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Showing posts from April, 2020

हृदय में प्रीति और व्यवहार में नीति होना अति आवश्यक है hriday mein prati aur vyavhar mein niti Hona ati avashyak hai

घर में वस्तुएं नियत स्थान पर रखी जाती है तो ही घर की शोभा बढ़ती है। झाड़ू दरवाजे के पीछे, टी.वी. शोकेस में , कपड़े अलमारी में और जवाहरात है तिजोरी में…….. इसमें थोड़ी भी गड़बड़ होती है तो घर की शोभा घटने लगती है। प्रश्न हृदय का है और व्यवहार का है। जीभ पर प्रीति और हृदय में उपेक्षा हो तो ? शब्दों में नीति की बात हो और व्यवहार में अनीति हो तो ? निश्चित संबंध और व्यवहार दोनों दूषित बनते हैं। वर्तमान विज्ञान युग का मनुष्य दो विषयों में भारी मात खा रहा है। परिचय उसे जड़ का करना था उसे इसके बदले जीवों को उसने परिचय का विषय बना दिया और प्रेम उसे जीवों के प्रति करना था इसके बदले उसने जड़ को प्रेम का विषय बना दिया। गाड़ी पर उसे प्रेम है और गाड़ी के ड्राइवर का उसे परिचय है! मोबाइल पर उसे प्रेम है और घर के नौकर का उसे परिचय है! पैसे पर उसे प्रेम हैं और पत्नी का उसे परिचय है ! आंखों में लगाने का काजल गालों पर लगाए लगाया जाए और नाक में डालने वाली दवाई आंख में डाली जाए तो इससे तो तकलीफ होती है, जो मजाक उड़ता है ऐसी ही तकलीफ आज के मानव को हो रही है, ऐसा ही मजाक आज उसका उड़ रहा है। एक दूसरी बात, आज क

विकसित होना यह जीवन है, संकुचित होना यह मृत्यु है viksit Hona yah jivan hai sankuchit hona yah mrutyu hai

उदयाचल के सूर्य को देख कर मन में एक प्रकार की प्रसन्नता छा जाती है और अस्ताचल के सूर्य दर्शन से मन में एक प्रकार की उदासी छा जाती है। कारण ? उदयाचल का सूर्य विकसित हो रहा है। अस्ताचल का सूर्य संकुचित हो रहा है। प्रश्न सूर्य के विकसित - संकुचित होने का नहीं है, हमारे हृदय के विकसित - संकुचित होने का है । हृदय यदि गंभीरता, उदारता और कृतज्ञता के गुणों से हरा - भरा है तो समझ लेना कि हृदय विकसित हो चुका है और हृदय यदि क्षुद्रता, कृपणता और कृतध्नता का शिकार हो रहा है तो समझ लेना कि हृदय संकुचित हो चुका है। और जीवन का अर्थ ही है विकसित होना और मृत्यु का अर्थ ही है संकुचित होना। एक जीवन शरीर का होता है और एक मृत्यु शरीर की होती है। उस जीवन और मृत्यु का संबंध सद्गुणों के साथ नहीं होता, सांस के साथ होता है। सांस चलती है तब तक शरीर जीवित माना जाता है और सांस बंद हो जाती है तब जीवन की समाप्ति मानी जाती है, परंतु एक जीवनी वह है कि इसका संबंध सांस के साथ नहीं पर सद्गुणों के साथ है। एक मृत्यु वह है जिसका संबंध सांस के समाप्ति के साथ नहीं पर सद्गुणों की समाप्ति के साथ है। खेद की बात यह है कि हमें सांस

सुंदर स्वभाव अर्थात पवित्रता Sundar swabhav arthat pavitrata

संपत्ति विपुल पर स्वभाव रुखा, सौंदर्य असीम स्वभाव बेकार, स्वास्थ्य अच्छा और स्वभाव घटिया। क्या फायदा ? संपत्ति अल्प पर स्वभाव सुंदर, सौंदर्य कम पर स्वभाव मस्त, स्वास्थ्य में गड़बड़ स्वभाव श्रेष्ठ। क्या नुकसान ? याद रखना, भविष्य में ऐसा भी समय आ सकता है जब गाड़ी पेट्रोल बिना भी चले, जब मिठाई शक्कर बिना भी बन जाए, जब मनुष्य बिना पांव भी दौड़ने लगे और जब सायकल पैडल लगाए बिना भी चलने लगे, पर अच्छे स्वभाव के बिना आप प्रसन्नता का अनुभव कर सको, पवित्र बन सको, प्रभुभक्त बन सको या हृदय को प्रेम युक्त रख सको ऐसा तो कभी संभव नहीं होने वाला। इसका अर्थ ? यही कि अच्छे स्वभाव के संसेक्स में कभी कमी नहीं आएगी। अच्छे स्वभाव के बाजार में कभी मंदी नहीं आएगी। अच्छे स्वभाव की मांग कभी नहीं घटेगी। किसी अज्ञात कवि की यह पंक्तियां पढ़ लो - " कई व्यक्ति ऐसे खुश सुख मिजाज होते हैं, हंसने के लिए, छोटे - से - छोटा कारण ढूंढते रहते हैं। और कारण शायद न मिले तो अपनी हार स्वीकार कर, हार पर हंस लेते हैं! वैसे तो मेरे शहर में, ऊंचे ऊंचे मकान हैं, उनमें कहीं ऐसे बाग - बगीचे, नजर आ जाते हैं " " बाग - बगीचे

ऐसा क्‍यों है कि सर्वाधिक लोग दु:ख और पीड़ा का ही जीवन बनते हैं ? Aisa kyon hai ki sarvadhik log dukh aur pida Ka hi jivan bante Hain ?

प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है, लेकिन साथ ही बहुत ही नाजुक भी है। पहली बात समझने की यह है, कि जीवन बहुत ही विरोधाभासी है और उसके कारण बहुत सी चीजें घटित होती हैं। विकल्प दो ही है ! मनुष्य स्वर्ग में हो सकता है या नरक में। तीसरी कोई संभावना नहीं है। या तो तुम गहन दु:ख का जीवन चुन सकते हो या दु:ख—शून्य प्रगाढ़ आनंद का जीवन चुन सकते हो। ये दो ही विकल्प हैं, ये दो ही संभावनाएं हैं, ये दो ही द्वार हैं—जीने के दो ढंग। लेकिन तब स्वभावत: प्रश्न उठता है कि मनुष्य दु:ख का जीवन क्यों चुनता है ? दु:ख मनुष्य का चुनाव नहीं है, चुनाव तो वह सदा आनंद का ही करता है। लेकिन यहीं विरोधाभास खड़ा हो जाता है। विरोधाभास यह है कि अगर तुम आनंद चाहते हो तो तुम्हें दु:ख मिलेगा, क्योंकि आनंद की पहली शर्त चुनाव—रहितता है। यही समस्या है। अगर तुम आनंद का चुनाव करते हो तो तुम्हें दु:ख में जीना पड़ेगा। और अगर तुम कोई चुनाव नहीं करते हो, सिर्फ साक्षी रहते हो, चुनाव—रहित साक्षी, तो तुम आनंद में होगे। तो प्रश्न यह नहीं है कि आनंद और दु:ख के बीच चुनाव करना है, प्रश्न यह है कि चुनाव और अचुनाव के बीच चुनाव करना है। लेकिन ऐसा क्यों हो

सेवा जगत को खुश करती है, प्रेम मन को seva jagat ko Khush karti hai, hi Prem Man ko

आप भूखे को भोजन दिखाते हो तो इससे वह खुश नहीं हो जाता। उसे खुश करने के लिए आपको उसे भोजन देना पड़ता है। दु:खी को मात्र आश्वासन के दो शब्द बोल कर प्रसन्न नहीं किया जा सकता। उसे प्रसन्न करने के लिए आपको सक्रिय बलिदान देना पड़ता है। संक्षिप्त में, दुनिया को आप यदि खुश करना चाहते हो तो उसका एक ही विकल्प है - सेवा । और सेवा का एक ही अर्थ है - सक्रिय बलिदान। यद्यपि, जगत को खुश करने के लिए सेवा करना यह अलग बात है और सेवा से जगत खुश होता है यह अलग बात है। घास उगाने के लिए किसान बोवनी करें यह अलग बात है और बोवनी करने से घास उग जाए यह अलग बात है। यहां हम जो बात कर रहे हैं वह दुनिया को खुश करने के लिए सेवा करने की नहीं, पर सेवा करने से दुनिया खुश होती है इस बारे में हैं। प्रश्न यह है कि ऐसा कौन सा तत्व है जो मन को सेवा करने के लिए उत्साहित करता रहता है ? उत्तर है - प्रेम। जैसे ढलान पानी को नीचे उतरने के लिए मजबूर करता ही है, वैसे प्रेम मन को सेवा करने के लिए उत्साहित करता ही रहता है। और मजे की बात तो यह है कि प्रेम मन को खुश रखता है और प्रेम के कारण होने वाली सेवा जगत को खुश रखती है। जवाब दो - चा

