम्हें करना यह है कि

स्त्रियों का आदर striyon ka aadar

आत्मा न तो स्त्रीलिंग है ना ही पुलिंग है ।लिंग भेद तो शरीर से बनते हैं। अध्यात्मिक ज्ञानी की दृष्टि में लिंग भेद होता ही नहीं है। ज्ञानी स्त्री की निंदा नहीं करते। " यंत्र नार्यस्तु पूजयन्ते रमन्ते तत्र देवता " जिस घर में स्त्रियों के प्रति अत्याचार एवं उत्पीड़न हो रहा हो उस घर में सुख, शांति का वातावरण नहीं होता परंतु जहां स्त्रियों के प्रति सौहार्द्र, अपनत्व, प्रेम के भाव होते हैं, वह घर देवताओं के लिए भी आनंदकारी हो जाता है। नारी को उसके स्थान के अनुरूप सम्मान दो। जिस घर में नारियां घर की मर्यादा के अनुसार जीवन जीती हैं, वह गृहस्थ सुखी दांपत्य जीवन को जीता है।

न्याय से कमाया धन ही सुख देता है। Nyaay se kamaya dhan hi sukh deta hai.

किसी गांव में "धन" नामक सेठ रहता था। उसके परिवार में मात्र तीन सदस्य थे। उसकी पत्नी धन्ना, पुत्र घनसार और खुद। धन सेठ लोभी और ध्रुर्त प्रकृति का था। गांव में भोली भाली प्रजा को वह व्यापार में ठगता था। अनाज में कंकर, गुड में मिट्टी, दाल में लकड़ी के छिलके आदि मिलाकर बेचता था। ग्रामीण उसकी चिकनी चुपड़ी बातों का विश्वास भी कर लेते थे। नई चीज को पुरानी और पुरानी चीज को नई बताकर ज्यादा मूल्य से चीज बेचता और वजन से भी लोगों को ठगता था। लोगों से ठगाई करके सेठ को ज्यादा रकम मिलती वह किसी न किसी कारण से नष्ट हो जाती, कभी आग लगने से, कभी चोरी से और कभी किसी अन्य कारणों से मगर नुकसान जरूर होता था। विधाता के विधान में अन्याय नाम की कोई चीज नहीं होती। जो जैसा करता है, उसे वैसा ही भुगतना पड़ता है। "सौ सुनार की एक लोहार की" सेठ ठग - ठग कर धन बटोरता है तो कुदरत अपना खेल दिखा भी देती है। सेठ को इस बात का ख्याल कभी नहीं आया। सेठ का फला फूला संसार था। उसके लड़के ने शादी की तो एक सदस्य और भी बढ़ा । सेठ की दुकान और घर एक ही मकान में था। इसीलिए दुकान में जो कोई बात होती घर तक सुनाई दे

देह और आत्मा दोनों के मिलन से ही कल्याण संभव है । Deh aur atma donon ke Milan se hi Kalyan sambhav hai.

धर्मकीर्ति ने महर्षि याज्ञवल्क्य के आश्रम में उच्च शिक्षा प्राप्त की। शिक्षा समाप्त कर वह घर लौटे। पिता धनपति ने शानदार स्वागत की व्यवस्था की थी। परिवार के लोग धर्मकीर्ति के लौटने पर बहुत प्रसन्न हुए। दो - तीन दिनों तक उत्सव चलता रहा। उसके बाद धनपति ने उनसे कहा कि वह अब सांसारिक दायित्व संभालें और विवाह करें। धर्मकीर्ति ने कहा - मैं विवाह नहीं करूंगा। पिता ने पूछा - क्यों ? धर्मकीर्ति ने कहा - हमारा शरीर नाशवान है। दुनिया के सारे संबंध नाशवान हैं। मैं तो मोक्ष प्राप्त करूंगा। असमय के इस वैराग्य से विचलित धनपति ने उन्हें बहुत समझाया , पर धर्मकीर्ति टस से मस न हुए। फिर धनपति ने महर्षि याज्ञवल्क्य को यह बात बताई। महर्षि ने धर्मकीर्ति को वापस आश्रम बुला लिया। एक दिन उन्होंने धर्मकीर्ति को फूल चुनने भेजा। जिस उपवन में वह फूल चुन रहे थे , उसका मालिक संयोगवश वहीं आ गया। उसने आव देखा न ताव , अपनी कुल्हाड़ी लेकर उन्हें मारने दौड़ा। धर्मकीर्ति भागकर आश्रम पहुंचे। फिर वह महर्षि के कक्ष में पहुंच गए। उनके पीछे भागता हुआ उपवन का मालिक भी वहां पहुंच गया। महर्षि ने बड़े शांत स्वर में

