एक बार प्रभु श्री रामचंद्र पुष्पक यान से चलकर तपोवन का दर्शन करते हुए महर्षि अगस्त्य के यहां गए। महर्षि ने उनका बड़ा स्वागत किया। अंत में अगस्त्यजी ने विश्वकर्मा का बनाया एक दिव्य आभूषण उन्हें देने लगे। इस पर भगवान श्रीराम ने आपत्ति की और कहा - ' ब्रह्मन् ! आपसे मैं कुछ लूं यह बड़ी निंदनीय बात होगी। क्षत्रिय भला, जानबूझकर ब्राह्मण का दिया हुआ दान क्योंकर ले सकता है।' फिर अगस्त्यजी के अत्यंत आग्रह करने पर उन्होंने उसे ले लिया और पूछा कि वह आभूषण उन्हें कैसे मिला था। अगस्त्यजी ने कहा - ' रघुनंदन ! पहले त्रेता युग में एक बहुत विशाल वन था, पर उसमें पशु पक्षी नहीं रहते थे। उस वन के मध्य भाग में चार कोस लंबी एक झील थी। वहां मैंने एक बड़े आश्चर्य की बात देखी। सरोवर के पास ही एक आश्रम था, किंतु उसमें ना तो कोई तपस्वी था और ना कोई जीव जंतु। उस आश्रम में मैंने ग्रीष्म ऋतु की एक रात बिताई। सवेरे उठकर तालाब की ओर चला तो रास्ते में मुझे एक मुर्दा दिखा, जिसका शरीर बड़ा हृष्ट - पुष्ट था। मालूम होता था कि किसी पुरुष की लाश है। मैं खड़ा होकर उस लाश के संबंध में कुछ सोच ही र
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