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Showing posts from April, 2019

मुर्दे का मांस खाना murde ka maans khana

एक बार प्रभु श्री रामचंद्र पुष्पक यान से चलकर तपोवन का दर्शन करते हुए महर्षि अगस्त्य के यहां गए। महर्षि ने उनका बड़ा स्वागत किया। अंत में अगस्त्यजी ने विश्वकर्मा का बनाया एक दिव्य आभूषण उन्हें देने लगे। इस पर भगवान श्रीराम ने आपत्ति की और कहा - ' ब्रह्मन् ! आपसे मैं कुछ लूं यह बड़ी निंदनीय बात होगी। क्षत्रिय भला, जानबूझकर ब्राह्मण का दिया हुआ दान क्योंकर ले सकता है‌।' फिर अगस्त्यजी के अत्यंत आग्रह करने पर उन्होंने उसे ले लिया और पूछा कि वह आभूषण उन्हें कैसे मिला था। अगस्त्यजी ने कहा - ' रघुनंदन ! पहले त्रेता युग में एक बहुत विशाल वन था, पर उसमें पशु पक्षी नहीं रहते थे। उस वन के मध्य भाग में चार कोस लंबी एक झील थी। वहां मैंने एक बड़े आश्चर्य की बात देखी। सरोवर के पास ही एक आश्रम था, किंतु उसमें ना तो कोई तपस्वी था और ना कोई जीव जंतु। उस आश्रम में मैंने ग्रीष्म ऋतु की एक रात बिताई। सवेरे उठकर तालाब की ओर चला तो रास्ते में मुझे एक मुर्दा दिखा, जिसका शरीर बड़ा हृष्ट - पुष्ट था। मालूम होता था कि किसी पुरुष की लाश है। मैं खड़ा होकर उस लाश के संबंध में कुछ सोच ही र

'ॐ' शब्द की उत्पत्ति कैसे हुई ? Om shabd ki utpatti kaise hui ?

एक बार असुरों ने इंद्रपुरी को घेर लिया। उनके पास बड़ी सुसज्जित सेना थी। हर प्रकार के हथियारों से सज्जित हो उन्होंने युद्ध के लिए इंद्र को ललकारा। ' हमारा युद्ध में सामना करो। हम अपने बाहुबल की शक्ति से युद्ध में परास्त करना चाहते हैं। यदि हम से डरते हो तो हार स्वीकार करो। इंद्रपुरी हमारे हवाले करो। विशाल असुर सेना को देख महाप्रतापी इंद्र एक बार तो कांप उठे। बहुसंख्यक शत्रु के सामने मुट्ठी भर देवता लोग क्या कर सकते सकेंगे ? यों तो मेरी इंद्रपुरी ही छीन जाएगी। अब तो किसी बाह्य देवी शक्ति से सहायता लेनी चाहिए।अपनी सीमित शक्तियों से तो इंद्रपुरी की रक्षा होती नहीं दिखती। उनके सामने प्रश्न था, 'असुर कैसे मारे जाएं ?' भगवान् ने सलाह दी, केवल शब्द - शक्ति के देवता ॐ की सहायता से ही आप सब में नव प्राण और नए उत्साह का संचार संभव है। वे ही मेरी शक्ति के स्रोत है। उनकी कृपा से मुर्दा दिल में नई शक्ति का प्रादुर्भाव होता है। आप उन्हीं के पास जाइए और उनसे शब्द - शक्ति ग्रहण कीजिए। भले शब्दों में भी प्रचंड शक्ति भरी हुई है। उसकी साधना कीजिए। महाराज इंद्र को