बार-बार के अभ्यास से मनुष्य नर में से नारायण बन जाता है bar bar ke abhyas se manushya nar main se Narayan ban jata hai

किसी भी सत्कार्य में प्रवृत्त होने की बात आती है तब नि:सत्व मन यह दलील करता है कि यह सत्कार्य संभव तो है, पर कठिन है। जबकि सात्विक मन यह दलील करता है कि यह सत्कार्य भले ही कठिन है, पर संभव है। जो नि:सत्व मन वाला है वह सत्कार्य प्रारंभ ही नहीं करता और शायद प्रारंभ कर भी दे तो उसमें कठिनाई का अनुभव होते ही कार्य को छोड़ देता है। जबकि, जो सात्विक मन वाला है वह सत्कार्य प्रारंभ तो करता ही है पर उसमें चाहे जितनी परेशानियां आने पर भी सत्कार्य जारी रखता है। कमाल का आश्चर्य तो तब होता है जब आरंभ में अत्यंत कठिन लग रहा सत्कार्य बार-बार के अभ्यास से अत्यंत सरल बन जाता है। इसका अर्थ ? यही कि जो सत्कार्य तुम्हें आज कठिन लगता है उसे यदि तुम सरल बना देना चाहते हो तो उस सत्कार्य को अभ्यास का विषय बना दो। बार - बार उस कार्य को तुम करते रहो। फिर देखो वह किस हद तक सरल बन जाता है ! यह पंक्ति तो पड़ी है ना ? " रस्सी आवत जात है, शील पर पडत निशान, करत - करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान " रस्सी बार-बार पत्थर पर आती है और जाती है तो पत्थर पर भी यदि निशान पड़ जाता है तो मनुष्य कितना भी जड़मति क्यों ना

प्रत्येक पल अत्यंत कीमती है, केवल उसे परखने वाली नजर चाहिए pratyek pal atyant kimati hai Keval use perakhne wali najar chahie

अपने करोड़ों का हीरा उपहार में दिया, पर पागल को ! आपने मर्सिडीज गाड़ी उपहार में दे दी, पर शराबी को ! क्या फायदा ? आपने पांच लाख मुफ्त में दे दिए, पर अंधे को ! क्या फायदा‌? प्रश्न यह नहीं है कि आपके पास क्या है ? प्रश्न यह है कि आपके पास जो भी है उसे पहचानने वाली, परखने वाली नजर आपके पास है भला ? वह यदि आपके पास है तो मिट्टी के व्यापार में भी आप करोड़पति बन सकते हो और वह आपके पास नहीं है तो हीरे - जवाहरात के व्यापार में भी आप दिवाला निकाल सकते हो। परंतु एक बात। प्रत्येक हीरा कीमती नहीं होता, प्रत्येक गाड़ी कीमती नहीं होती, प्रत्येक नोट कीमती नहीं होता, परंतु प्रत्येक पल ? प्रत्येक पल कीमती है। प्रत्येक समय ? प्रत्येक समय कीमती है। कारण ? प्रत्येक पल में आपको सज्जन, संत यावत् परमात्मा बना देने की क्षमता छिपी हुई है। शिष्टाचार द्वारा आप सज्जन बन सकते हो। सदाचार द्वारा आप संत बन सकते हो। समता द्वारा आप परमात्मा बन सकते हो। पर लाख रुपए का प्रश्न यह है कि समय की इस ताकत को पहचान सके ऐसी नजर हमारे पास है भला ? इस प्रश्न का उत्तर " ना " में है। यदि इस मंगल नजर के मालिक हम होते तो सम

तोड़ना सरल है, जोड़ना कठिन है todna saral hai jodna kathin hai

मकान का निर्माण करना है ? होशियार इंजीनियर को बुलाना पड़ेगा। मकान को तोड़ना है ? अकुशल मजदूर भी चलेगा। 200 पन्नों की पुस्तक लिखनी है ? बुद्धिमान लेखक की जरूरत पड़ेगी। उस पुस्तक को फाड़ना है ? मस्तीखोर लड़के से भी काम बन जाएगा। दीपक को प्रज्वलित करना है ? दिया, तेल, बाती, माचिस और बिना पवन वाली जगह की आवश्यकता पड़ेगी। दीपक को बुझाना है ? एक फूंक काफी है। यह समस्त वास्तविकता इतना ही इंगित करती हैं कि, सर्जन कठिन है, विध्वंस सरल है। निर्माण कठिन है, विनाश सरल है। प्रश्न यह है कि हमारी जीवनशैली कैसी है ? कैंची जैसी है या सुई जैसी ? एसिड जैसी है या मरहम जैसी ? नींबू जैसी है या जामन जैसी ? याद रखना, वस्तुओं को तोड़ने वाले और जोड़ने वाले तत्व अनेक प्रकार के हैं, परंतु संबंधों को तोड़ने वाला तत्व एक ही है जिसका नाम है अहंकार। और जोड़ने वाला तत्व भी एक ही है जिसका नाम है प्रेम। अपने भूतकाल की तरफ दृष्टि करके देखना। इस बात की तुम्हें स्पष्ट प्रतीत हो जाएगी कि संबंध में जहां भी अहंकार बीच में आया होगा उसने संबंध रूपी वस्त्र के लिए कैंची का ही काम किया होगा और जहां भी प्रेम हाजिर हो गया होगा उसने

पैसे का नाम भले "अर्थ" है पर अनेक अनर्थो का मूल यही है paise ka naam bhale arth hai per anek anartho ka mul yahi hai

युवक का नाम " अर्जुन " हो और कुत्ते के भौंकने की आवाज सुनते ही वह भाग खड़ा होता हो ऐसा हो सकता है। बच्चे का नाम " भीम " हो और बात - बात में वह रोने लगता हो ऐसा हो सकता है। बस इसी तर्ज पर पैसे का नाम भले " अर्थ " हो पर दुनियाभर के अनर्थ सर्जित करने की उसमें पाशवी ताकत है इसमें कोई संदेह नहीं है। हालांकि, प्रश्न मन में यह आता है कि अर्थ अनर्थो का ही कारण है या सार्थकता का भी कारण है। जैसे जहर मृत्यु का ही कारण बनता है वैसे अर्थ क्या पापों का कारण ही बनता है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि जिसके पास पैसा आता है उसकी बुद्धि को प्राय: नष्ट किए बिना नहीं रहता। और भ्रष्ट बुद्धि वाला अनर्थकारी प्रवृत्तियों में प्रवृत्त हुए बिना नहीं रहता है। इसी कारण अर्थ को  "अनर्थो का मूल " यह कलंक लगा हुआ है। जवाब दो - पैसे बढ़ने के बाद प्रसन्नता बढ़ती है या उद्विग्नता  ? मित्र बढ़ते हैं या दुश्मन ? निर्भयता बढ़ती है या भयभीतता ? सरलता बढ़ती है या छल - कपट ? प्रेम बढ़ता है या द्वेष ? इन समस्त प्रश्नों का एक ही वाक्य में उत्तर देना तो यह कहा जा सकता है कि पैसे बढ़ने क

आचरण सुधारो तो स्थिति सुधर जाएगी aacharan sudharo to sthiti sudhar jayegi

कुपथ्य का त्याग करने पर शरीर की बिगड़ी हुई स्थिति सुधर जाती है। गलत जोखिम उठाना बंद करने पर व्यापार की बिगड़ी हुई स्थिति सुधर जाती है। अहंकार को प्राथमिकता न देने पर बिगड़े हुए रिश्तो की स्थिति सुधर जाती है। पौष्टिक द्रव्यों का सेवन शुरू करने पर शरीर की स्थिति और अधिक अच्छी हो जाती है। योग्य व्यापार में संपत्ति रोकने पर व्यापार की स्थिति और सुदृढ़ हो जाती है। संबंधों में सद् भाव और स्नेह को प्रधानता देने पर संबंध अधिक मजबूत हो जाते हैं। संक्षिप्त में, बिगड़ी हुई स्थिति को सुधारने के लिए और सुधरी हुई स्थिति को सुदृढ़ करने के लिए कृत्ति में अर्थात् आचरण में ठोस और सम्यक परिवर्तन करने ही पड़ते हैं। मात्र अच्छे विचार करते रहने से अथवा अच्छे शब्दों का प्रयोग करते रहने से स्थिति में सुधार नहीं आता है। याद रखना, कुएं में हो वही बाल्टी में आता है, यह कहावत पानी के लिए शायद सच होगी परंतु मनुष्य के लिए सच नहीं है। यह जरूरी नहीं है कि मनुष्य के मन में जो होता है वही उसके शब्दों में आता है और मनुष्य के शब्दों में जो होता है वही उसके आचरण में आता है। नहीं, विचार के क्षेत्र में सूअर का प्रतिनिधित्व

