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Showing posts from September, 2019

प्रभु भक्ति से दु:ख मुक्ति Prabhu bhakti se dukh mukti

जीवन में पुण्य बन्ध के अनेक साधन शास्त्रों में उपलब्ध होते हैं। परंतु सर्वोत्कृष्ट पुण्य का बन्ध परमात्मा भक्ति से होता है। जैन शासन में मोतीशा सेठ का नाम प्रसिद्ध है। जिसने पालीथाना सिद्धाचल तीर्थ पर स्व नाम की टूंक का निर्माण भी करवाया है। उसके जीवन की परमात्मा श्रद्धा की एक बात जीवन में प्रेरणादायक है। एक बार एक कसाई गायों को पकड़कर कसाई खाने ले जा रहा था। रास्ते में मोतिशा सेठ के नौकर ने उसे देख लिया। उसने उसे गाय छोड़ने के लिए कहा। परंतु वह नहीं माना। नौकर और कसाई का परस्पर झगड़ा हो गया। नौकर ने कसाई के पेट में जोर से लात मारी जिससे योगानुयोग उसकी तत्काल मृत्यु हो गई। उस समय ब्रिटिश सरकार का राज्य था। वे नौकर को हत्या के आरोप में पकड़ कर ले जाने लगे। सेठ को जैसे ही समाचार मिला तो वह भागा भागा आया और नौकर को छुड़ाकर खून का आरोप सेठ ने स्वयं के सिर पर ले लिया और कहा कि मैंने ही अपने नौकर को कहा था। अतः में ही दोषी हूं मुझे सजा दी जाए। ब्रिटिश सरकार ने सेठ को फांसी की सजा का हुक्म दे दिया। मुंबई में मुंबा देवी के मैदान में फांसी देने का मंच बांधा गया। सेठ को पूछा गया कि आप की अंति

इसे कहते हैं धर्मी। Ise kahate Hain dharmi.

सुख और दु:ख जीवन के मेहमान हैं। जैसे घर आए मेहमान का स्वागत करते हैं वैसे ही इनका भी करना चाहिए। परंतु आज मानव की दशा यह है कि सुख आने पर फूला नहीं समाता और दु:ख आने पर हाय - हाय करके आकाश पाताल एक कर देता है। वस्तुतः "ज्ञानी कहते हैं कि सुख में लीन मत बनो, दु:ख में दीन मत बोनो।" सुख-दु:ख अन्य कोई नहीं है। हमारे ही बुलाए हुए अतिथि हैं। हमारी आमंत्रण पत्रिका को प्राप्त करके ही आए हैं। दु:ख जीवन में जो आते हैं ? क्योंकि हमने ही भूतकाल में इस दुष्कृत्य किए थे, पापों का आचरण किया था, जिसने उस दुष्कृत्य और पापाचरण का सेवन नहीं किया। उसे दु:ख भी नहीं आते। हमारे ही दुष्कृत्य और पाप प्रक्रिया दु:खों को बुलाने की आमंत्रण पत्रिका है। रास्ते में चार पांच व्यक्ति इकट्ठे साथ में चलते हैं परंतु दो को कुत्ता काट जाता है तीन बिल्कुल स्वस्थ रहते हैं कभी विचार किया ऐसा क्यों ? एक बच्चा पूरी प्रथम मंजिल से नीचे गिरता है तो भी उसे जरा चोट नहीं आती है और दूसरा बालक 4 -5 सीढ़ियों से नीचे गिरता है उसको फैक्चर हो जाता है हड्डी पसली टूट जाती है। महीनों का प्लास्टर लग जाता है। जरा सोचिए ऐसा क्यों ?

विनय से विजयी हो। Vinay se Vijay ho

सुख और दु:ख जीवन के मेहमान हैं। दु:खों को रोकना मानव के हाथ में नहीं परंतु दुखों को सुख में बदलना उसके हाथ में है। जीवन में कोई भी परिस्थिति या घटनाएं शुभाशुभ कर्मों के आधार पर घटित होती हैं। अत: परिस्थिति को बदलने का प्रयास ना करके मन, स्थिति को बदलने की साधना करनी चाहिए। क्योंकि जिंदगी की कथा मृत्यु की व्यथा पर ही समाप्त होती है। किंतु मानव मन नाना प्रकार के सपने, कल्पनाएं और विविध आयोजन करता है कि कल मुझे यह करना है,परसों यह करना है, एक वर्ष बाद मैं ऐसा करूंगा, दस वर्ष बाद में ऐसा करूंगा। परंतु आंखों बंद होते ही यह जीवन - लीला समाप्त हो जाती है। अतः जीवन को आदर्श बनाने के लिए कुछ गुणों की जरूरत है। जैसे सुगंध के बिना फूल की कीमत नहीं, व्यक्तियों के बिना मकान की शोभा नहीं उसी प्रकार विनय गुण के बिना जीवन में पूर्णता की प्राप्ति नहीं हो सकती। महाभारत का युद्ध प्रारंभ होने से पूर्व जब दोनों पक्षों की सेनाएं एक दूसरे के आमने सामने खड़ी थी उस समय धर्मराज युधिष्ठिर अपने रथ से नीचे उतरे पैदल चलकर कौरवों की सेना के तरफ आए। जब धर्मराज को पितामह ने, गुरु द्रोणाचार्य तथा कृपाचार्य ने अपनी ओ