अद्भुत बुद्धि और शक्ति adbhut buddhi aur Shakti

आकाश में बिना विश्राम किये लगातार उड़ते हनुमान जी को देखकर समुद्र ने सोचा कि यह प्रभु श्री रामचंद्र जी का कार्य पूरा करने के लिए जा रहे हैं। किसी प्रकार थोड़ी देर के लिए विश्राम दिलाकर इनकी थकान दूर करनी चाहिए। उसने अपने जल के भीतर रहने वाले मैनाक पर्वत से कहा, "मैनाक! तुम थोड़ी देर के लिए ऊपर उठकर अपनी चोटी पर हनुमान जी को बिठाकर उनकी थकान दूर करो।" समुद्र का आदेश पाकर मैनाक प्रसन्न होकर हनुमान जी को विश्राम देने के लिए तुरंत उनके पास आ पहुंचा। उसने उनसे अपनी सुंदर चोटी पर विश्राम के लिए निवेदन किया। उसकी बातें सुनकर हनुमान जी ने कहा, "मैनाक तुम्हारा कहना ठीक है, लेकिन भगवान श्री रामचंद्र जी का कार्य पूरा किए बिना मेरे लिए विश्राम करने का कोई प्रश्न नहीं उठता ।" ऐसा कहकर उन्होंने मैनाक को हाथ से छू कर प्रणाम किया और आगे चल दिये। हनुमान जी को लंका की ओर प्रस्थान करते देख कर देवताओं ने सोचा कि यह रावण जैसे बलवान राक्षस की नगरी में जा रहे हैं। इनके बल - बुद्धि की विशेष परीक्षा कर लेना इस समय आवश्यक है। यह सोचकर उन्होंने नागों की माता सुरसा से कहा, 'देवी

चतुर से अधिक चतुराई chatur say adhik chaturai

एक किसान ने पड़ोस के किसान से एक हंडा उधार लिया।वह उसमें मक्खन पिघलाने के लिए आग जला रहा था कि इतने में कहीं से एक बिल्ली आई और हंडे पर पैर रखकर खड़ी हो गई। यह देख उसने बिल्ली को भगाया। बिल्ली पीछे की और कूदी और हंडा भी साथ में गिरकर दो टुकड़े हो गया। उस किसान में गोंद से दोनों टुकड़े जोड़ दिए और पड़ोस के किसान के पास ले जाकर उससे बोला, "यह लो अपना हंडा।" पड़ोसी ने देखा, हंडे में दरार थी। उसने पूछा, "यह क्या है ?" किसान ने कहा, "मुझे नहीं मालूम।" फिर वह अपने घर वापस चला गया। पड़ोसी ने अदालत में फरियाद की। किसान ने वकील से सलाह मांगी। वकील ने सब - कुछ सुनकर कहा, "जो कुछ हुआ है, उसके लिए क्योंकि कोई गवाह नहीं है, इसलिए तीन तरह से बात की जा सकती है। तुम कह सकते हो कि जब तुमने हंडा उधार लिया था तभी वह टूटा हुआ था। या कह सकते हो कि तुम्हारे वापस देने के बाद वह टूट गया था। यह भी कर सकते हो कि तुमने हंडा लिया ही नहीं था।" यद्यपि हंडे का दाम चार आना ही था, तो भी किसान वकील को एक रूपया देकर आया। अगले दिन अदालत में सुनवाई हुई। किसान ने न्यायाधीश से यों कहा

क्रोध का मापक : krodh ka mapak

एक सेठ के घर में एक नौकर था दो मालिक का कभी सम्मान नहीं करता था। बात-बात में सेठ जी की बात को काट देना और कदम - कदम पर उनका उपहास करना उसकी आदत बन चुकी थी। किसी के भी आदेश का पालन आवेशपूर्वक करना उसकी खासियत थी। तथापि सेठ जी ने उसे अपने घर में रखा हुआ था क्योंकि उनका जीवन जीने का ढंग निराला था। उनका मानना था नौकर के द्वारा जो भी व्यवहार मेरे साथ किया जा रहा है इसमें नौकर तो मात्र हैं। मूल कारण मेरे पूर्वकृत अशुभ कर्म ही है। एक दिन सेठ जी के घर अचानक सूरत शहर से चार -पांच मेहमान आ गए। सेठ ने सभी का दिल खोलकर अतिथि सत्कार किया और नौकर को खाना बनाने का आदेश दिया। आदेश सुनते ही उसका आवेश भड़क उठा और उसने मेहमानों के सामने बड़बड़ाना प्रारंभ कर दिया, स्वयं से तो कुछ भी नहीं होता और हमें इतना काम करना पड़ रहा है। मेहमानों को खाने का आग्रह करने की जरूरत ही क्या थी, चाय नाश्ता तो हो गया था। मेहमान अपने आप चले जाते सारे मेहमान का - पीकर चले जाएंगे और सारा काम तो मुझे ही करना पड़ेगा। ऐसी अनुचित वचन जब मेहमानों ने सुनी तो वे हैरान हो गए और सोचने लगे कैसा नौकर रखा है जो इतनी जबान चला रहा है। न कोई

कहां तक ले जाओगे धन की गठरी ? Kahan tak le jaaoge dhan ki gatery ?