धोखाधड़ी हमें मौत की ओर ले जाती है dhokha dhadi hamen maut ki aur le jaati hai

क्या तुमको पता है कि केवल मादा मच्छर ही काटती हैं ? खून पीती हैं ? बहुत पहले की बात है। वियतनाम के एक गाँव में टॉम और उसकी पत्नी न्हाम रहते थे। टॉम खेती करता था और पत्नी रेशम के कीड़े पालती थी। टॉम बड़ा मेहनती था , पर न्हाम जिंदगी में तमाम ऐशो - आराम की आकांक्षी थी। एक दिन न्हाम एकाएक बीमार पड़ गई। टॉम उस वक्त खेतों में काम कर रहा था। जब वह घर लौटा , उसने पाया कि न्हाम अब इस दुनिया में नहीं है। टॉम घुटने टेककर ईश्वर से प्रार्थना करने लगा। तभी उसे आकाशवाणी सुनाई दी कि वह समुद्र के बीच स्थित एक विशाल पहाड़ी पर न्हाम का शव ले जाए। कई दिनों की यात्रा के बाद टॉम न्हाम के शव के साथ उस पहाड़ी पर पहुँचा और एक खूबसूरत फूलों के बाग में ले जाकर शव को लिटा दिया। उसकी पलकें थकान से झपक ही रही थीं कि सहसा सफेद बालों तथा तारों - सी चमकती आँखोंवाले एक महापुरुष वहाँ प्रकट हुए। उन महापुरुष ने टॉम से कहा कि वह उनका शिष्य बनकर इसी जगह शांति से रहे। पर टॉम ने कहा कि वह अपनी पत्नी न्हाम को बेहद प्यार करता है और उसके बगैर रह नहीं सकता। महापुरुष टॉम की इच्छा जानकर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा कि वह अपनी उँ

मृत्यु से छुटकारा तभी मिलेगा जब तुम मोह करना छोड़ दोगे Mrityu se chutkara tabhi milega jab tum moh karna chod doge

किसी नगर में एक आदमी रहता था। वह पढ़ा - लिखा और चतुर भी था। उसके भीतर धन कमाने की लालसा थी। जब पुरुषार्थ को भाग्य का सहयोग मिला तो उसके पास लाखों की संपदा हो गई। ज्यों - ज्यों पैसा आता गया उसका लोभ बढ़ता गया। वह बड़ा खुश था कि कहां तो उसके पास एक फूटी कौड़ी भी नहीं थी और कहां अब उसकी तिजोरियां भरी रहती हैं। धन के बल पर आराम के जो भी साधन वह चाहे वह प्राप्त कर सकता था। कहते हैं, आराम चीज अलग है तथा चैन चीज अलग है। धन से समस्त साधन एवं सुविधा मिल सकती है किंतु सुख नहीं मिल सकता। इतना सब कुछ होते हुए भी उसके जीवन में एक बड़ा अभाव था, घर में कोई संतान नहीं थी। समय के प्रवाह में उसकी प्रौढ़ावस्था बीतने लगी पर धन-संपत्ति के प्रति उसकी मूर्च्छा में कोई अंतर नहीं पड़ा। अचानक एक दिन बिस्तर पर लेटे हुए उसने देखा कि सामने कोई अस्पष्ट सी आकृति खड़ी है। उसने घबराकर पूछा, कौन ? उत्तर मिला, मृत्यु इतना कह कर वह आकृति गायब हो गई। वह आदमी बेहाल हो गया। बेचैनी के कारण उसे नींद नहीं आई। इतना ही नहीं उस दिन से उसका सारा सुख मिट्टी हो गया। मन चिंताओं से भर गया। वह हर घड़ी भयभीत रहने लगा। कुछ दिनो

लोगो से सीखते रहने की आदत आपको पूरा नहीं पूर्णता के करीब जरुर ले जाती है Logon se sikhate Rahane ki aadat aapko poornata ke kareeb le jaati hai