श्रद्धा हो तो ऐसी। Shraddha ho to aisi.

किसी भी विषय को पढ़ लेना एक अलग चीज है, और पढ़ने के उपरांत उसका मनन करना दूसरी चीज है। अधिक या कम कितना भी पढ़ा जाए, किंतु उसके मनन द्वारा उसको उतारा जाए तब ही जीवन सफल होता है। एक हंस अपने विवेक से दूध और पानी अलग कर लेता है, यही मनन है। इस मन को अपने में चाहे आत्म दर्शन कह लीजिए चाहे - सम्यक्तव निश्चित: सब एक ही है। व्यवहार अनेक, साध्य एक ही है। उपादान एक हैं निमित्त अनेक। ग्रहण करने वाला उस तत्व को एक ही बार में ग्रहण कर लेता है। और न ग्रहण करने वाला चाहे एकांत में, जंगल में कितनी साधना करें ग्रहण नहीं कर सकता पोथिया पढ़ने वाला तथा धोटकर पीने वाला पंडित जी उसे ग्रहण न कर सके और एक निरा मूर्ख भी कहो तो दृढ़ श्रद्धा से उसको प्राप्त कर लेता है। यही सम्यक्तव है। एक त्रिपुंडधारी पंडित जी थे। उनकी वाणी में अद्भुत जादू था। उनकी वाणी के प्रभाव से सिनेमा व्यसनी सिनेमा देखना भूल जाते थे। वे तत्व की बात कहते थे। परंतु क्या स्वयं वे उस तत्व को समझते, या उसके रहस्य तक पहुंच पाते। मगर वे ऐसी जादू की लकड़ी फेरते थे जिससे सभी मोहित थे। प्रवचन कि बीच-बीच में कहते थे कि राम को भजे सो भव पार हो जावे।

बाहुबली को केवल ज्ञान। Bahubali ko keval gyan.

दीक्षा अंगीकार करने के बाद बाहुबली जी निरंतर एक वर्ष तक कायोत्सर्ग की साधना में स्थिर रहे, अग्नि के समान दोपहर का सूरज उनके सिर पर तपता था, फिर भी वे अपने ध्यान से लेश भी नहीं डिगे। भयंकर गर्मी हो… चाहे भयंकर ठंडी हो… चाहे मूसलाधार बारिश हो… परंतु वह पर्वत की तरह निश्चल रहे। अनुकूल या प्रतिकूल कोई भी परिषह उनके मन को हिला न सका। कई लताएं उनके शरीर पर लिपट गई… कई पंखियों ने उनके शरीर पर घोसले बना दिए… फिर भी वे निश्चल रहे। इस प्रकार एक वर्ष पूरा हो जाने के बाद ऋषभदेव प्रभु ने अपनी पुत्री ब्राह्मी वह सुंदरी को कहा, 'अब समय पक चुका है' अतः तुम जाकर बाहुबली को प्रतिबोध दो… तुम्हारे वचनों से वह मान छोड़ देगा। उपदेश के लिए यह योग्य समय है। प्रभु की आज्ञा होते ही ब्राह्मी व सुंदरी साध्वी बाहुबली के पास आई। वृक्ष की भांति स्थिर खड़े बाहुबली को देखकर उन दोनों ने कहा, हे ज्येष्ट आर्य ! ऋषभदेव स्वामी ने आपको कहलाया है कि हाथी पर सवार पुरुष को कभी केवल ज्ञान नहीं होता। बाहुबली महामुनि ने जब यह शब्द सुने तो वे अचरज में पड़ गए। वे सोचने लगे, 'अहो मैंने तो सावधयोग का सर्वथा त्याग कर दिया