सद्गुणों के लिए दूसरों के सामने देखो, दुर्गुणों के लिए अपने अंदर देखो sadguno ke liye dusron ke samne Dekho, durguno ke liye Apne andar Dekho

मन के दो बहुत बड़े दोष हैं - स्व के प्रति आदर भाव और पर के प्रति नफरत भाव। स्व के प्रति आदर भाव इसलिए कि उसे अहंकार को पुष्ट करना है। और पर के प्रति नफरत के भाव इसलिए कि उसे द्वेष को और पुष्ट और पक्का करना है। यह कब संभव हो सकता है ? जब वह सद्गुण स्वयं में देखता है, और दुर्गुण सामने वाले में देखता है, लेकिन यह वृत्ति - प्रवृत्ति अत्यंत घातक है। क्योंकि, निरंतर पुष्ट होने वाला अहंकार किसी का मित्र बनने के लिए तैयार नहीं है और सतत पुष्ट होने वाला द्वेषभाव किसी को मित्र बनने नहीं देगा। किसी को मित्र बनाना नहीं और किसी के मित्र बनना नहीं है यह मानसिकता बन जाने के बाद जीवन में क्या बचता है ? याद रखना, फटे हुए दूध से मावा बन सकता है, कठोर पत्थर से प्रतिमा बन सकती है, पुराने कपड़ों से बर्तन मिल सकते हैं, पुरानी रद्दी के पैसे मिल सकते हैं पर कठोर एवं कृतध्न बन गए ह्रदय से कुछ भी अच्छा नहीं बनता, कुछ भी अच्छा नहीं मिलता। इस बुराई से स्वयं को मुक्त करना है ? यदि हां, तो दो काम विशेष रूप से करो - " दूसरा " जब भी आंखों के सामने आये उसमें रहे सद्गुण देखो। सद्गुण ने दिखे तो सद्गुण ढूंढो।

सौ बार बोलने की अपेक्षा एक बार का प्रत्यक्ष आचरण श्रेष्ठ है so bar bolane ki apeksha ek bar ka pratyaksh aacharan shreshth hai

मेरी आंखों से मुझे जो दिख रहा है वह पानी है या पेट्रोल, इसकी प्रतीति मुझे तभी होगी जब मैं उसका अलग प्रकार से प्रयोग करके देख लेता हूं। मैं जो भी बोल रहा हूं वह कोरी बकवास है या उसमें मेरी निष्ठा है, इस बात की लोगों को प्रतीति तभी होती है जब मेरा आचरण में जो बोलता हूं उसके अनुरूप ही होता है। मन की एक चालकी  विशेष रूप से समझने की आवश्यकता है। आदर्श के आसमान में उड़ते रहने में उसे जितनी रुचि है उसके लाखवें  हिस्से की रूचि भी उसे आचरण की धरती पर चलने में नहीं है। अच्छा प्रस्तुत करने, अच्छा प्रचारित करने में जितनी रुचि है उसके लाखवें हिस्से की रुचि अच्छा बनने में नहीं है। कारण ? आदर्श के आसमान में उड़ने के लिए कुछ नहीं करना पड़ता जबकि आचरण की धरती पर चलने के लिए मन को मारना पड़ता है। और काया को कष्टों के लिए तैयार करना पड़ता है। बस, इसी तरह, स्वयं को अच्छा दिखाने के लिए केवल अच्छी-अच्छी बातें ही करनी पड़ती है या लच्छेदार व्यक्तित्व ही देना पड़ता है जबकि अच्छा बनने के लिए तो सुख - सुविधाओं का बड़ा बलिदान देना पड़ता है। परंतु यह बात अच्छी तरह से याद रखना कि स्वच्छ चादर के आवरण तले सामने वाले

बीते हुए समय का रोना रोने की बजाय आने वाले समय का स्वागत करो beete hue samay ka Rona Rone ki bajaye aane Wale samay ka swagat karo

भूतकाल विधवा स्त्री जैसा है, उसके पीछे रोते रहने का कोई अर्थ नहीं है। भविष्य काल कुंवारी कन्या जैसा है, उससे डरते रहने का कोई अर्थ नहीं है। वर्तमान काल सौभाग्यवती स्त्री जैसा है, उससे भागते रहने का कोई अर्थ नहीं है। परंतु, परेशानी तो यह है कि मन को या तो भूतकाल की स्मृति में या फिर भविष्य की कल्पना में ही रमना अधिक लगता लगता है। और तो और, भूतकाल की स्मृति में भी वह कटु भूतकाल की स्मृति में ही रमता रहता है और भविष्य की कल्पना में भी वह खराब भविष्य की कल्पना में ही रमता रहता है। परिणाम ? प्राप्त हुए सुंदर वर्तमान के सदुपयोग के अवसरों का बलिदान ! एक बात याद रखना कि आज तक अनंतकाल व्यतीत हो चुका है इसके बावजूद " आने वाला कल " कभी नहीं आया। जब भी आया है " आज " ही आया है । और सुखद आने वाले कल की कल्पना में मानव अनंत अनंतकाल से सशक्त "आज" का बलिदान देता ही आया है। इस जन्म में हमें इस भूल को सुधार ही लेना चाहिए। किसी अज्ञात अंग्रेजी लेखक के काव्य की डॉ वसंत पारीख द्वारा अनुवादित इन पंक्तियों में यही संदेश दिया गया है - " इस दर्दील दुनिया में एक ही फेरे में, एक

एक दूसरे को सुखी करने का प्रयत्न करना, यही सब के सुखी होने का राजमार्ग है ek dusre ko sukhi karne ka prayatn karna yahi sab ke sukhi hone ka rajmarg hai

कोई व्यक्ति क्या है, यह जानने के लिए दो मुख्य कसौटी है। उसके पास जब कुछ नहीं होता तब स्वयं के लिए वह क्या सोचता है ? यह पहली कसौटी और स्वयं के पास बहुत - कुछ होता है तब दूसरों के लिए क्या सोचता है ? यह दूसरी कसौटी। संक्षिप्त में, दु:ख के समय अपने लिए कौन सा विचार और सुख के समय में दूसरों के लिए कौन सा विचार ? मनुष्य की श्रेणी पता करने की यह दो मुख्य कसौटी है। सामान्यतः ऐसा देखा गया है कि दु:ख के समय में व्यक्ति दूसरों पर दोषारोपण करके अपने दु:ख को हल्का(?) करने का प्रयत्न करता रहता है। और सुख के समय अपने सुख को खुद तक सीमित रख कर सुख को सुरक्षित रखने का भ्रम पालता रहता है। पर वास्तविकता यह है कि स्वयं के दु:ख की जिम्मेदारी खुद स्वीकार कर लेना यही दु:ख को हल्का करने का यावतृ दु:खमुक्त होने का श्रेष्ठ उपाय है। जबकि खुद के सुख को दूसरों तक पहुंचाते रहने के प्रयत्न करते रहना यही सुख को सुरक्षित कर देने का श्रेष्ठ उपाय है। दु:ख की बात हम बाद में करेंगे। पहले यह बताओ कि जब भी जीवन में सुख आता है तो उसे संग्रहित करने का मन होता है या उसको सदुपयोग करने का ? उसे रखने का मन होता है या सभी को बां

जिसके पास धैर्य रूपी धन नहीं है, उसके जैसा निर्धन इस दुनिया में और कोई नहीं है jiske pass dhairya rupaye dhan Nahin hai,Uske jaisa nirdhan is duniya mein aur koi nahin hai

जमीन में तुम आज गुठली बोओ, आम के दर्शन के लिए तुम्हें धीरज रखनी ही पड़ेगी। बैंक में तुम आज पैसे जमा करो, ब्याज पाने के लिए तुम्हें धीरज रखनी ही पड़ेगी। स्त्री आज गर्भवती बने, पुत्र दर्शन के लिए उसे धीरज रखनी ही पड़ेगी। रात को दूध में जामन डालती है, दहीदर्शन के लिए उसे धीरज रखनी ही पड़ती है। साधक आज साधना करता है, सिद्धि के लिए उसे धीरज रखनी ही पड़ती है। संपत्ति को, सत्ता को, सौंदर्य को, सफलता को " धन " मानने के लिए मन तैयार है, पर धीरज को " धन " मानने के लिए मन तैयार नहीं  है। और इसका ही यह दुष्परिणाम है कि आज का मनुष्य सतत अशांति में जी रहा है। हताशा, निराशा और उद्विग्नता मानो उसके जीवन के अंग बन गए हैं। पुरुषार्थ करने की उसमें जितनी लगन होनी चाहिए उसकी अपेक्षा परिणाम प्राप्त कर लेने की लगन उसमें अधिक दिखाई देती है। परिणाम के लिए वह जितना अधिक बेसब्र बनता है परिणाम उससे उतना ही दूर भागता है। यह बात अच्छे से समझ लेना कि, मनुष्य जितना अधिक अधीर उतना ही अधिक अधूरा। पानी की प्राप्ति के लिए एक व्यक्ति ने पांच फीट गहरा गड्ढा खोदा। पानी नहीं दिखा। वह गड्ढा अधूरा छोड़कर दू