यूनानी दार्शनिक अफलातून (Aflatoon ) के पास हर दिन कई विद्वानों का जमावड़ा लगा रहता था । सभी लोग उनसे कुछ न कुछ ज्ञान प्राप्त करके ही जाया करते थे । लेकिन स्वयं अफलातून (Aflatoon ) खुद को कभी ज्ञानी नहीं मानते थे क्योंकि उनका मानना था कि इन्सान कभी भी ज्ञानी केसे हो सकता है जबकि हमेशा वो सीखता ही रहता है । एक दिन उनके एक मित्र ने उनसे कहा कि "आपके पास दुनियाभर के विद्वान आपसे ज्ञान लेने आते है और वो लोग आपसे बाते करते हुए अपना जीवन धन्य समझते है लेकिन भी आपकी एक बात मुझे आज तक समझ नहीं आई ” इस पर अफलातून बोले तुम्हे किस बात की शंका है जाहिर तो करो जो पता चले । मित्र ने कहा आप खुद बड़े विद्वान और ज्ञानी है लेकिन फिर भी मेने देखा है आप हर समय दूसरों से शिक्षा लेने को तत्पर रहते है । वह भी बड़े उत्साह और उमंग के साथ । इस से बड़ी बात है कि आपको साधारण व्यक्ति से भी सीखने में कोई परेशानी नहीं होती आप उस से भी सीखने को तत्पर रहते है । आपको भला सीखने को जरुरत क्या है कंही आप लोगो को खुश करने के लिए तो उनसे सीखने का दिखावा नहीं करते है ? अफलातून (Aflatoon ) जोर जोर से हंसने लगे तो मित्र न

नकल के लिए भी अकल की आवश्यकता होती है nakal ke liye bhi akal ki avashyakta hoti hai

एक गाँव में दो युवक रहते थे। दोनों में बड़ी मैत्री थी। जहाँ जाते साथ - साथ जाते। एक बार दोनों एक धनी व्यक्ति के साथ उसकी ससुराल गए। किसी धनी व्यक्ति के साथ रहने का यह पहला अवसर था , सो वे अपने धनी मित्र की प्रत्येक गतिविधि ध्यान से देखते रहे। गर्मियों के दिन थे। रात में उक्त युवक के लिए शयन की व्यवस्था खुले स्थान पर की गई। पर्याप्त शीतलता बनी रहे इसके लिए वहाँ चारों तरफ जल छिड़का गया और रात को ओढ़ने के लिए बहुत ही हलकी मखमली चादर दी गई।अन्य दोनों युवकों ने इतना ही जाना कि इस तरह का रहन - सहन बड़प्पन की बात है। कुछ दिन बाद उन्हें भी अपनी - अपनी ससुराल जाने को अवसर मिला पर वे दिन गरमी के न होकर तीव्र शीत के थे। नकल तो नकल होती है। दोनों ने अपना बड़प्पन जताने के लिए बिस्तर खुले आकाश के नीचे लगवाया , लोगों के लाख मना करने पर भी उन्होंने बिस्तर के आस - पास पानी भी छिड़कवाया और ओढ़ने के लिए कुल एक - एक चादर वह भी हल्की ली। रात को पाला पड़ गया सो दोनों को निमोनिया हो गया। चिकित्सा कराई गई तब कठिनाई से जान बची। इतनी कथा सुनाने के बाद गुरुजी ने शिष्य को समझाया - तात उचित और अनुचित का विच

बिजली से पीड़ित एक आम नागरिक की कथा। Bijali se pidit ek aam nagrik ki katha.

बिजली विभाग के दफ्तर के बाहर राजू केले बेच रहा था। बिजली विभाग के एक बड़े अधिकारी ने पूछा : " केले कैसे दिए" ? राजू: केले किस लिए खरीद रहे हैं साहब ? अधिकारी:- मतलब ?? राजू:- मतलब ये साहब कि, *मंदिर* के प्रसाद के लिए ले रहे हैं तो 10 रुपए दर्जन। *वृद्धाश्रम* में देने हों तो 15 रुपए दर्जन। बच्चों के *टिफिन* में रखने हों तो 20 रुपए दर्जन। *घर* में खाने के लिए ले जा रहे हों तो, 25 रुपए दर्जन और अगर *पिकनिक* के लिए खरीद रहे हों तो 30 रुपए दर्जन। अधिकारी: - ये क्या बेवकूफी है ? अरे भई, जब सारे केले एक जैसे ही हैं तो,भाव अलग अलग क्यों बता रहे हो ?? राजू: - ये तो पैसे वसूली का, आप ही का स्टाइल है साहब। 1 से 100 रीडिंग का रेट अलग, 100 से 200 का अलग, 200 से 300 का अलग। अरे आपके बाप की बिजली है क्या ? आप भी तो एक ही खंभे से बिजली देते हो। तो फिर घर के लिए अलग रेट, दूकान के लिए अलग रेट, कारखाने के लिए अलग रेट, फिर इंधन भार, विज आकार..... और हाँ, एक बात और साहब, *मीटर का भाड़ा।* मीटर क्या अमेरिका से आयात किया है ? 25 सालों से उसका भाड़ा भर रहा हूँ। आखिर उसकी कीमत है कितनी ?? आप ये तो बता दो

बीरबल ने पूरा घड़ा बुद्धि से लबालब भर दिया। Birbal ne pura ghada buddhi se labalab bhar Diya.