हम सुखी जीवन कैसे जिए ham sukhi jivan kaise jiye

धर्म यदि आचरण में होकर नहीं आता तो वह धर्म नहीं है। जीवन के प्रति जो असावधानी बरतता है। वह सुखी नहीं हो सकता। वह केवल मूर्छा या प्रमाद में जीता है। जो बाहर से कुछ प्राप्त करता है वह आज नहीं तो कल समाप्त हो जाता है। प्राप्त व समाप्त से परे जो व्याप्त हो जाता है वही जीता है और सुखी रहता है। उसके महत्त्व की पहचान ही सुखी जीवन की कुंजी है। जीना ही सच्चा आनंद है। जो व्यक्ति स्वार्थी है वह सुखी नहीं हो सकता। सुखी जीवन के लिए कथनी और करनी का अंतर मिटाना चाहिये। जीवन और व्यवहार में समता भाव आना चाहिए। हम सभी दु:खों से घबराते हैं और चाहते हैं कि हमारा दु:ख दूर हो जावे। लेकिन जब तक दु:खों को दूर करने का मार्ग अवगत ना हो और अवगत करने के पश्चात विधिवत उस पर ना चले तब तक दु:ख दूर कैसे हो सकते हैं। आजकल भौतिक पदार्थों में सुखानुभव करते हैं और उनकी प्राप्ति हेतु अपने को उपयोग में लगाते हैं। पर पदार्थों में सुख को ढूंढना रेगिस्तान में पानी तलाश करने के समान है। सुख का अनंत भंडार स्व-आत्मा है। आत्म शांति प्राप्त करने के लिए समायिक और णमोकार मंत्र का आत्म - चिंतन आवश्यक है। यदि मनुष्य सोना है तो सामायि

भोग V/S योग bhog vs Yog

आचारांग सूत्र का पांचवां"धूताख्यान"नामक अध्ययन में प्रभु महावीर ने कर्मों को विधूनन अर्थात कर्मों को क्षय करने का उपदेश दिया है। जैसे कोई वृक्ष सर्दी, गर्मी, कंपन, शाखा छेदन उपद्रव को सहन करता हुआ कर्म के अधीन होने के कारण अपने स्थान को नहीं छोड़ सकता। इसी प्रकार आत्मा कर्मों से भारी होती है, उन्हें धर्म करने के लिए योग्य सामग्री मिले तो भी वे नहीं कर सकते तथा शारीरिक, मानसिक दु:खों को सहन करने पर भी विषयभोगों तथा कषायों को नहीं छोड़ सकते। इसका एकमात्र कारण है "कर्म"। कर्म ही इस पूरे संसार को ऑपरेट करते हैं। कर्मों से ही व्यक्ति की पहचान होती है, कपड़ों से नहीं। क्योंकि अच्छे कपड़े तो 'डमी' को भी पहनाये जाते हैं। इसीलिए व्यक्ति जैसे कर्म करता है वैसा ही उसे फल मिलता है। जैसा सप्लाई वैसा रिप्लाई जिस प्रकार कोई व्यक्ति जैसी रिकॉर्डिंग करता है वैसा ही सुनाई देता है। अगर कर्कश आवाज करेगा तो वही सुनाई देगा तथा मीठे वचन करेगा तो वैसा ही सुनाई देगा। उसी प्रकार शुभ कर्मों का फल भी शुभ मिलेगा तथा अशुभ कर्मों का फल भी अशुभ हीं मिलेगा। इसीलिए प्रभु बता रहे हैं अशुभ कर्

रत्नों को स्पर्श किए बिना मूल्य निश्चित करें। Ratnoo ko sparsh kiye Bina mulya nishchit Karen.

पुष्कर नगर में पुरुषोत्तम राजा राज्य करता था। राजा न्यायप्रिय, सदाचारी एवं धर्मप्रिय था। उसके अंत:पुर में कितनी रानियां थी। उनमें चार रानियां पटरानी पद पर सुशोभित थी। क्रमशः सुनीता, सुंदरी, प्रीति एवं प्रियलता ये उनके नाम थे। पुरुषोत्तम राजा का प्रथम प्रियपाल नामक प्रधान था यह पांच सौ मंत्रियों पर प्रधानमंत्री एवं औत्पातिकी बुद्धि का धनी था। वह राज्य की जटिल से जटिल गुत्थियों को क्षणभर में सुलझा देता था। सुनन्द कुमार नामक नगरसेठ राजा का प्रिय पात्र था। सुनन्द सेठ के पास पूर्वजों से प्राप्त चिंतामणि रत्न था। चिंतामणि रत्न के प्रभाव से प्रजा जनों की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति सुनन्द सेठ कर देता था। राजपुरोहित नामदेव भी राजा का प्रिय पात्र था। वह ज्योतिष विद्या का पूर्ण ज्ञाता था। उसके द्वारा प्रदत्त भूत, भविष्य एवं वर्तमान की घटनाओं का विचरण प्राय: सत्य ही होता था। राजा, प्रधान, नगरसेठ एवं राजपुरोहित ये चारों व्यक्ति जैन धर्म पर पूर्ण श्रद्धा रखते थे। चारों दिशाओं में पुष्कर नगर की ख्याति धर्म - नगरी के नाम से थी। अनेक जिनालयों से मंडित इस नगर के बाहर राजा के पूर्वजों द्वारा निर्मित एक एकड

घर घर में चित्र लग गए हैं। Ghar ghar mein chitra lag Gaye Hain.