जीवन में आनंद और उत्साह लाने वाली मित्रता जैसे दूसरी कोई चीज नहीं है jivan mein Anand aur utsah laane wali mitrata Jaise dusri koi chij Nahin hai

दीवार खड़ी कर दो और पुल बना दो। प्रसन्नता में फर्क पड़ेगा या नहीं ? मशीन में रेत डाल दो और तेल डाल दो। मशीन की कार्यशैली में फर्क पड़ेगा या नहीं ? दूध में नींबू डाल दो और जामन डाल दो। दूध के रूपांतरण में कोई फर्क पड़ेगा या नहीं ? जीवों के साथ तुम यदि मित्रता करते हो तो तुम जमीन पर पुल बनाते हो, मशीन में तेल डालते हो और दूध में जामन डालते हो, परंतु यदि किसी के साथ तुम दुश्मनी करते हो तो तुम जमीन पर दीवार खड़ी कर रहे हो, मशीन में रेत डाल रहे हो और दूध में नींबू डाल रहे हो। मन में प्रश्न प्रश्न तो यह पैदा होता है कि फूल की सुगंध की चाह रखने वाला मनुष्य गटर की ओर जाने के लिए कदम नहीं उठाता है, संपत्ति अर्जित करने की चाह रखने वाला मनुष्य डाकू की ओर दोस्ती का हाथ नहीं बढ़ाता है तो फिर आनंद की अनुभूति की चाह रखने वाला मनुष्य जीवों के साथ मित्रता न करते हुए दुश्मनी क्यों कर बैठता होगा ? क्या कहूं ? पांव में धंसा हुआ कांटा न निकला हो तो भी प्रसन्नता पूर्वक चलने में शायद सफलता मिल सकेगी परंतु जीवों के प्रति दुश्मनी के  भाव को मन में संग्रहित रखकर प्रसन्नता पूर्वक जीने में सफलता मिले ऐसी कोई संभा

Soch Kar Bolo Bolane Ke Bad suchna Pade Aisa Mat Bolo

Bhojan prarambh karne se pahle  samajhdar vyakti Soch leta hai ki, " yah bhojan mere swasthya ke liye hanikarak to sabit Nahin Hoga Na ?" Kisi vyapar mein sampatti lagane se pahle manav nishchit roop se Soch leta hai ki, " is vyapar mein lagai hui sampatti mujhe nuksani mein Nahin Dal degi na ?" raste per kadam rakhne se pahle manav vishesh roop se Soch leta hai ki, " is Disha mein badhane wale kadam mujhe gumrah to Nahin kar denge na ?" parantu …… mukhya mein se shabd bahar nikalne se pahle manav paraayaa Nahin sochta ki yah shabd samne wale vyakti aur mere bich ke sambandh ke liye nuksan dayak to sabit Nahin honge na ? " andhe ke putra andhe hi hote hain " yah shabd bolane se pahle dropadi ne Uske sambhavit parinaam ke bare mein Soch liya hota to mahabharat ke yuddh ko janm dene mein nirmit banne wale aise shabd bhala vah bol paati ? hargiz Nahin . kya kahun ? khel - khel mein machis petrol per Rakh dena aur aag lagne ke bad chik pukar karna, i

दूसरों के आंसू पोंछने का प्रयत्न करना यही सच्ची कीर्ति है dusron ke aansu pahunchne Ka prayatn Karna yahi sacchi Kirti hai

विपुल संपत्ति, असीम सत्ता, गजब का सौंदर्य, अद्भुत पराक्रम ये सब कीर्ति के कारण अवश्य है, पर यह सभी कारण स्थायी नहीं है। किसी भी क्षण तुम भिखारी बन सकते हो, किसी भी क्षण तुम सत्ताभ्रष्ट हो सकते हो, किसी भी पल तुम्हारे सौंदर्य में कमी आ सकती है और किसी भी क्षण तुम्हारा शरीर में तुम्हें धोखा दे सकता है। और ऐसी स्थिति में तुम्हारी कीर्ति मिट्टी में मिले बिना नहीं रहती है। परंतु……. कीर्ति का एक कारण ऐसा है जिसकी वजह से तुम्हारी बिदाई के बाद भी लोगों के दिल में, लोगों की जुबान पर तुम्हारा नाम रहता है। और वह कारण है - दूसरों के आंसू पोंछने का प्रयत्न। दूसरों के सुख के लिए तुम कितने प्रयत्न करते हो यह इतना महत्वपूर्ण नहीं है, पर दूसरों के दु:ख को दूर करने के लिए तुम कितने प्रयत्नशील हो यह अधिक महत्वपूर्ण है। आंसू और हास्य के क्षेत्र में दो प्रकार के व्यक्तियों को श्रीमंत मानता हूं। सामने वाले के आंसू देखकर स्वयं के चेहरे का हास्य गायब हो जाए, वह प्रथम नंबर का श्रीमंत व्यक्ती है। और सामने वाले के चेहरे का हास्य देखकर स्वयं की आंखों के आंसू सूख जाएं, वह दूसरे नंबर का श्रीमंत व्यक्ती। इन दो प्रका

इंद्रियां शत्रु है, पर उन्हें जीत लो तो मित्र हैं indriya shatru hai per unhen jeet lo to Mitra Hain

युद्ध के मैदान में खूंखार दुश्मन पर विजय प्राप्त कर तुम उसे पराजित कर सकते हो, पर उसे मित्र तो नहीं ही बना सकते। कातिल एक जहरीले सांप को मंत्रप्रयोग या किसी अन्य उपाय से तुम वश में कर सकते हो, पर मित्र तो नहीं ही बना सकते हैं। परंतु…. इंद्रियां ऐसी हैं कि जीने तुमने मनमाफिक करने की खुली छूट दे दी तो वे दुश्मन बनकर तुम्हारी हालत बिगाड़ देती है और यदि तुमने उन्हें वश में कर लिया तो मित्र बनकर वे तुम्हें निहाल कर देती हैं। एक महत्वपूर्ण बात बताऊं ? इंद्रिय, इच्छा, तृष्णा और अपेक्षा यह चारों "स्त्रीलिंग" है। इनके अधीन बने अच्छे-अच्छे शूरवीरों की इन्होंने हालत खराब कर दी है। और इन पर जिन्होंने भी नियंत्रण लगा दिया है उन सभी को इन्होंने प्रसन्नता के गगन में विचरण करा दिया है। हालांकि, हमारे पास एक भी शस्त्र ना हो और दुश्मन के पास एके-47 हो तो भी उस पर विजय प्राप्त करना एक बार सरल है, पर साधना की अद्भुत पूंजी जिसे प्राप्त हो ऐसे साधक को भी नि:शस्त्र इंद्रियों पर विजय पाना मुश्किल है। कारण ? सुख के जो भी अनुभव इस जीवन जीव को हुए हैं वे तमाम अनुभव इंद्रियों के माध्यम से ही हुए हैं, और

शिक्षा, समाज परिवर्तन का प्रभावशाली साधन है shiksha samajik parivartan ka prabhavshali sadhan hai

माना की खुराक तंदुरुस्ती का प्रभावशाली साधन है परंतु, पेट में जाने वाला खुराक यदि सड़ा हुआ हो तो ? शरीर को स्वस्थ बनाने के बदले बीमार बना देगा, बिगाड़ देगा। माना कि शिक्षा, समाज परिवर्तन का प्रभावशाली साधन है, पर कौनसी शिक्षा ? अधिकार की बात उतनी न करती हो जितनी जिम्मेदारी की बात करती हो वह शिक्षा। स्वतंत्रता की बात उतनी न करती हो जितनी संयम की बात करती हो वह शिक्षा। स्वार्थपुष्टि की बात उतनी न करती हो जितनी पदार्थ की और परमार्थ की बात करती हो वह शिक्षा। जवाब दो - आज की शिक्षा में तुम्हें यह सब दिखता है भला ? जैसे कार्य से कारण का अनुमान किया जाता है वैसे इस शिक्षा पद्धति के तहत शिक्षित हो रही युवा पीढ़ी की विचारशैली और जीवनशैली देख लो। तुम्हें ख्याल आ जाएगा कि शिक्षा में ही कुछ गड़बड़ है। यह बात तो तुम जानते हो ना कि समाज को यदि प्रभावशाली बनाना है तो समाज के बीच प्रभावशाली विचार प्रस्तुत करने पड़ते हैं, और प्रभावशाली विचार प्रभावशाली शिक्षा के बिना पैदा नहीं होते। पानी जिस रंग की मिट्टी पर से बहता है वैसा ही रंग धारण कर लेता है। व्यक्ति को जैसी शिक्षा मिलती है वैसे ही उसके विचार हो

विद्या के मोती चुगने वाला राजहंस, उसका ही नाम विद्यार्थी Vidya ke Moti chugan wala rajhans uska hi naam vidyarthi