एक रोज की बात है कि बादशाह अकबर के दरबार में लंका के राजा का एक दूत पहुँचा। उसने बादशाह अकबर से एक नयी तरह की माँग करते हुए कहा – “ आलमपनाह ! आपके दरबार में एक से बढ़कर एक बुद्धिमान , होशियार तथा बहादुर दरबारी मौजूद हैं। हमारे महाराज ने आपके पास मुझे एक घड़ा भरकर बुद्धि लाने के लिए भेजा है। हमारे महाराज को आप पर पूरा भरोसा है कि आप उसका बन्दोबस्त किसी-न-किसी तरह और जल्दी ही कर देंगे । ” यह सुनकर बादशाह अकबर चकरा गए । उन्होंने अपने मन में सोंचा – “ क्या बेतुकी माँग है , भला घड़े भर बुद्धि का बन्दोबस्त कैसे किया जा सकता है ? लगता है , लंका का राजा हमारा मजाक बनाना चाहता है , कहीं वह इसमें सफल हो गया तो ...? तभी बादशाह को बीरबल का ध्यान आया , वे सोचने लगे कि शायद यह कार्य बीरबल के वश का भी न हो , मगर उसे बताने में बुराई ही क्या है ? जब बीरबल को बादशाह के बुलवाने का कारण ज्ञात हुआ तो वह मुस्कराते हुए कहने लगे – “ आलमपनाह ! चिन्ता की कोई बात नहीं , बुद्धि की व्यवस्था हो जाएगी , लेकिन इसमें कुछ हफ्ते का वक़्त लग सकता है । ” बादशाह अकबर बीरबल की इस बात पर कहते भी तो क्या , बीरबल को मुँह माँग

अपने हितैषियों की रक्षा करने से हमारी भी रक्षा होती है। Apne hiteshiyo ki raksha karne se hamari bhi raksha hoti hai.

किसी पर्वत प्रदेश में मन्दविष नाम का एक वृद्ध सर्प रहा करता था। एक दिन वह विचार करने लगा कि ऐसा क्या उपाय हो सकता है , जिससे बिना परिश्रम किए ही उसकी आजीविका चलती रहे। उसके मन में तब एक विचार आया। वह समीप के मेंढकों से भरे तालाब के पास चला गया। वहां पहुँचकर वह बड़ी बेचैनी से इधर - उधर घूमने लगा। उसे इस प्रकार घूमते देखकर तालाब के किनारे एक पत्थर पर बैठे मेंढक को आश्चर्य हुआ तो उसने पूछा ,“ मामा ! आज क्या बात है ? शाम हो गई है , किन्तु तुम भोजन - पानी की व्यवस्था नहीं कर रहे हो ? ” सर्प बड़े दुःखी मन से कहने लगा , “ बेटे ! क्या करूं , मुझे तो अब भोजन की अभिलाषा ही नहीं रह गई है। आज बड़े सवेरे ही मैं भोजन की खोज में निकल पड़ा था। एक सरोवर के तट पर मैंने एक मेंढक को देखा। मैं उसको पकड़ने की सोच ही रहा था कि उसने मुझे देख लिया। समीप ही कुछ ब्राह्मण स्वाध्याय में लीन थे , वह उनके मध्य जाकर कहीं छिप गया। ” उसको तो मैंने फिर देखा नहीं। किन्तु उसके भ्रम में मैंने एक ब्राह्मण के पुत्र के अंगूठे को काट लिया। उससे उसकी तत्काल मृत्यु हो गई। उसके पिता को इसका बड़ा दुःख हुआ और उस शोकाकुल पिता ने मुझ

सहनशीलता आत्मनिर्भर होने का प्रतीक है। Sahanshilta aatmnirbhar hone ka Pratik hai.