बच्चे को चित्र नहीं भगवान श्री महावीर का चरित्र सौंप देना चाहिए महावीर के चार अक्षर में :- म - मन का संयम बना रहे। हां - हाथ दान एवं दया से लिप्त रहना चाहिए। वी - वीतराग बने, इंसान अच्छे कर्म करके। र - रग - रग में प्रेम, दान, दया शील का वर्चस्व हे। आज इंसान ने अपनी संस्कृति और संस्कार को छोड़कर पाश्चात्य संस्कृति को अपना लिया है।बच्चों के रहते माता-पिता अनाथों की जिंदगी जी रहे हैं। जिस घर में बुजुर्गों एवं बहनों का सम्मान होता है वहां लक्ष्मी विल्लास करती है। गर्भपात महापाप है, उसमें एक पंचइंद्रिय जीव की हत्या होती है। हमें गर्भपात नहीं करना चाहिए। ऐसे लोगों को भगवान एवं गुरु का स्पर्श नहीं करना चाहिए। उनका दान आदि भी ग्रहण नहीं करना चाहिए। पत्नी को आई लव यू कहने के बजाय माता-पिता को आई लव यू कहना चालू करेंगे तो जीवन साकार हो जाएगा। महान हो जावेगा। अच्छा स्वभाव, अच्छे आचरण से जीवन का मूल्य बढ़ जाता है। धन खोया कुछ नहीं खोया, स्वास्थ्य खोया कुछ खोया है, चरित्र खोया तो सब कुछ खोया समझो, जन्म जन्म तक रोना पड़ेगा। धर्म परिवर्तन नहीं, मन परिवर्तन करना चाहिए, माता पिता का आशीर्वाद लेना चाहिए

लोभी की दशा lobhi ki dasha

जब जीवन रूपी सागर का मंथन चिंतन रूपी मथनी से किया जाता है तब अनुभव रूपी अमृत प्राप्त होता है। जब पापवृत्ति पैदा होती है तो वह लोभ को जन्म देती है। लोभ अनेक अनिष्टों को जन्म देता है। भाई - भाई के बीच झगड़े का कारण, स्नेही जनों में क्लेश कराने वाला, देशों देशों में युध्द कराने वाला लोभ ही है। लोभी व्यक्ति संपत्ति का न तो स्वंय उपयोग करता है नहीं किसी को करने देता है। एक सेठ जी थे। वह जितने धनवान थे, उतने कंजूस भी थे। चमड़ी जाए पर दमड़ी ना जाए । उसके पास एक बहुत बड़ी तिजोरी थी, जिसमें एक मनुष्य सो सके। उस तिजोरी में एक ऑटोमेटिक मशीन थी। जरा सी तिजोरी बंद हुई कि स्वयं भी उसी में बंद हो जाए, फिर चाबी बिना वह खुलती नहीं थी। एक दिन सेठ जी तिजोरी में बैठकर अपनी संपत्ति, सोना, चांदी आदि लक्ष्मी को गिन रहे थे। नोटों के बंडल के बंडल गिन - गिन कर वह अपने पास रख रहे थे। इतने में दुकान का नौकर आया। कहीं वह देख ना ले इसी शंका से सेठ जी अपनी तिजोरी बंद करने लगे। योगानुयोग वह सारी बंद हो गई। सेठ जी भी अंदर बंद हो गए। नौकर तो कमरे में काम करके चला गया था। सेठ ने बहुत जोर लगाकर तिजोरी खोलने की कोशिश की प

आप क्या है ? शरीर या आत्मा aap kya hai ? sharir yeah aatma .