व्यसनों से, विलास से और वासना से जो मुक्ति दे रहा है उसका नाम विद्या। तुम्हारे पास जो है, जितना है उससे तुम्हें तृप्ति की अनुभूति कराती रहे उसका नाम है विद्या। और परिस्थिति कैसी भी सामने आ जाए तुम्हारी प्रशंसा में कमी ना आने दे उसका नाम है विद्या। संक्षिप्त में, जिससे तुम्हें मुक्ति, तृप्ति, एवं प्रसन्नता ये तीनों सहज सुलभ होती रहें उसका नाम है विद्या। गंभीर और महत्वपूर्ण प्रश्न जो है वह यह है कि आज के स्कूलों और कॉलेजों में बच्चों और युवाओं को जो परोसा जा रहा है उसे   "विद्या" का नाम दिया जा सकता है भला ? के.जी. से लेकर एम.बी.ए तक के अभ्यास क्रम में एक भी पाठ ऐसा है भला कि जिसमें मुक्ति, तृप्ति और मस्ती पर पर्याप्त प्रमाण में जोर दिया गया हो ? दु:ख के साथ इस प्रश्न का उत्तर देना पड़ता है " ना " अरे, ऐसी शिक्षा ग्रहण करके दुनिया के बीच आने वाले युवाओं के जीवन में मुक्ति के स्थान पर स्वच्छंदता, तृप्ति के स्थान पर भयंकर  अतृप्ति और मस्ती के स्थान पर निराशा - हताशा और उव्देग, यह सब देखने को मिल रहा है। दूध अच्छा है पर पेट बिगड़ा हुआ है। ऐसे में दस्त लग जाए तो दूध को दो

बुढ़ापे से बचने का यह एकमात्र उपाय है budhape se bachne ka yah ekmatra upay hai

मुंह पर झुर्रियां, कानों में बहरापन, आंखों में धुंधलापन, पावों में शिथिलता, पाचनशक्ति कमजोर, बाल सफेद एवं दांत गायब ! यह सब वृद्धत्व की निशानी है ऐसा हम मानते हैं, पर यहां तो वृद्धत्व को एक अलग ही नजरिए से देखा गया है - नया - नया सीखते रहने के तुम्हारे उत्साह का वाष्पीकरण हो गया है तो निश्चित समझ लेना कि तुम वृद्ध हो गए हो। संक्षिप्त में, शिथिल अंगोपांग, यह शरीर का वृद्धत्व है पर शिथिल उत्साह, यह तो मन का वृध्दत्व है। शरीर के वृद्धत्व  को चक्रवर्ती भी नहीं रोक सकते, पर मन के वृद्धत्व को यदि हम रोकना चाहते हैं तो इसमें हमें शत-प्रतिशत सफलता मिल सकती है। परंतु विडंबना यह है कि शरीर के वृद्धत्व की घोषणा करने वाले बाल सफेद हो जाते हैं तो हम उन्हें काले करवाने के प्रयत्नों में लग जाते हैं। कानों में बहरापन आ जाता है तो मशीन लगा लेते हैं। अंगोपांग शिथिल होने लगते हैं तो शक्तिवर्धक दवाइयां लेने लगते हैं। और इन सबके बावजूद शरीर वृध्दत्व का शिकार बनकर ही रहता है। पर मन के वृध्दत्व, जिसे हम निश्चित रूप से चुनौती दे सकते हैं, जीवन के अंत समय तक जिसके शिकार बनने से हम बच सकते हैं उसे चुनौती देने क

बड़प्पन उम्र से नहीं अच्छे कर्मों से सिद्ध होता है badappan umra se nahin acche karmon se siddh hota hai

बड़ा तो गधा भी हो जाता है और कुत्ता भी हो जाता है, गुंडा भी हो जाता है और दुर्जन भी हो जाता है, चोर भी हो जाता है और व्यभिचारी भी हो जाता है। मात्र समय व्यतीत होता है और यह सभी बड़े हो जाते हैं। परंतु, यह " बड़प्पन " न तो गौरवप्रद बनता है और न ही किसी के लिए आलंबन रूप बनता है। परंतु…… एक बड़प्पन ऐसा है कि जिसका संबंध समय के साथ नहीं, पर सत्कार्यों के साथ है। उम्र के साथ नहीं, पर विवेक के साथ है। यह बड़प्पन गौरवप्रद भी बनता है और अनेकों के लिए आलंबन रूप भी बनता है। एक सनातन सत्य हमें आंखों के सामने रखना है और वह यह है कि   जिंदगी की लंबाई बढ़ाने के लिए हम कुछ भी नहीं कर सकते लेकिन हमारे हाथ में यह दो चीजें हैं - जिंदगी की चौड़ाई हम बढ़ा सकते हैं, जिंदगी की गहराई हम बढ़ा सकते हैं। जीवन को यदि हम सत्कार्यों से महका रहे हैं तो हमारे जीवन की चौड़ाई बढ़ रही है और उन सत्कार्यों के फल - स्वरुप यदि हमारे मन की प्रसन्नता बनी रहती है तो हमारे जीवन की गहराई बढ़ रही है। पर कैसी दयनीय दशा है हमारी ? जीवन की इस जिस लंबाई को बढ़ाने में स्वयं परमात्मा को भी सफलता नहीं मिली उस लंबाई को बढ़ाने

जो मेरा है वह सत्य नहीं है पर जो सत्य है वही मेरा है Jo Mera hai vah Satya Nahin hai per Jo Satya hai vahi Mera hai

एक सत्य है, जिसका नाम है " आभासिक सत्य "। जो वास्तव में सत्य ना होने के बावजूद सत्य लगता है उसका नाम है आभासिक सत्य। रेगिस्तान में पानी नहीं होता इसके बावजूद हिरण को पानी का दर्शन होता है यह आभासिक सत्य। एक दूसरा सत्य है जिसका नाम है  "व्यवहारिक सत्य"। व्यवहार चलाने के लिए जो सत्य उपयोगी होता है उसका नाम है - व्यवहारिक सत्य। मेरा नाम या व्यवहारिक सत्य हैं। पिता - पुत्र का संबंध यह व्यवहारिक सत्य है। घर का पता यह व्यवहारिक सत्य हैं। एक तीसरा सत्य हैं जिसका नाम है, " पारमार्थिक सत्य " आत्मा, आत्मा का स्वरूप, आत्मा के गुण, यह है पारमार्थिक सत्य। संक्षिप्त में, जो वर्तमान में नहीं है इसके बावजूद उसकी उपस्थिति महसूस होती है वह है आभासिक सत्य। और जो भूत - भविष्य - वर्तमान तीनों काल में है वह है पारमार्थिक सत्य। अब जवाब दो कि पारमार्थिक सत्य के लिए कहीं लड़ाई संभावित है भला ? नहीं। लड़ाई के केंद्र में या तो आभासिक सत्य हो सकता है या फिर व्यवहारिक सत्य हो सकता है और वह भी तब जबकि उस सत्य को पारमार्थिक सत्य मान लिया जाए। एक बात बताऊं ? कौन सच्चा है इसके बदले क्या स

नम्रता मनुष्य का श्रेष्ठ आभूषण है Namrata manushya ka shreshth abhushan hai

हवा बंद होने पर आकाश से धरती पर आ गिरने वाले कागज की नम्रता गौरवप्रद नहीं बनती, पर फलों की वृद्धि होने से झुक जाने वाली वृक्ष की डाली गौरवप्रद बन जाती है। सिर पर अत्यधिक बोझ होने के कारण झुक - झुककर चलने वाले मजदूर की नम्रता को कोई " नम्रता " नहीं कहता, परंतु बेतहाशा संपत्ति होने के बावजूद छोटे लोगों को स्मित देने वाली श्रीमंत की नम्रता को "नम्रता" कहते हुए सब गद् गद्  हो जाते हैं। याद रखना, " कृतज्ञता " यदि जीवन रूपी शरीर की चमड़ी है, " उदारता " यदि जीवन रूपी शरीर के वस्त्र है तो " नम्रता " जीवन रूपी शरीर का श्रेष्ठ आभूषण है । चमड़ी जन्म के समय ही मिल जाती है। वस्त्र भी जन्म के कुछ ही पलों में मिल जाते हैं, परंतु आभूषण पाने के लिए बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है। नम्रता यदि आभूषण है तो उसे प्राप्त करने के लिए जो कीमत चुकानी पड़ती है उसका नाम है अहंकार। तुमने मिठाई में " नमक " की उपस्थिति का अनुभव कभी नहीं किया होगा, शक्कर में " नीम " के प्रवेश की बात कभी नहीं सुनी होगी, चंदन में " दुर्गंध " की मौजूदगी की अन