इन दिनों अर्थ का बोलबाला इतनी तेजी से बढ़ रहा है। कि हर वर्ग के लोग येन केन प्रकारेण धन एकत्रित करने में जुटे हुए हैं। भले ही उसके दुष्परिणाम उसकी दुनिया को उजाड़ दें मगर पाप और पुण्य की परिभाषा को नजरअंदाज कर हर व्यक्ति इस दौड़ में से दौड़ रहा है। जिस परमपिता की हम संतान हैं, उन्होंने हमें इस सृष्टि पर कर्म करने के लिए कुछ समय के लिए भेजा है। हमने तो दुनिया को अपनी जागीर समझ लिया है।जैसे धन से हम जिंदगी खरीद कर संसार में स्थाई रहेंगे। पाप कर्म से इकट्ठी की हुई धन की गटरी को हम कहां तक साथ ले जायेंगे। इस तरह से सोचने की शायद हमें फुर्सत तक नहीं है। परमात्मा ने कहा है - कि सहज मिले वह दूध बराबर, मांग लिया वह पानी, खींच लिया वह खून बराबर, कह गए महावीर वाणी। बड़ी विडंबना है कि आज इस उक्ति को नजरअंदाज कर हर व्यक्ति अर्थ के लिए क्या-क्या नहीं करता, इसकी शब्दों में व्याख्या जितनी की जाए उतनी कम होगी। पुण्य कमाने के लिए एकमात्र पूजा व श्रध्दा केंद्र हमारे तीर्थ व धर्म स्थान होते हैं, मगर दुर्भाग्य है कि अब वह भी स्थान इससे अछूते नहीं रहे। एक स्थान से निकली हुई चिंगारी पूरे परिस

मौत का उपाय maut ka upay

किसी नगर में एक आदमी रहता था। वह पढ़ा - लिखा और चतुर भी था। उसके भीतर धन कमाने की लालसा थी। जब पुरुषार्थ को भाग्य का सहयोग मिला तो उसके पास लाखों की संपदा हो गई। ज्यों - ज्यों पैसा आता गया उसका लोभ बढ़ता गया। वह बड़ा खुश था कि कहां तो उसके पास एक फूटी कौड़ी भी नहीं थी और कहां अब उसकी तिजोरियां भरी रहती हैं। धन के बल पर आराम के जो भी साधन वह चाहे वह प्राप्त कर सकता था। कहते हैं, आराम चीज अलग है तथा चैन चीज अलग है। धन से समस्त साधन एवं सुविधा मिल सकती है किंतु सुख नहीं मिल सकता। इतना सब कुछ होते हुए भी उसके जीवन में एक बड़ा अभाव था, घर में कोई संतान नहीं थी। समय के प्रवाह में उसकी प्रौढ़ावस्था बीतने लगी पर धन-संपत्ति के प्रति उसकी मूर्च्छा में कोई अंतर नहीं पड़ा। अचानक एक दिन बिस्तर पर लेटे हुए उसने देखा कि सामने कोई अस्पष्ट सी आकृति खड़ी है। उसने घबराकर पूछा, कौन ? उत्तर मिला, मृत्यु इतना कह कर वह आकृति गायब हो गई। वह आदमी बेहाल हो गया। बेचैनी के कारण उसे नींद नहीं आई। इतना ही नहीं उस दिन से उसका सारा सुख मिट्टी हो गया। मन चिंताओं से भर गया। वह हर घड़ी भयभीत रहने लगा। कुछ दिनो