एक दरोगा संत दादू की ईश्वर भक्ति और सिद्धि से बहुत प्रभावित था। उन्हें गुरु मानने की इच्छा से वह उनकी खोज में निकल पड़ा। लगभग आधा जंगल पार करने के बाद दरोगा को केवल धोती पहने एक साधारण - सा व्यक्ति दिखाई दिया। वह उसके पास जाकर बोला , " क्यों बे तुझे मालूम है कि संत दादू का आश्रम कहाँ है ? " इस पर भी जब वह व्यक्ति मौन धारण किए अपना काम करता ही रहा तो दरोगा ने आग बबूला होते हुए एक ठोकर मारी और आगे बढ़ गया। थोड़ा आगे जाने पर दरोगा को एक और आदमी मिला। दरोगा ने उसे भी रोक कर पूछा , '' क्या तुम्हें मालूम है संत दादू कहाँ रहते है ? '' '' उन्हें भला कौन नहीं जानता , वे तो उधर ही रहते हैं जिधर से आप आ रहे हैं। यहाँ से थोड़ी ही दूर पर उनका आश्रम है। मैं भी उनके दर्शन के लिए ही जा रहा था। आप मेरे साथ ही चलिए।'' वह व्यक्ति बोला। दरोगा मन ही मन प्रसन्न होते हुए साथ चल दिया। राहगीर जिस व्यक्ति के पास दरोगा को ले गया उसे देख कर वह लज्जित हो उठा क्यों संत दादू वही व्यक्ति थे जिसको दरोगा ने मामूली आदमी समझ कर अपमानित किया था। वह दादू के चरणों में गिर कर क्षम

मैं रोज चार आने कमा लेता हूँ , और उतने में ही प्रसन्न रहता हूँ…., main roj char aane Kama leta Hun , aur utne mein hi pareshan rahata hun....,

बहुत समय पहले की बात है , चंदनपुर का राजा बड़ा प्रतापी था , दूर-दूर तक उसकी समृद्धि की चर्चाएं होती थी , उसके महल में हर एक सुख-सुविधा की वस्तु उपलब्ध थी पर फिर भी अंदर से उसका मन अशांत रहता था। उसने कई ज्योतिषियों और पंडितों से इसका कारण जानना चाहा , बहुत से विद्वानो से मिला , किसी ने कोई अंगूठी पहनाई तो किसी ने यज्ञ कराए , पर फिर भी राजा का दुःख दूर नहीं हुआ , उसे शांति नहीं मिली। एक दिन भेष बदल कर राजा अपने राज्य की सैर पर निकला। घूमते - घूमते वह एक खेत के निकट से गुजरा , तभी उसकी नज़र एक किसान पर पड़ी , किसान ने फटे - पुराने वस्त्र धारण कर रखे थे और वह पेड़ की छाँव में बैठ कर भोजन कर रहा था। किसान के वस्त्र देख राजा के मन में आया कि वह किसान को कुछ स्वर्ण मुद्राएं दे दे ताकि उसके जीवन मे कुछ खुशियां आ पाये। राजा किसान के सम्मुख जा कर बोला – मैं एक राहगीर हूँ , मुझे तुम्हारे खेत पर ये चार स्वर्ण मुद्राएँ गिरी मिलीं , चूँकि यह खेत तुम्हारा है इसलिए ये मुद्राएं तुम ही रख लो। किसान – ना – ना सेठ जी , ये मुद्राएं मेरी नहीं हैं , इसे आप ही रखें या किसी और को दान कर दें , मुझे इनकी कोई आव

मेरा दिल एक जानवर का है इंसान का नहीं। Mera dil ek janwar ka hai insan ka Nahin.

मधु एक बकरी थी , जो की माँ बनने वाली थी। माँ बनने से पहले ही मधू ने भगवान् से दुआएं मांगने शुरू कर दी। कि “ हे भगवान् मुझे बेटी देना बेटा नही ”। पर किस्मत को ये मन्जूर ना था , मधू ने एक बकरे को जन्म दिया , उसे देखते ही मधू रोने लगी। साथ की बकरियां मधू के रोने की वजह जानती थी , पर क्या कहती। माँ चुप हो  गई और अपने बच्चे को चाटने लगी। दिन बीत ते चले गए और माँ के दिल मे अपने बच्चे के लिए प्यार उमड़ता चला गया। धीरे औ- धीरे माँ अपने बेटे में सारी दुनियाँ को भूल गई , और भूल गई भविष्य की उस सच्चाई को  जो एक दिन सच होनी थी। मधू रोज अपने बच्चे को चाट कर दिन की शुरूआत करती , और उसकी रात बच्चे से चिपक कर सो कर ही होती। एक दिन बकरी के मालिक के घर बेटे जन्म लिया। घर में आते मेहमानो और पड़ोसियों की भीड़ देख मधू बकरी ने साथी बकरी से पूछा “ बहन क्या हुआ आज बहुत भीड़ है इनके घर पर ” ये सुन साथी बकरी ने कहा की “ अरे हमारे मालिक के घर बेटा हुआ है , इसलिए चहल पहल है ” बकरी मालिक के लिए बहुत खुश हुई और उसके बेटे को बहुत दुआएं दी।   फिर मधू अपने बच्चे से चिपक कर सो गई। मधू सो ही रही थी कि तभी उसके पास एक आद