नाम रखना सरल है, नाम कमाना कठिन है naam rakhna saral hai naam kamana kathin hai

" भीम " यह नाम पाने के लिए कोई पराक्रम नहीं करना पड़ता, परंतु प्राप्त हुए इस नाम को सार्थक करने के लिए पराक्रमी बने बिना नहीं चलता है। " " महावीर " यह नाम तो दो कौड़ी के व्यक्ति को भी मिल सकता है, परंतु प्राप्त हुए इस नाम को चरितार्थ करने के लिए जान की बाजी लगा देनी पड़ती है। कहने का तात्पर्य इतना ही है कि शिखर पर बैठने का सौभाग्य तो कौवे को भी मिल जाता है परंतु शिखर पर गरुड़ का बैठना अलग बात है और कौवे का बैठना अलग बात। आकाश में उड़ने का सौभाग्य तो फटे हुए कागज के टुकड़े को भी मिल जाता है, परंतु आकाश में उड़ना गरुड़ के लिए अलग होता है और कागज के टुकड़े के लिए अलग होता है। क्योंकि, एक के पास प्राप्ति है, दूसरे के पास पात्रता है। एक के पास केवल संयोग है, दूसरे के पास क्षमता है। इस संदर्भ में एक अत्यंत गंभीर बात दृष्टि के समक्ष रखने की आवश्यकता है - पात्रता बिना का लाभ गैरफायदे का एवं पात्रता बिना की प्राप्ति पतन का कारण बन जाए ऐसी पूरी पूरी संभावना है। सुभाषित की यह पंक्ति यही बात कहती है - "उत्तम वस्तु बिना अधिकार के मिले, तदापि अर्थ है उसका कुछ नहीं, मत्स

ज्ञान संग्रह करने का प्रबल साधन है पठन gyan sangrah karne ka prabal sadhan hai Pathan

गेहूं, ज्वार, बाजरे का संग्रह करने का साधन कोठी है। आभूषण के संग्रह का साधन तिजोरी है। पैसे का संग्रह करने का साधन जेब है। स्याही का संग्रह करने का साधन दवात है। इसी तरह ज्ञान का संग्रह करने का साधन पठन है। संग्रह का तात्पर्य क्या है ? संग्रह का प्रायोजन क्या है ? उत्तर है - सुरक्षा ! कोठी में संग्रहित होने वाला अनाज सुरक्षित हो जाता है। तिजोरी में संग्रहित होने वाला आभूषण सुरक्षित बन जाता है। जेब में संग्रहित होने वाला पैसा सुरक्षित हो जाता है। दवात में संग्रहित होने वाली स्याही सुरक्षित हो जाती है। ठीक इसी तरह पठन में संग्रहित होने वाला ज्ञान सुरक्षित हो जाता है। एक बात सतत दृष्टि के समक्ष रखने की आवश्यकता है और वह यह है कि, आज हमारे पास जो भी ज्ञान है वह या तो दीपक जैसा है या फिर बगीचे में खिलने वाले पौधे जैसा है। दीपक को सतत प्रज्वलित रखने के लिए जैसे उसमें तेल या घी डालना पड़ता है, विकसित हो रहे पौधे को धरती पर टिकाए रखने के लिए जैसे उसे पानी से निरंतर सींचते रहना पड़ता है वैसे ही हमारे पास रहे हुए ज्ञान को हृदय में स्थिर करने के लिए हमें सतत पठन करते ही रहना पड़ता है। परंतु दु:ख

दूसरों को जो पीड़ा नहीं देता वही सच्चे अर्थ में सज्जन है dusron ko Jo pida Nahin deta vahi sacche arth mein sajan hai

मेरे पास यदि संपत्ति हो तो मैं श्रीमंत हूं, बल हो तो मैं बलवान हूं, कला हो तो मैं कलाकार हूं, बुद्धि हो तो मैं बुद्धिमान हूं, होशियारी हो तो मैं चालाक हूं, सत्ता हो तो मैं सत्ताधीश हूं, परंतु……. सद्गुण हो तो मैं सज्जन ही हूं यह जरूरी नहीं है। मायावी के पास भी सद्गुण हो सकते हैं। मेरे जीवन में सत्कार्य हो तो मैं सज्जन ही हूं यह जरूरी नहीं है। गुंडे के जीवन में भी सत्कार्य हो सकते हैं। परंतु….. दूसरों को यदि मैं पीड़ा नहीं देता, परेशान नहीं करता, दु:ख नहीं पहुंचाता तो मैं सज्जन हूं ही। क्रिकेट जगत की एक महत्वपूर्ण बात तुम जानते हो ? सबसे अच्छा खेलने वाला, खिलाड़ी बन सकता है, पर जरूरी नहीं है वह कैप्टन भी बन सके। कैप्टन तो वही बन सकता है जो सभी खिलाड़ियों को अच्छा खिलवा सकता है। संपत्ति, सत्ता या सौंदर्य तुम्हारे पास अधिक हो मात्र इससे तुम सज्जन नहीं बन सकते। सबको सुख देते रहने की, सबको प्रसन्न बनाते रहने की, सबको शांति देते रहने की तुम्हारी वृत्ति - प्रवृत्ति ही तुम्हें सज्जन बना सकती है। इस दुनिया में चार प्रकार के जीव हैं। दूसरों को सुख देकर जो प्रसन्नता का अनुभव करते हैं वह प्रथम नंबर

आत्मा को जो अमर नहीं मानता वही मृत्यु से डरता है atma ko jo Amar nahin manta vahi mrutyu se darta hai

शरीर, मन एवं आत्मा इन तीनों का संगम इसी का नाम है वर्तमान जिंदगी। पर मुश्किल यह है कि इन तीनों का स्वभाव विचित्र है - शरीर परतंत्र है - खुराक के बिना, पानी के बिना, हवा के बिना और बीमार पड़े तो दवाई के बिना यह टिक नहीं सकता। जबकि आत्मा स्वतंत्र है - वह किसी भी वस्तु के बिना, व्यक्ति के बिना, सामग्री के बिना या संयोग के बिना मजे से अपने अस्तित्व को टीका सकती है, परंतु मन ? वह स्वतंत्र भी है और परतंत्र भी है - वह यदि आत्मा के पक्ष में है तो स्वतंत्र है और यदि शरीर के पक्ष में है तो परतंत्र है। अर्थात ? अर्थात यह कि मन यदि चौबीसों घंटे शरीर के विचारों में खोया रहता है तो वह रोग के, वृद्धावस्था के और मृत्यु के आगमन के विचारों से डरता ही रहेगा, पर यदि उसे चौबीसों घंटे आत्मा ही दिखती रहती हो तो रोग, वृद्धावस्था या मृत्यु की कल्पना तो क्या, उन तीनों की वास्तविक उपस्थिति में भी वह निर्भय ही रहेगा। संदेश स्पष्ट है। चाहे कितना भी ध्यान रखो, कितनी ही सार - संभाल करो, शरीर को तुम स्वतंत्र नहीं बना सकोगे। उसकी मृत्यु होगी ही। वह राख में रूपांतरित होगा ही। दूसरी ओर, तुम चाहे कितने भी लापरवाह रहो, आत

ज्ञान का अंतिम लक्ष्य चरित्र निर्माण ही होना चाहिए Gyan ka antim Lakshya Charitra Nirman hi hona chahie

भोजन का लक्ष्य, क्षुधाशांति। पानी पीने का लक्ष्य, तृषाशांति। दवासेवन का लक्ष्य, रोगशांति। बातचीत - चर्चा का लक्ष्य, कलहशांति। व्यापार का लक्ष्य, फायदे की प्राप्ति। संबंधों का लक्ष्य, प्रेम और आश्वासन की अनुभूति। पर….. ज्ञान का लक्ष्य? चरित्र का निर्माण। अलग-अलग दृष्टिकोण से इसके अलग-अलग उत्तर दिए जा सकते हैं, पर चरित्र निर्माण की सरलता से सहज समझ में आ जाए ऐसी व्याख्या करनी हो तो यह कह सकते हैं कि, अंधेरे में स्वयं के सामने और उजाले में शिष्टपुरुषों के सामने लेशमात्र अपराध भाव के बिना प्रसन्नतापूर्वक बहादुरी से खड़े रह सकें ऐसी जीवन पद्धति का नाम है चरित्र। इस व्याख्या के आधार पर हमें आत्मनिरीक्षण करने की आवश्यकता है। ऐसा निंद आचरण - जिसकी भले ही किसी को जानकारी न हो - हमारे जीवन में नहीं है ना जो अंतःकरण की अदालत में खुद को अपराधी साबित करता हो ? ऐसा कोई निंद आचरण हमारे जीवन में तो नहीं है ना कि जो शिष्टपुरुषों की नजरों में गिरा देता हो ? खुद के पास सम्यक् समझ होने का यदि हमारा दावा है, हमारे पास जो भी समझ है  उसे यदि हम " ज्ञान " मान बैठे हैं तो चरित्रनिर्माण का लक्ष्य, उस

सोच कर बोलो, बोलने के बाद सोचना पड़े ऐसा मत बोलो soch kar bolo bolane ke bad sochna pade Aisa mat bolo