देह के रागी तथा घुमने के शौकीन गर्मियों में माउंट आबू नैनीताल शिमला आदि स्थानों पर जाकर महीना भी लगा आए तो भी कम लगता है। परंतु भगवान की प्रतिष्ठा, अठाई महोत्सव जैसे धार्मिक प्रसंगों में और आठ दिनों के लिए भी जाना हो तो सोचना पड़ता है। शरीर को मजबूत बनाने के लिए सर्दियों की कड़कड़ाती ठंड में भी प्रातः काल खुले शरीर से व्यायाम कसरत करने के लिए तैयार हो जाते हैं। परंतु प्रात:काल मंदिर में जाकर प्रभु की प्रक्षाल कराने पूजा करने में बहुत ठंड लगती है। अतः सर्दियों में पूजा भी छोड़ देते हैं। मित्रों से बातचीत करने के लिए घंटों खड़े रहेंगे, टिकिट न मिले तो घंटों खड़े रहेंगे तो पैर कमर कुछ नहीं दिखेगा परंतु प्रतिक्रमण करने के लिए उठ - बैठ करनी पड़े तो खड़े-खड़े का काउसग्ग करना पड़े तो कमर पैर धुटने सब दुखने लग जाते हैं। स्नान करने के लिए बाथरूम में जाएं तो आधा घंटा तक बाहर नहीं निकलते परंतु पूजा करने के लिए परमात्मा के मंदिर में जाएं तो दस मिनट से ज्यादा नहीं लगाते। पेट भरने के लिए थाली के पास बैठते हैं तो दस आइटम होने पर भी यदि एकाध चटनी जैसी आइटम रह जाए तो खाने का स्वाद उड़ जाता है। शास्त्

गणेश जी के मंत्र, यंत्र और तंत्र Ganesh ji ke mantra, yantra aur tantra

भारतीय संस्कृति में गणेश जी की उपासना प्राचीन काल से ही होती आ रही है। किसी भी कार्य के प्रारंभ में सर्वप्रथम गणेश जी की पूजा की जाती है। उन्हें गणपति गणनायक की पदवी प्राप्त है। अध्यात्म के विभिन्न क्षेत्रों में हिंदू धर्म की अनेक शाखाओं में गणेशजी पूज्य और अतिशय प्रभाव संपन्न देवता स्वीकृत है। उन्हें विद्या, बुद्धि का प्रदाता, विघ्नविनाशक, मंगलकारी, रक्षाकारक और सिद्धिदायक माना जाता है। जो मनुष्य विद्यारंभ, विवाह, ग्रहप्रवेश, यात्रा, संग्राम तथा संकट के अवसर पर श्री गणेश जी की महामंत्र एवं बारह नामों का नित्य जाप करता है उसके कार्यों में कभी विध्न नहीं पड़ता हैं। जो व्यक्ति "ॐ गं गणपतये नमः" महा मंत्र का प्रतिदिन प्रात: काल उठने के साथ ही मौनव्रत धारण कर सर्वप्रथम ३१ बार जाप करता है, उसका हर दिन उत्तम एवं उल्लास से भरा होता है व आने वाले विध्न स्वत: ही नष्ट हो जाते हैं, इसी प्रकार "श्री हरिद्रागणेश यंत्र" ( ताम्रपत्र पर अंकित ) का भी विशेष महत्व है। इसे पूजा के स्थान पर रखकर प्रतिदिन धूप दीप के साथ पूजा एवं दर्शन से मनुष्य की मनोकामनाएं पूर्ण होती है। साथ ही यह य

भरत महाराजा को केवल ज्ञान। Bharat Maharaja ko keval gyan.

छ:खंड के अधिपति होते हुए भी भरत महाराजा अंतर से सर्वथा अलिप्त थे ठीक ही कहा है, 'भरत जी मन ही में बैरागी, भरत जी मन ही में वैरागी। 96 करोड़ ग्राम के अधिपति, 64 हजार देवांगना जैसी स्त्रियों के पति 32 हजार मुकुटबध्द राजाओं के स्वामी, 14 रत्न नवनिधि, आठ महासिद्धि आदि आदि भौतिक समृद्धि के भोक्ता होते हुए भी वे अंतर से सर्वथा न्यारे थे। एक बार भरत महाराजा स्नान कर कीमती वस्त्र व आभूषणों से अलंकृत होकर आदर्शगृह में पधारें। वहां अचानक उनकी एक अंगुली में से एक मुद्रिका नीचे गिर पड़ी। अचानक उनकी नजर उस अंगुली पर गई। उन्होंने अंगूठी रहित अंगुली को कांति हीन देखा। अरे ! अंगुली शोभा रहित कैसे हो गई ? उसी समय उन्होंने जमीन पर पड़ी मुद्रिका देखी। वे सोचने लगे, क्या दूसरे अंग भी आभूषण रहित इसी तरह शोभा हीन होंगे ? इस प्रकार विचार कर वे अपने शरीर पर से एक एक आभूषण उतारने लगे। मस्तक पर से मुकुट उतारा और वह मस्तक शोभाहीन लगा । तत्पश्चात कानों में से कुंडल, गले में से हार, हाथों में से भुजाबंध, पैर में से कटक निकाल दिया। वे सोचने लगे, अहो ! इस शरीर को धिक्कार हो ! आभूषणों से शरीर की कृत्रिम शोभा की ज

सत्य कहां है ? Satya Kahan hi.