ऊपर वाले की अदालत में वकालत नहीं होती। Upar wale ki adalat mein vakalat Nahin Hoti.

एक बेटी ने एक संत से आग्रह किया कि वो घर आकर उसके बीमार पिता से मिलें , प्रार्थना करें । बेटी ने ये भी बताया कि उसके बुजुर्ग पिता पलंग से उठ भी नहीं सकते। जब संत घर आए तो पिता पलंग पर दो तकियों पर सिर रखकर लेटे हुए थे। एक खाली कुर्सी पलंग के साथ पड़ी थी। संत ने सोचा कि शायद मेरे आने की वजह से ये कुर्सी यहां पहले से ही रख दी गई। संत … - मुझे लगता है कि आप मेरे ही आने की उम्मीद कर रहे थे। पिता... - नहीं , आप कौन हैं ? संत ने अपना परिचय दिया... और फिर कहा - मुझे ये खाली कुर्सी देखकर लगा कि आप को मेरे आने का आभास था। पिता... ओह ये बात... खाली कुर्सी... आप... आपको अगर बुरा न लगे तो कृपया कमरे का दरवाज़ा बंद करेंगे। संत को ये सुनकर थोड़ी हैरत हुई , फिर भी दरवाज़ा बंद कर दिया। पिता... दरअसल इस खाली कुर्सी का राज़ मैंने किसी को नहीं बताया... अपनी बेटी को भी नहीं... पूरी ज़िंदगी , मैं ये जान नहीं सका कि प्रार्थना कैसे की जाती है।मंदिर जाता था , पुजारी के श्लोक सुनाता , वो सिर के ऊपर से गुज़र जाते कुछ पल्ले नहीं पड़ता था। मैंने फिर प्रार्थना की कोशिश करना छोड़ दिया। लेकिन चार साल पहले मेरा एक दो

आत्मा का साक्षात्कार aatma ka sakshatkar

हेलो दोस्तों, आप मुझे पहचानते हो ? शायद हां भी हो सकता है…. नहीं भी हो सकता है….. क्या ! आप अपने आप को पहचानते हो….. इसका जवाब आप हां में ही दोगे। अपने बारे में क्या जानते हैं ? यही ना कि…… आपका नाम क्या है ? आपके माता-पिता का नाम क्या है ? आपके दादा-दादी का नाम क्या है ? आप किस धर्म को मानते हैं ? आपके रिश्तेदार कौन हैं ? आप क्या व्यवसाय करते हैं ? आपके कितने मित्र हैं ? बस इसके अलावा आप कुछ और जानते हैं ? पर यह शायद आपकी सही जानकारी नहीं है। क्योंकि , सही में आपने आपके शरीर को पहचाना है। और आपको शरीर के अंदर रहने वाली आत्मा को पहचानने की आवश्यकता है। आत्मा जो कि परमात्मा का अंश है। परमात्मा से सभी मनुष्य और जीव मात्र की आत्माएं उसी से जुड़ी हुई है। उसको जानना अति आवश्यक है। आत्मा वह है जो कभी मरती नहीं, जिसे कभी डूबाया नहीं जा सकता, जिसे कभी नष्ट नहीं किया जा सकता, जिसका कभी अंत नहीं है, जो अजरा अमर है। उस आत्मा को जानना हमारे जिंदगी का हमारे जीवन का सबसे महत्वपूर्ण उद्देश्य होना चाहिए। आत्मा को कभी कर्म बंध नहीं लगता है। और जो भी कर्म बंध या कर्म आप बांध रहे हो वह शरीर के साथ में और

धर्म कार्य कब करना ? आज… आज… और… अभी dharm karya kab karna ? aaj... aaj... aur... abhi