‌ भोजन प्रारंभ करने से पहले समझदार व्यक्ति सोच लेता है कि, " यह भोजन मेरे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक तो साबित नहीं होगा ना ?" किसी व्यापार में संपत्ति लगाने से पहले मानव निश्चित रूप से सोच लेता है कि, " इस व्यापार में लगाई हुई संपत्ति मुझे नुकसानी में नहीं डाल देगी ना ?" रास्ते पर कदम रखने से पहले मानव विशेष रूप से सोच लेता है कि, " इस दिशा में बढ़ने वाले कदम मुझे गुमराह तो नहीं कर देंगे ना ?" परंतु….. मुख में से शब्द बाहर निकालने से पहले मानव प्रायः यह नहीं सोचता कि यह शब्द सामने वाले व्यक्ति और मेरे बीच के संबंधों के लिए नुकसानदायक तो साबित नहीं होंगे ना ? "  अंधे की पुत्र अंधे ही होते हैं " ये शब्द बोलने से पहले द्रोपदी ने उसके संभावित परिणाम के बारे में सोच लिया होता तो महाभारत के युद्ध को जन्म देने में निमित्त बनने वाले ऐसे शब्द भला वह बोल पाती ? हरगिज़ नहीं । क्या कहूं ? खेल-खेल में माचिस पेट्रोल पर रख देना और आग लगने के बाद चीख-पुकार करना,  इसकी बजाय माचिस पेट्रोल पर रखने से पहले गंभीरता से सोच लेना, यही समझदारी का कार्य है। परिणाम के ब

अभिमान के कारण बाहुबली का केवल ज्ञान पाने में अवरोध abhiman ke Karan bahubali ka keval gyan pane mein avrodh

दीक्षा अंगीकार करने के बाद बाहुबली जी निरंतर एक वर्ष तक कायोत्सर्ग की साधना में स्थिर रहे, अग्नि के समान दोपहर का सूरज उनके सिर पर तपता था, फिर भी वे अपने ध्यान से लेश भी नहीं डिगे। भयंकर गर्मी हो… चाहे भयंकर ठंडी हो… चाहे मूसलाधार बारिश हो… परंतु वह पर्वत की तरह निश्चल रहे। अनुकूल या प्रतिकूल कोई भी परिषह उनके मन को हिला न सका। कई लताएं उनके शरीर पर लिपट गई… कई पंखियों ने उनके शरीर पर घोसले बना दिए… फिर भी वे निश्चल रहे। इस प्रकार एक वर्ष पूरा हो जाने के बाद ऋषभदेव प्रभु ने अपनी पुत्री ब्राह्मी वह सुंदरी को कहा, 'अब समय पक चुका है' अतः तुम जाकर बाहुबली को प्रतिबोध दो… तुम्हारे वचनों से वह मान छोड़ देगा। उपदेश के लिए यह योग्य समय है। प्रभु की आज्ञा होते ही ब्राह्मी व सुंदरी साध्वी बाहुबली के पास आई। वृक्ष की भांति स्थिर खड़े बाहुबली को देखकर उन दोनों ने कहा, हे ज्येष्ट आर्य ! ऋषभदेव स्वामी ने आपको कहलाया है कि हाथी पर सवार पुरुष को कभी केवल ज्ञान नहीं होता। बाहुबली महामुनि ने जब यह शब्द सुने तो वे अचरज में पड़ गए। वे सोचने लगे, 'अहो मैंने तो सावधयोग का सर्वथा त्याग कर दिया

अहिंसा का सार है स्वयं जियो और जीने दो ahinsa ka sar hai swayam jio aur jeene do

भगवान महावीर की अहिंसा का सार है - "तुम स्वयं जिओ और दूसरों को भी आनंद से जीने दो" । पढ़ लेने से धर्म नहीं होता, पोथियों और पिच्छी से भी नहीं होता, किसी मठ में रहने से भी धर्म नहीं होता और केश लोच करने को भी धर्म नहीं कहा जाता। भौतिकता, मान, माया क्रोध, द्वेष, ईर्ष्या, धर्म का नाम नहीं है। धर्म तो आत्मा में है। उसे पहचानने से धर्म की प्राप्ति होती है। मनुष्य स्वयं तो जीने की कामना करता ही है पर उसे प्राणीमात्र के लिए भी अहिंसा मार्ग अपनाकर जीने की कामना करनी चाहिए। जैन तीर्थंकरों का आदर्श यहीं तक सीमित नहीं था। उनका आदर्श था, ' दूसरों को जीने में मदद करो।' तो जनसेवा के मार्ग से सर्वथा दूर रहकर एकमात्र भक्ति वाद के अर्थ शून्य क्रिया काण्डों में ही उलझा रहता है वह सच्चा मानव नहीं है। भगवान महावीर ने एक बार यहां तक कहा कि मेरी सेवा करने की अपेक्षा दीन दुखियों की सेवा करना है कहीं अधिक श्रेयस्कर है। मैं उन पर प्रसन्न नहीं हूं जो मेरी भक्ति करते हैं। मेरी आज्ञा है, 'प्राणीमात्र को सुख सुविधा और आराम पहुंचाना'। भगवान महावीर का महान ज्योतिमय संदेश आज भी हमारी आंखों

वेद पढ़ना आसान हो सकता है, लेकिन किसी की वेदना को पढ़ लिया तो समझो जीवन सफल हो गया। Ved padhna aasan ho sakta hai, lekin kisi ki vedna ko padh liya to samjho jivan safal ho gaya.

दया सबसे बड़ा धर्म है। जो जनों में कूट-कूट कर भरी है । दया का अर्थ है परोपकार, कृपा, रहम, मृदुता, करुणा, मानवता, दयालुता । बहुत पुरानी बात है, राजा भोज बहुत बड़े विद्वान थे। एक दिन उन्होंने अपने यहां बड़े-बड़े विद्वानों को भोजन के लिए आमंत्रित किया। राजा भोज ने उन सभी से आग्रह किया कि आप सभी लोग के अपनी जीवन में कोई न कोई आदर्श घटना हुई होगी। इसलिए आप सभी अपने जीवन की कोई आदर्श घटना एक-एक करके सुनाइए। तब सभी विद्वानों ने एक-एक करके अपनी आपबीती सुनाई। अंत में एक दीन हीन सा दिखने वाला विद्वान उठा और बोला - महाराज वैसे तो मैं इस सभा में आने लायक भी नहीं हूं परंतु मेरी पत्नी की आग्रह की वजह से मैं यहां आया हूं। मेरी जीवन में कोई विशेष घटना तो मुझे याद नहीं है मगर हाल ही में मैं जब यहां आ रहा था तो मेरी पत्नी मेरे लिए एक पोटली में चार रोटियां बांध दी थी।रास्ते में चलते चलते जब मुझे भूख लगी तो मैं खाना खाने बैठा मैंने सिर्फ एक ही रोटी खाई उसी समय मेरे पास एक कुत्तिया आकर बैठ गई वह बहुत भूखी मालूम हो रही थी मुझे उस पर दया आ गई और मैंने उसे एक रोटी दे दी। महाराज यही मेरी जीवन की आदर्श घटना है

जीवन का बसंत जवानी नहीं बुढ़ापा है jivan ka basant javani Nahin budhapa hai

यह जीवन का परम सत्य है कि जिसका जन्म है उसकी मृत्यु है, योवन है तो बुढ़ापा है। जिसकी मृत्यु है उसके जन्म की संभावना है। जन्म, जरा, रोग और मृत्यु की धारा में मनुष्य जाति को क्या, ब्रह्मांड के हर प्राणी के साथ करोड़ों वर्षों से यही सब होता आ रहा है। सुखदायी होती है जवानी और सही ढंग से जीना ना आए तो बड़ी पीड़ादायी होती है बुढ़ापे की कहानी। जवानी तो बहुत सुख से बीत जाती है, लेकिन जवानी का सुख बुढ़ापे में कायम न रह सके तो बुढ़ापा कष्टदायी हो जाता है। जवानी तो सभी जी लेते हैं, पर जो जवानी में बुढ़ापे की सही व्यवस्था कर लेते हैं, उनका बुढ़ापा स्वर्णमयी हो जाता है। बुढ़ापा न तो जीवन के समापन की शुरुआत है और ना ही जीवन का कोई इतिवृत्त है और ना ही जीवन का अभिशाप है। बुढ़ापा तो जीवन का सुनहरा अध्याय है। जिसे जीवन जीना आया, जिसने जीवन के उसूल जाने और जीवन की मौलिकता को समझने का प्रयास किया, उसके लिए बुढ़ापा अनुभव से भरा हुआ जीवन होता है जिसमें जाने हुए सत्य को जीने का प्रयास करता है। हर किसी दीर्घजीव व्यक्ति के लिए बुढ़ापा आना तय है। यह न समझे कि हमें ही बुढ़ापा आया है या आने वाला है। महावीर को

दान करने वाला दाता हमेशा सर्वश्रेष्ठ होता है। Dan karne wala data hamesha sarvshreshth hota hai.