जीवन में सत्य का आग्रह बुद्धिमानों को होना चाहिए। सत्य जीवन का परम तत्व है। सत्य रहित संसार अपनी कल्पना से बाहर है। अपने जीवन में किसी क्षण सत्य के लिए आग्रही बनने का प्रयत्न करते हुए सामान्य व्यक्ति को भी जब हम देखते हैं या सुनते हैं तो सचमुच सत्य के प्रति सम्मान और बढ़ जाता है, परंतु सत्य को समझना सरल नहीं है। किसी भी समय की बात जब आप सुनेंगे तो उसमें सत्य की महिमा का भारी बखान होगा ही। अरे, आज के समय में भी सत्य का प्रभाव कम नहीं हैं परंतु सत्य किसे कहा जाए ? यह एक अनुत्तरित प्रश्न है। प्रथम बात यह है कि सत्य हमेशा निरपेक्ष नहीं, सापेक्ष हुआ करता है। किसी भी मंतव्य का जब आगॄह में युक्त "ही" के साथ प्रतिपादन किया जाता है तब वह मंतव्य सत्य की सामान्य मर्यादा का उल्लंघन करता है। सत्य कभी निरपेक्ष नहीं होता, यह त्रिकाल सत्य है। सत्य के स्वरूप को समझने के लिए प्रयत्नशील व्यक्ति को वस्तुमात्र के सापेक्षत्व को जानने हेतु की आंखें खोलनी चाहिए। आत्मा से लेकर संसार के किसी भी पदार्थ को जब सापेक्ष दृष्टि से देखने समझने का हम प्रयत्न करते हैं तब हमें सत्य तत्व का यथार्थ दर्शन होता ह

नम्रता की जीत अभिमान पर। Namrata ki jeet abhiman par.

एक विद्वान पंडित महा अभिमानी था। वह प्रत्येक गांव में जाता, वहां विद्वान पंडितों को चर्चा के लिए बुलाता, चर्चा में विजय बनकर पारितोषिक लेकर जाता। अधिकतर वह सामने वालों को पूर्व पक्ष स्थापन करने को कहता और तर्क वितर्क आदि के द्वारा पूर्व पक्ष का खंडन कर विजय माला प्राप्त कर लेता था। एक बार एक नगर में एक नमृ, सरल, अनुभवी और कुशाग्र बुद्धि के धनी संत ठहरे हुए थे। वह अभिमानी पंडित उस नगर में गया, उसने राज दरबार में सभी पंडितों को जीत लिया। तब उसके गर्व को देखकर एक साधारण व्यक्ति ने कहा - आप हमारे नगर में विराजित संत पुरुष को वाद में जीते तो हम आपको पंडित, विद्वान मानें। उसने गर्व में आकर बोला कहां है वह संत‌ ? चलो अभी उसे हरा देता हूं। वह कहां गये। वाद का निमंत्रण दिया। संत ने कहा - भाई ! वाद करना संतों का काम नहीं। संतों का काम उपदेश देना, विरागी बनाना है। तब उसने कहा - देखा मुझे देखकर डर गया। अब बहाने बनाता है। संत ने कहा - बहाने नहीं बनाता हूं। तेरी दया खाता हूं। तू हार जाएगा। तेरी कीर्ति नष्ट हो जाएगी। इसीलिए मना करता हूं। फिर भी वह न माना तब राज्यसभा में संत आए और उसने संत को पूर्व

संसार में कौन आपका है sansar mein kaun Aapka hai

यह संसार संयोगों का खेल है। जीव परलोक में जैसा कर्म करता है, उन कर्मों के साथ लिए इस संसार में जन्म लेता है, माता के गर्भ से जब बालक का जन्म होता है, तब वह अकेला होता है बाहरी सहयोग से मुक्त रहता है। न किसी को अपना मानता है, नहीं किसी को पराया। जन्म लेने के पश्चात माता के साथ उसका पहला मोह संबंध जुड़ता है। भूख लगने पर माता उसे दूध पिलाती है। कुछ भी दुखने पर वह उसे प्यार - दुलार से पुचकारती है। ममता का शीतल सुखद स्पर्श देकर उसका पालन-पोषण करती है। वह शिशु केवल अपनी माता को ही पहचानता है। उसी को अपना मानने लगता है। क्रमशः बहन, भाई, पिता आदि स्वजनों के साथ उसका स्नेहबंधन जुड़ता है। फिर खिलौनों से खेलता है तो खिलौनों को अपना मानने लगता है। उन्हीं से उसे गहरा लगाव हो जाता है। धीरे-धीरे मोह का, ममता का विस्तार होता जाता है। मित्र, परिवार फिर धन और फिर विवाह होने पर पत्नी संतान होने पर उन सब के साथ उसका प्रेम या मोह का सूत्र गहरा जुड़ता जाता है। एक दिन अकेला जन्म लेने वाला बालक बड़ा होकर ममता का बड़ा संसार अपनी चारों तरफ बसा लेता है। सब को अपना मानने लगता है। सब कोई उसे अपना पुत्र, भाई, मि