एक राजा था , उसकी एक रानी , एक पुत्री और एक दासी थी । जैनधर्म के रंग (प्रभाव) में रंगा यह पूरा परिवार वैरागी था , यहाँ तक कि दासी भी वैराग्य में जागृत थी । एक बार किसी प्रसंग पर राजा वैराग्य पूर्वक कहता है कि - " हे जीव ! तू शीघ्र ही धर्म - साधना कर ले । यह जीवन तो क्षणभंगुर है । दो-चार दिन का ही है । इसका क्या भरोसा ? " उसी समय रानी बोली - " महाराज ! आप भूल कर रहे हैं ! क्योंकि दो - चार दिन का भी क्या भरोसा ? रात को हँसते हुए सोते हैं और सुबह को जीवन - लीला ही समाप्त हो जाती है , इसलिए कल के भरोसे नहीं रहना चाहिए । " उसी समय पुत्री गंभीरता से कहती है - " पिताजी और माताजी ! आप दोनों भूल कर रहे हैं । दो - चार दिन या सुबह - शाम का भी क्या भरोसा ? आँख की एक पलक झपकने में ही कौन जाने क्या हो जाये ? " दासी भी वहीं खड़ी - खड़ी यह धर्म - चर्चा सुन रही थी , अन्त में वह भी कहती है - " अरे , आप सब भूल कर रहे हैं । आँख के झपकने में तो कितना समय (अन्तर्मुहूर्त ) चला जाता है .... इतने समय का भी क्या भरोसा ? हमें दूसरे समय की भी राह देखे बिना वर्तमान समय में ही अपन

'मिट्टी के मोल रेत'बेच दे वही व्यापार होता है। 'Mitti ke mol rate' bech de vahi vyapar hota hai.

एक बंजारा था। वह बैलों पर मिट्टी ( मुल्तानी मिट्टी) लादकर दिल्ली की तरफ आ रहा था। रास्ते में कई गांवो से गुजरते समय उसकी बहुत - सी मिट्टी बिक गई। बैलों की पीठ पर लदे बोरे आधे तो खाली हो गए और आधे भरे रह गए। अब वे बैलों की पीठ पर कैसे टिकें ? क्योंकि भार एक तरफ ज्यादा हो गया था। नौकरों ने पूछा कि क्या करें ? बंजारा बोला - 'अरे ! सोचते क्या हो , बोरों के एक तरफ रेत (बालू) भर लो। यह राजस्थानी जमीन है , यहां रेत बहुत है। ' नौकरों ने वैसा ही किया। बैलों की पीठ पर एक तरफ आधे बोरे में मिट्टी हो गई और दूसरी तरफ आधे बोरे में रेत हो गई। दिल्ली से एक सज्जन उधर आ रहे थे। उन्होंने बैलों पर लदे बोरों में से एक तरफ रेत गिरते हुए देखी तो बोले कि बोरों में एक तरफ रेत क्यों भरी है ? नौकरों ने कहा - ' सन्तुलन करने के लिये।' वे सज्जन बोले - ' अरे यह तुम क्या मूर्खता करते हो ? तुम्हारा मालिक और तुम एक से ही हो। बैलों पर मुफ्त में ही भार ढोकर उनको मार रहे हो मिट्टी के आधे - आधे दो बोरों को एक ही जगह बांध दो तो कम-से-कम आधे बैल तो बिना भार के चलेंगे।' नौकरों ने कहा कि आपकी बात तो ठीक

स्थिति समझे बिना कोई नकारात्मक प्रतिक्रिया न दें sthiti samjhe Bina koi nakaratmak pratikriya no de

एक डॉक्टर बड़ी ही तेजी से हॉस्पिटल में घुसा , उसे किसी एक्सीडेंट के मामले में तुरंत बुलाया गया था। अंदर घुसते ही उसने देखा कि जिस लड़के का एक्सीडेंट हुआ है उसके परिजन बड़ी बेसब्री से उसका इंतज़ार कर रहे हैं। डॉक्टर को देखते ही लड़के का पिता बोला , आप लोग अपनी ड्यूटी ठीक से क्यों नहीं करते , आपने आने में इतनी देर क्यों लगा दी …. अगर मेरे बेटे को कुछ हुआ तो इसके जिम्मेदार आप होंगे …। ” डॉक्टर ने विनम्रता कहा , आई ऍम सॉरी , मैं हॉस्पिटल में नहीं था , और कॉल आने के बाद जितना तेजी से हो सका मैं यहाँ आया हूँ। कृपया अब आप लोग शांत हो जाइये ताकि मैं इलाज कर सकूँ….। ” “ शांत हो जाइये !!!” , लड़के का पिता गुस्से में बोला , ” क्या इस समय अगर आपका बेटा होता तो आप शांत रहते ? अगर किसी की लापरवाही की वजह से आपका अपना बेटा मर जाए तो आप क्या करेंगे ? ” पिता बोले ही जा रहा था। भगवान चाहेगा तो सब ठीक हो जाएगा , आप लोग दुआ कीजिये मैं इलाज के लिए जा रहा हूँ , और ऐसा कहते हुए डॉक्टर ऑपरेशन थिएटर में प्रवेश कर गया। बाहर लड़के का पिता अभी भी बुदबुदा रहा था , सलाह देना आसान होता है , जिस पर बीतती है वही जा