संघर्ष और सफलता sangharsh aur safalta

किसी भी कार्य में यदि सफल होना चाहते हो तो उसे खुल कर जितने की भावना से करना होगा । यदि बचने की भावना से कार्य करोगे तो असफलता निश्चित है।यदि हर निर्णय से, हर चुनौती से बचने का रास्ता खोजोगे, तो सफलता हासिल हो ही नहीं सकती। हर काम को शुरू करने से पहले यह सोच लिया कि यदि इसे मैं ठीक से न कर पाया, तो क्या होगा और इस डर से कोई भी कार्य शुरू ही नहीं किया तो फिर सफलता मिलने का तो सवाल ही कहां पैदा होता है। यदि कोई कार्य शुरू भी किया और एक - दो प्रयास में ही हार मान ली कि मुझसे तो यह नहीं हो पाएगा, तो भी सफलता नहीं मिल सकती। किसी भी कार्य के लिए लगातार प्रयास करोगे, तभी तो सफलता हासिल होगी। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि पानी में से घी निकालने का प्रयास करो। आवश्य कार्य का चुनाव समझदारी पूर्वक होना चाहिए। दूरदृष्टि होनी चाहिए। लेकिन सही कार्य चुनने के पश्चात उस में लगातार प्रयासरत रहने पर ही सफलता मिलती है। आप आश्चर्य करोगे की संघर्ष की परिणीति दु:खद नहीं है, बड़ी सुखद है। दु:खद तो बचाव की परिणीति है। संघर्ष के बाद जो जीत मिलती है, उसमें बड़ा आनंद है। वैसे भी जो संघर्ष को स्वीकार कर लेता है, उस

बच्चे की चाल मास्टर बेहाल bacche ki chaal master behal

एक वाक्या याद आ गया। बड़ा मजेदार वाक्या है। हुआ यूं कि एक बच्चा मास्टर के पास पहुंचा और बोला - गुरुजी! कल रात आपके बाप मेरे सपने में आए। मास्टर बोला - मेरे बाप! और तेरे सपने में ? झूठ, बिल्कुल सफेद झूठ। मेरे बाप तेरे सपने में आ ही नहीं सकते। बच्चा बोला - गुरुजी, आप मेरा विश्वास करें। आपके पिताजी मेरे सपने में सच में आए थे। मास्टर ने कहा - लेकिन मेरे बाप को मरे तो पांच साल हो गए, आज तक मेरे सपने में नहीं आए तो आए तेरे सपने में कैसे आ गए ? बच्चा बोला - गुरुजी, आपके सपने में नहीं आए तो मैं क्या करूं ? और यह कोई जरूरी भी नहीं है कि आप के बाप हैं तो केवल आप ही के सपने में आए। और किसी के सपने में ना आए। मास्टर ने कहा - हां, ऐसा कोई जरूरी नहीं है। पर वो तेरे सपने में कैसे आ गए ? बच्चा बोला - बस बाई चांस। मास्टर ने कहा - अच्छा ठीक है, बोल, मेरे बाप क्या कह रहे थे ? बच्चे ने कहा - मास्टर जी ! और तो कुछ नहीं बोले। बस केवल यही कहा कि कल तू मेरे बेटे के पास जाना और उससे कहना कि वह तुझे अच्छे नंबरों से पास कर दे। मास्टर ने कहा - कमाल है बेटा। अब तो तुझे पास करना ही पड़ेगा। बाप का आदेश और वह भी स्वर

नशे में फंसा है। Nashe main fassa hai

नशा शराब का ही नहीं होता है रूपये और पैसे का अंहकार का भी होता है। शराब का नशा तो झट दिख जाता है और वह बुरा भी माना जाता है मगर अहंकार का नशा जल्दी से नहीं दिखता। एक बात और अगर दुनिया में शराब न होती तो संसार का नक्शा कुछ और ही होता। युनानी तत्त्ववेत्ता डायोजनीज को पार्टी में एक धनपति ने बढ़िया शराब की बोतल भेंट की। डायोजनीज ने उस शराब को गौर से देखा और फिर मिट्टी में उलट दी। धनपति ने आश्चर्य से पूछा - महाशय ! मैंने आपको इतनी बढ़िया और कीमती शराब भेंट की और आपने उसे मिट्टी में मिला दिया। आखिर क्यों ? डायोजनीज ने कहा - श्रीमान ! अगर मैं इस शराब को मिट्टी में ना मिलाता तो फिर यह मुझे मिट्टी में मिला देती। डायोजनीज बोला - मैंने अपनी इसी जिंदगी में ऐसे सैकड़ों लोगों को देखा है जिनको शराब ने मिट्टी में मिला दिया। शराब खराब है। शराब जहर है। शराब मौत है। तो बात अहंकार के नशे की है। अहंकारी का नशा तो वैसा ही होता है जैसे कोई घंटाघर पर बैठा हुआ बंदर घंटाघर की ऊंचाई को अपनी ऊंचाई मानने लगता है। आदमी बहुत अकडता है। वह भूल जाता है कि मौत का भी एक दिन है। तुम