देह से आत्मा और आत्मा से परमात्मा deha se aatma aur aatma se parmatma

हाथी कितना बड़ा होता है और महावत हाथी से बहुत छोटा होता है, महावत से छोटा अंकुश होता है, उस से छोटी महावत की हथेली होती है और हथेली से छोटी उसकी उंगलियां होती है। जिससे वह अंकुश को चलाता है और अंगुली से भी छोटा होता है मन जो अंगुली को चलाता है और हाथी को नियंत्रित किया जाता है। पर क्या आपने सोचा है मन से भी कोई छोटी चीज महावत के शरीर में है जी हां वह है उसकी आत्मा जो मन से भी ज्यादा सूक्ष्म है, अदृश्य और अगोचर है। मन तो फिर भी व्यक्ति की गतिविधियों से अनुभव किया जा सकता है परंतु आत्मा का अनुभव करने के लिए तो अंतर्दृष्टि की आवश्यकता होती है। यद्यपि मन से ही प्राणियों के सारे क्रियाकलाप होते हैं और मन से ही सारा संसार चलता है,पर मन के पीछे जो आत्मा की छिपी हुई शक्ति है उसे हम भौतिकता की अंधी दौड़ में कभी पहचान नहीं पाते हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि आत्मा होती है, यदि होती है तो उसका आकार प्रकार क्या है ? उसको किसने देखा है ? तो मेरा जवाब है, कि क्या किसी ने मन को देखा है ? क्या किसी ने हवा को देखा है ? क्या आपने अहंकार को देखा है ? नहीं फिर भी यह है कि नहीं ? इसी तरह आत्मा भी दिखाई नहीं

सर्व सिद्धिदायक णमोकार महामंत्र sarv siddhi dayak namokar mahamantra

यह सभी अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाला महामंत्र है। आत्मा शोधन हेतु होते हुए भी नित्य जाप करने वाले के रोग,शोक,आदि, व्याधि आदि सभी बाधाएं दूर हो जाती है, पवित्र, अपवित्र, रोगी, दुखी, सुखी आदि किसी भी अवस्था में इस महामंत्र के जाप करने से समस्त पाप भस्म हो जाते हैं तथा अंदर से व बाहर से मन पवित्र हो जाता है। यह समस्त विघ्नों को दूर करने वाला तथा समस्त मंगलों में प्रथम है। किसी भी कार्य के आदि में इसके स्मरण करने से वह कार्य निर्विघ्न तथा पूर्ण हो जाता है। त्रियंच, पशु ,पक्षी जो मांसाहारी है जैसे सर्प जीवन में हजारों तरह के पाप करते हैं, अनेक प्राणियों की हिंसा करते हैं मांसाहारी होते हैं तथा उनमें क्रोध, मान, माया, लोभ कषायों की तीव्रता होती है, फिर भी अंतिम समय में किसी दयालु द्वारा णमोकार मंत्र का श्रवण कराने मात्र उस त्रियंच पर्याय का त्याग कर स्वर्ग देव गति को प्राप्त होते हैं। णमोकार मंत्र के एक अक्षर का भाव सहित स्मरण करने से सात साल तक भोगे जाने वाले पापों का नाश हो जाता है और समस्त मंत्र का भाव सहित जाप करने तथा विधि पूर्वक स्मरण करने पर अभागा प्राणी स्वर्गोदी सुखों को प्राप्त करता