शरणागत की रक्षा करना हमारा धर्म है। Sharnagat ki Raksha karna hamara dharm hai.

किसी जंगल में एक बहेलिया घूमा करता था। वह पशु-पक्षियों को पकड़ता था और उन्हें मार देता था। उसका कोई भी मित्र न था। वह हमेशा जाल, डंडा और पिंजरा लेकर जंगल में घूमता रहता था। एक दिन उसने एक कबूतरी को पकड़कर अपने पिंजरे में बंद कर लिया। इसी बीच जंगल में घना अँधेरा छा गया। तेज आँधी आई और मूसलाधार वर्षा होने लगी। बहेलिया काँपता हुआ एक वृक्ष के नीचे छिपकर बैठ गया। वह दु:खी स्वर में बोला - ‘ जो भी यहाँ रहता हो , मैं उसकी शरण में हूँ। ’ उसी वृक्ष पर अपनी पत्नी के साथ एक कबूतर रहता था। उसकी प्रिया कबूतरी अब तक नहीं लौटी थी। कबूतर सोच रहा था कि शायद आँधी और वर्षा में फँसकर उसकी मृत्यु हो गई थी। कबूतर उसके वियोग में विलाप कर रहा था। बहेलिए ने जिस कबूतरी को पकड़ा था , वह वही कबूतरी थी। बहेलिए की पुकार सुनकर पिंजरे में बंद कबूतरी ने कबूतर से कहा - ‘ इस समय यह बहेलिया तुम्हारी शरण में आया है। तुम अतिथि समझकर इसका सत्कार करो। इसने ही मुझे पिंजरे में बंद कर रखा है , इस बात पर इससे घृणा मत करो। ’ कबूतर ने बहेलिए से पूछा - ‘ भाई , मैं तुम्हारी क्या सेवा करुँ ? ’ बहेलिए ने काँपते हुए कहा - ‘मुझे इस समय

माता-पिता ही दुनिया के सर्वप्रथम शिक्षक होते हैं। Mata - pita he duniya ke sarvpratham shikshak hote Hain.

सायंकाल का समय था। सभी पक्षी अपने अपने घोंसले में जा रहे थे। तभी गांव कि चार औरतें कुएं पर पानी भरने आई और अपना - अपना मटका भरकर बतयाने बैठ गई। इस पर पहली औरत बोली अरे ! भगवान मेरे जैसा लड़का सबको दे। उसका कंठ इतना सुरीला हें कि सब उसकी आवाज सुनकर मुग्ध हो जाते हें। इसपर दूसरी औरत बोली कि मेरा लड़का इतना बलवान हें कि सब उसे आज के युग का भीम कहते हें। इस पर तीसरी औरत कहाँ चुप रहती वह बोली अरे ! मेरा लड़का एक बार जो पढ़ लेता हें वह उसको उसी समय कंठस्थ हो जाता हें। यह सब बात सुनकर चौथी औरत कुछ नहीं बोली तो इतने में दूसरी औरत ने कहाँ “ अरे ! बहन आपका भी तो एक लड़का हें ना आप उसके बारे में कुछ नहीं बोलना चाहती हो । ” इस पर से उसने कहाँ मै क्या कहूं वह ना तो बलवान हें और ना ही अच्छा गाता हें। यह सुनकर चारो स्त्रियों ने मटके उठाए और अपने गांव कि और चल दी। तभी कानों में कुछ सुरीला सा स्वर सुनाई दिया। पहली स्त्री ने कहाँ “ देखा ! मेरा पुत्र आ रहा हें। वह कितना सुरीला गान गा रहा हें । ” पर उसने अपनी माँ को नही देखा और उनके सामने से निकल गया। अब दूर जाने पर एक बलवान लड़का वहाँ से गुजरा उस पर दूसर