बैठिए मत। चलते रहिए। Baithe mat. chalte rahiye.

अपना काम खुद करते रहिए। बच्चों को तो पालिये मगर इच्छाओं‌ और चिंताओं को मत पालिये। आज का आदमी अपने बच्चों को तो कम पलता है, अपनी इच्छाओं को ज्यादा पालता है। हम बच्चों से ज्यादा इच्छाओं को पालते हैं। हम बच्चों को नहीं, बच्चों के रूप में अपनी इच्छाओं को पालते हैं। बेटे का जन्म हुआ नहीं कि मां - बाप के सपने शुरू हो जाते हैं। बच्चा एक पैदा होता है, मां - बाप के सपने हजार पैदा हो जाते हैं, कि बेटा को यह बनायेंगे कि बेटे को वो बनायेंगे कि बेटा से ये करायेंग, कि बेटे से वो करायेंग। मतलब साफ है, जो हम अपनी जिंदगी में नहीं कर सके, अब वह बेटे से करायेंगे। जो हम जिंदगी में खुद नहीं बन सके, अब वह बेटे को बनायेंगे। मतलब साफ है कि बंदूक तो हमारी होगी और कंधा बेटे का होगा। हम जिंदगी में बंदूक नहीं चला सके तो अब बेटे के कंधे पर रखकर बंदूक चलायेंगे, हम डॉक्टर नहीं बन पाये तो अब बच्चे को बनायेंगे। बच्चे को जबरदस्ती डॉक्टर बनायेंगे। भले ही उसके बच्चे डॉक्टर बनने में न हो, वह भले ही इंजीनियर बनना चाहता हो, लेक्चरर बनना चाहता हो, पायलट बनना चाहता हो, संत बनना चाहता हो, पत्रकार बनना चाहता हो

गुरु और शास्त्र दोनों ही महान है। Guru aur Shastra dono hai mahan hai.

सच्चे गुरु व सच्चे शास्त्र व्यक्ति को एक ही शिक्षा देते हैं कि अच्छे व्यक्ति बनो, पवित्र विचार रखो , किसी का बुरा मत करो और पुरुषार्थ करो। अलग - अलग व्यक्तित्व की क थाओं के माध्यम से, अलग-अलग उदाहरणों से यही बातें समझाने का प्रयास किया जाता है। जब व्यक्ति गुरु के पास जाता है, तो उसे बहुत- सी कमियों को त्यागने और बहुत- सी अच्छाइयों को अपनाने का पाठ वहां से मिलता है। जितना वहां जाएगा, उसे नया पुरुषार्थ करने का ज्ञान कहां से मिलेगा। लेकिन व्यक्ति गुरु के पास पुरुषार्थ बढ़ाने के लिए नहीं जाता है। वह तो सुरक्षा खोजने के लिए गुरु के पास जाता है, गुरु के पास जाऊं तो जीवन की कोई आसान राह मिल जाए। कुछ कम करना पड़े और अधिक मिल जाए। कुछ उनके आशीर्वाद से पाप - कर्म कट जाए और पुण्य - कर्म का उदय हो जाए अपनी भूमिका को कम करने के लिए वहां जाता है। व्यक्ति यदि ऐसा निश्चय करके गुरु के पास जाए कि बस थोड़ा-सा इशारा मिल जाए, तो और अच्छा है करना तो मुझे ही है। अपनी शक्तियों को और अधिक मुझे जगाना है। कैसे मैं अपने आप को श्रेष्ठ बना सकता हूं, चाहे कितनी भी मेहनत करनी पड़े