जीवन मुक्ति की अभिलाषा jivan mukti ki abhilasha

मनुष्य में पलायन की प्रवृत्ति घर कर गई है। वह अपने वर्तमान को एक सजा के रूप में मानता है। वह सोचता है कि मनुष्य - जन्म झंझटों से भरा हुआ है। उस ऐसा सिखा दिया जाता है कि इससे मुक्त होना ही परमानंद की स्थिति है। वह जीवन जीने का प्रयास कम करता है और इससे मुक्त होने का प्रयास ज्यादा करता है। नाना प्रकार की कहानियां वह निर्मित कर देता है। अनेक रास्तों की परिकल्पना वह कर लेता है, जिनका कोई आधार नहीं होता है, जिनका कोई प्रमाण नहीं होता है। बस किसी भी कह दिया, कहीं पढ़ लिया और उस पर भरोसा कर अपने जीवन को दांव पर लगा दिया। आश्चर्यजनक बात यह है कि जितने मुंह उतनी बातें। मुक्त होने के रास्ते भी हर व्यक्ति के अलग-अलग हैं‌। सबको लगता है कि मेरा रास्ता सही है बाकी सबके गलत है। इस मुक्त होने की चाहत में व्यक्ति पता नहीं क्या-क्या कर बैठता है। हकीकत में यह जीवन से पलायन है। अभी तो जीवन मिला है, उसे सुंदर बनाने की कोई जिम्मेदारी नहीं है क्या? इसको झंझट भरा मानकर क्या परमात्मा द्वारा दिए गए तोहफे का अपमान नहीं कर रहे हो। कोई आपको खूबसूरत तोहफा दे और आप उसे यह कहो कि आपने मुझे यह क्या झंझट भरा तोहफा दे

बुराई, निंदा, शिकायत और आलोचना मत करें। Burai ninda shikayat aur aalochana mat Karen.

किसी की आलोचना से या करने का कोई फायदा नहीं होता, क्योंकि इससे सामने वाला व्यक्ति अपना बचाव करने लगता है, बहाने बनाने लगता है या तर्क देने लगता है। आलोचना खतरनाक भी है क्योंकि इससे व्यक्ति का बहुमूल्य आत्मसम्मान आहात होता है, उसके दिल को ठेस पहुंचती है और वह आपके प्रति दुर्भावना रखने लगता है। आलोचना से कोई सुधरता नहीं है, अलबत्ता संबंध जरूर बिगड़ जाता है। "जितने हम सराहना के भूखे होते हैं, उतने ही हम निंदा से डरते हैं।" आलोचना या निंदा से कर्मचारियों , परिवार के सदस्यों और दोस्तों का मनोबल कम होता जाता है और उस स्थिति में कोई सुधार नहीं होता, जिसके लिए आलोचना की जाती है। हर गलत काम करने वाला अपनी गलती के लिए दूसरों को दोष देता है। परिस्थितियों को दोष देता है, परंतु खुद को दोष नहीं देता है। हम सब यही करते हैं। जब हमारी इच्छा किसी की आलोचना करने की हो तो हमें यह अहसास होना चाहिए कि आलोचना लौटकर हमारे पास आ जाती है, यानी बदले में वह व्यक्ति हमारी आलोचना करना शुरू कर देता है। किसी की आलोचना मत करो, ताकि आप की भी आलोचना न हो। तीखी आलोचना और डांट - फटकार हमेशा बीमार

तारीफ का भूखा है। Tarif ka bhukha hi.

कुत्तों को बदलने वाली इसी कॉमन सेंस भरी तकनीक का इस्तेमाल इंसानों को बदलने में क्यों नहीं करते ? हम कोड़े की बजाय गोशत का इस्तेमाल क्यों नहीं करते ? हम आलोचना के बजाय प्रशंसा का इस्तेमाल क्यों नहीं करते ? हमें थोड़े से सुधार की भी तारीफ करनी चाहिए इससे सामने वाले व्यक्ति को सुधरने में प्रोत्साहन और प्रेरणा मिलती है। प्रशंसा मनुष्य के हृदय के लिए सूर्य के सुखद प्रकाश की तरह है, इसके बिना हमारे व्यक्तित्व का पुष्प नहीं खिल सकता है। इतिहास में ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं जब प्रशंसा की जादुई छड़ी ने किसी व्यक्ति के जीवन को बदल कर रख दिया है। हर व्यक्ति तारीफ पसंद करता है , परंतु जब यह तारीफ किसी खास बात को लेकर की जाती है तब हमें पता चलता है कि तारीफ सच्ची है कि सामने वाला व्यक्ति हमें मूर्ख नहीं बना रहा है या हमें सिर्फ खुश करने के लिए यह बात नही कह रहा है। हम सब प्रशंसा और सम्मान के भूखे हैं और इन्हें पाने के लिए कुछ भी कर सकते हैं। परंतु हममें से कोई भी व्यक्ति झूठी तारीफ पसंद नहीं करता है। कोई भी चापलूसी पसंद नहीं करता। क्या आप लोगों को बदलने के बारे में सोच रहे हैं। अगर आप और मैं उन लोगो