एक बार प्रभु श्री रामचंद्र पुष्पक यान से चलकर तपोवन का दर्शन करते हुए महर्षि अगस्त्य के यहां गए। महर्षि ने उनका बड़ा स्वागत किया। अंत में अगस्त्यजी ने विश्वकर्मा का बनाया एक दिव्य आभूषण उन्हें देने लगे। इस पर भगवान श्रीराम ने आपत्ति की और कहा - ' ब्रह्मन् ! आपसे मैं कुछ लूं यह बड़ी निंदनीय बात होगी। क्षत्रिय भला, जानबूझकर ब्राह्मण का दिया हुआ दान क्योंकर ले सकता है‌।' फिर अगस्त्यजी के अत्यंत आग्रह करने पर उन्होंने उसे ले लिया और पूछा कि वह आभूषण उन्हें कैसे मिला था। अगस्त्यजी ने कहा - ' रघुनंदन ! पहले त्रेता युग में एक बहुत विशाल वन था, पर उसमें पशु पक्षी नहीं रहते थे। उस वन के मध्य भाग में चार कोस लंबी एक झील थी। वहां मैंने एक बड़े आश्चर्य की बात देखी। सरोवर के पास ही एक आश्रम था, किंतु उसमें ना तो कोई तपस्वी था और ना कोई जीव जंतु। उस आश्रम में मैंने ग्रीष्म ऋतु की एक रात बिताई। सवेरे उठकर तालाब की ओर चला तो रास्ते में मुझे एक मुर्दा दिखा, जिसका शरीर बड़ा हृष्ट - पुष्ट था। मालूम होता था कि किसी पुरुष की लाश है। मैं खड़ा होकर उस लाश के संबंध में कुछ सोच ही रहा

जिनके साथ हम रहेंगे वैसे ही बन जाएंगे। Jinke sath ham rahenge vaise hi ban jaenge

प्राय: स्कूल या कॉलेज से मित्रता की शुरुआत होती है। हम जिन लोगों के बीच रहते हैं, अपना अधिकांश समय व्यतीत करते हैं, उनसे हमारा परिचय होता है, संबंध प्रगाढ़ होते हैं, मित्रता बढ़ती है और हमको लगता है कि यह सब हमारे मित्र हैं, क्या वे वाकई हमारे मित्र हैं, हम अपना विवेक जगाएं और देखें कि क्या वाकई वे सभी हमारी मित्रता के लायक हैं ? अगर किसी में कोई कुटेव है तो आप तुरंत स्वयं को अलग कर लें, नहीं तो वे आदतें आपको भी लग जाएंगीं। अगर आपको सिगरेट पीने की आदत पड़ चुकी है तो झांकें अपने अतीत में। आपको दिखाई देगा कि आप विद्यालय या महाविद्यालय में पढ़ते थे, चार मित्र मिलकर एक सिगरेट लाते थे और किसी पेड़ की ओट में आकर सिगरेट जलाते और एक ही सिगरेट को बारी-बारी से चारों पीते थे। पहले छुप-छुपकर, फिर फिल्म हॉल में गए तब, फिर इधर-उधर हुए तब, फिर बाथरूम में पीने लगे और धीरे-धीरे सब के सामने पीने लगे। इस तरह पड़ी जीवन में एक बुरी आदत और आपने उन्हीं लोगों को अपना मित्र मान लिया, जिन लोगों ने आपके जीवन में बुरी आदत लगाई। अगर आप गुटखा खाते हैं तो सोचे कि इसकी शुरुआत कहां से हुई। जरूर आपकी किसी ऐसे व्यक्ति

नाम से ही सारे दु:ख दूर हो जाएंगे। Naam say hi saree dukh dur ho jaenge.

एक बार की बात है माता अंजना हनुमान जी को कुटी में लिटाकर कहीं बाहर चली गई। थोड़ी देर में इन्हें बहुत तेज भूख लगी। इतने में आकाश में सूर्य भगवान उगते हुए दिखलायी दिये। इन्होंने समझा यह कोई लाल लाल सुंदर मीठा फल है। बस, एक ही छलांग में यह सूर्य भगवान के पास जा पहुंचे और उन्हें पकड़कर मुंह में रख लिया। सूर्य ग्रहण का दिन था। राहु सूर्य को ग्रसने के लिए उनके पास पहुंच रहा था। उसे देखकर हनुमानजी ने सोचा यह कोई काला फल है, इसीलिए उसकी और भी झपटे। राहु किसी तरह भागकर देवराज इंद्र के पास पहुंचा। उसने कांपते हुए स्वरों में इंद्रदेव से कहा, "भगवान! आज आपने यह कौन सा दूसरा राहु सूर्य को ग्रसने के लिए भेज दिया है ? यदि मैं भागा ना होता तो वह मुझे भी खा गया होता। राहु की बात सुनकर भगवान इंद्र को बड़ा अचंभा हुआ। वह अपने सफेद एरावत हाथी पर सवार हो हाथ में वज्र लिए बाहर निकले। उन्होंने देखा कि एक वानर बालक सूर्य को मुंह में दबाए आकाश में खेल रहा है। हनुमान ने भी सफेद एरावत सवार इंद्र को देखा। उन्होंने समझा कि यह भी कोई खाने लायक सफेद फल है। वह उधर भी झपट पड़े। यह देखकर देवराज इंद्र बहुत ही क्रोधि

भगवान महावीर राजा श्रेणिक को सामायिक का महत्व समझाते हुए bhagwan mahaveer raja shrenik ko samaeik ka mahatva samjhate hue

एक बार राजगृह में भगवान महावीर पधारे। उनके दर्शन करने हेतु राजा श्रेणिक भी पहुंचा। राजा श्रेणिक ने महावीर से कहा, ' भगवान मैंने अपनी जिंदगी में न जाने कितने ही अधार्मिक कार्य किए है जिससे मेरा परलोक बिगड़ना निश्चित है। कोई ऐसा उपाय बताइए, ताकि मृत्यु के बाद मेरा जीवन सुधर जाए।' महावीर ने उपाय सुझाते हुए कहा, राजन! यदि तुम पुणिया श्रावक की एक सामायिक खरीद लो तो तुम्हारा परलोक सुधर जाएगा। परलोक सुधारने का इतना सरल उपाय जानकर राजा श्रेणिक बहुत प्रसन्न हुआ। उसने निश्चय कर लिया कि वह पूणिया श्रावक की सामायिक जरूर खरीदेगा। राजा ने पुणिया श्रावक के बारे में पूछा व मालूम कराया। राजा को ज्ञात हुआ कि पूणिया श्रावक उसी के नगर में रहने वाला सीधा-साधा एक गरीब श्रावक है। वह सूत कात कर जो कुछ थोड़ा बहुत कमाता है वही उसकी जीविका का आधार है। लेकिन बहुत ही धार्मिक विचार वाला व्यक्ति है तथा प्रतिदिन सामायिक करता है। राजा श्रेणिक पूणिया श्रावक में के घर पहुंचा। सारी बात स्पष्ट करते हुए कहा कि मुझे विश्वास है कि तुम अपने राजा के लिए उस पर इतना परोपकार अवश्य करोगे, एक सामायिक दान के बदले जितना धन त

मित्र हो, सखा हो तो कृष्ण सुदामा जैसे Mitra ho, sakha ho to Krishna sudama Jaise

युवक-युवतियों को दोस्त बनाएं पर अपनी सीमाएं जरूर रखें। दोस्ती के बीच अगर आप सीमाएं नहीं रखते तो यह अमर्यादित मित्रता मित्र और आपके अपने घर दोनों के लिए विनाश का कारण बन सकती है। ढेर सारे मित्रों को एकत्र करने का कोई औचित्य नहीं है, अगर वे आप के विकास में सहायक ना बन सकें। आपको पता है कि अर्जुन और श्री कृष्ण में अच्छी मित्रता थी। यद्यपि गुरु - शिष्य का भाव था, भगवान - भक्त का भाव था। इसके अतिरिक्त तीसरा भाव था - सखा भाव, मित्रता का भाव। जिसके कारण कृष्ण जैसे महापुरुष अपने सखा - भाव को रखने के लिए अर्जुन का रथ हाकने के लिए सारथी बन जाते हैं। मित्रता का आदर्श है कृष्ण और अर्जुन का परस्पर व्यवहार। एक नुस्खा आजमाइए कि कल तक जो आपका मित्र था, जिसे आज भी आप अपना मित्र मानते हैं, और संयोग की बात कि वह कलेक्टर, एस.पी या इसी तरह के किसी उच्च पद पर पदस्थ हो गया है। आप उससे मिलने जाइएगा, आपको एक ही दिन में पता लग जाएगा कि वह कैसा आदमी है और उसके साथ कैसी मित्रता थी। आपकी मित्रता का सारा अहंकार , सारा भाव दो मिनट में खंडित हो जाएगा जब आप उसके पास जाएंगे। मित्र तो कृष्ण जैसे ही हो सकते हैं कि सुदामा