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Showing posts from December, 2020

अपने हर काम में कुछ इस तरह ढूंढें आनंद Apne har kaam mein Kuch is Tarah dhundhe Anand

एक गांव में कुछ मजदूर पत्थर के खंभे बना रहे थे। उधर से एक संत गुजरे। उन्होंने एक मजदूर से पूछा - यहां क्या बन रहा है ? उसने कहा - देखते नहीं पत्थर काट रहा हूं ? संत ने कहा - हां , देख तो रहा हूं। लेकिन यहां बनेगा क्या ? मजदूर झुंझला कर बोला - मालूम नहीं। यहां पत्थर तोड़ते - तोड़ते जान निकल रही है और इनको यह चिंता है कि यहां क्या बनेगा। साधु आगे बढ़े। एक दूसरा मजदूर मिला। संत ने पूछा - यहां क्या बनेगा ? मजदूर बोला - देखिए साधु बाबा , यहां कुछ भी बने चाहे मंदिर बने या जेल , मुझे क्या। मुझे तो दिन भर की मजदूरी के रूप में सौ रुपए मिलते हैं। बस शाम को रुपए मिलें और मेरा काम बने। मुझे इससे कोई मतलब नहीं कि यहां क्या बन रहा है। साधु आगे बढ़े तो तीसरा मजदूर मिला। साधु ने उससे पूछा - यहां क्या बनेगा ? मजदूर ने कहा - मंदिर । इस गांव में कोई बड़ा मंदिर नहीं था। इस गांव के लोगों को दूसरे गांव में उत्सव मनाने जाना पड़ता था। मैं भी इसी गांव का हूं। ये सारे मजदूर इसी गांव के हैं। मैं एक - एक छेनी चला कर जब पत्थरों को गढ़ता हूं तो छेनी की आवाज में मुझे मधुर संगीत सुनाई पड़ता है। मैं आनंद में हूं। कु

प्रतिभा और ज्ञान Pratibha aur gyan

एक संत को जंगल में एक नवजात शिशु मिला। वह उसे अपने घर जे आए। उन्होंने उसका नाम जीवक रखा। उन्होंने जीवक को अच्छी शिक्षा - दीक्षा प्रदान की। जब वह बड़ा हुआ तो उसने संत से पूछा , 'गुरुजी , मेरे माता -पिता कौन हैं ? ' संत को जीवक के मुंह से यह सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ लेकिन उन्होंने उसे सच बताने का निश्चय किया और बोले , ' पुत्र , तुम मुझे घने जंगलों में मिले थे। मुझे नहीं मालूम कि तुम्हारे माता-पिता कौन हैं और कहां हैं ? ' जीवक अत्यंत उदास होकर बोला , ' गुरुजी , अब आत्महीनता का भार लेकर मैं कहां जाऊं ? ' इस पर संत उसे सांत्वना देते हुए बोले , ' पुत्र , इस बात से दु:खी होने के बजाय तुम तक्षशिला जाओ और वहां विद्याध्ययन करके अपने ज्ञान के प्रकाश से संपूर्ण समाज को आलोकित करो। ' जीवक अध्ययन के लिए चल पड़ा। वहां पहुंचकर वहां के आचार्य को उसने अपने बारे में सब कुछ बता दिया। आचार्य ने उसकी स्पष्टवादिता से प्रभावित होकर उसे विश्वविद्यालय में प्रवेश दे दिया। जीवक वहां पर कठोर परिश्रम के साथ आयुर्वेदाचार्य की उपाधि प्राप्त की। संपूर्ण शिक्षा प्राप्त करने के बाद ए

कर्म करो तभी मिलेगा karam karo tabhi milega

कौरवों की राजसभा लगी हुई है। एक ओर कोने में पाण्डव भी बैठे हैं। दुर्योधन की आज्ञा पाकर दुःशासन उठता है और द्रौपदी को घसीटता हुआ राजसभा में ला रहा है। आज दुष्टों के हाथ उस अबला की लाज लूटी जाने वाली है। उसे सभा में नंगा किया जाएगा। वचनबद्ध पाण्डव सिर नीचा किए बैठे हैं। द्रौपदी अपने साथ होने वाले अपमान से दुःखी हो उठी। उधर सामने दुष्ट दुःशासन आ खड़ा हुआ। द्रौपदी ने सभा में उपस्थित सभी राजा - महाराजाओं पितामहों की रक्षा के लिए पुकारा , किंतु दुर्योधन के भय से और उनका नमक खाकर जीने वाले कैसे उठ सकते थे। द्रौपदी ने भगवान् को पुकारा , अंतर्यामी घट-घटवासी कृष्ण दौड़े आए कि आज भक्त पर विपदा आन पड़ी है। द्रौपदी को दर्शन दिया और पूछा-किसी को वस्त्र दिया हो तो याद करो। ’’ द्रौपदी को एक बात याद आई और बोली-भगवन् एक बार पानी भरने गई थी तो तपस्या करते हुए ऋषि की लंगोटी नदी में बह गई , तब उसे धोती में से आधी फाड़कर दी थी।’’ कृष्ण भगवान् ने कहा - " द्रौपदी अब चिंता मत करो। तुम्हारी रक्षा हो जाएगी। ’’ और जितनी साड़ी दुःशासन खींचता गया उतनी ही बढ़ती गई। दुःशासन हार कर बैठ गया , किंतु साड़

उपाली और महात्मा बुद्ध upali aur mahatma buddh

उपाली बहुत ही धनी व्यक्ति था और गौतम बुद्ध के ही समकालीन एक अन्य धार्मिक गुरु निगंथा नाथपुत्ता का शिष्य था। नाथपुत्ता के उपदेश बुद्ध से अलग प्रकार के थे। उपाली एक बहुत ही विलक्षण वक्ता था और वाद-विवाद में भी बहुत ही कुशल था। उसके गुरु ने उसे एक दिन कहा कि वह कर्म के कार्य-कारण सिद्धांत पर बुद्ध को बहस की चुनौती दे। एक लंबे और जटिल बहस के बाद बुद्ध उपाली का संदेह दूर करने में सफल रहे और उपाली को बुद्ध से सहमत होना पड़ा कि उसके धार्मिक गुरु के विचार गलत हैं। उपाली बुद्ध के उपदेशों से इतना प्रभावित हो गया कि उसने बुद्ध को तत्काल उसे अपना शिष्य बना लेने का अनुरोध किया। लेकिन उसे आश्चर्य हुआ जब बुद्ध ने उसे यह सलाह दी - “प्रिय उपाली , तुम एक ख्याति प्राप्त व्यक्ति हो। पहले तुम आश्वस्त हो जाओ कि तुम अपना धर्म केवल इसलिए नहीं बदल रहे हो कि तुम मुझसे प्रसन्न हो या तुम केवल भावुक होकर यह फैसला कर रहे हो। खुले दिमाग से मेरे समस्त उपदेशों पर फिर से विचार करो और तभी मेरा अनुयायी बनो। ” चिंतन की स्वतंत्रता की भावना से ओत-प्रोत बुद्ध के इस विचार को सुनकर उपाली और भी प्रसन्न हो गया। उसने कहा , “ प

सेवाभावी की कसौटी sevabhavi ki kasauti

स्वामी जी का प्रवचन समाप्त हुआ। अपने प्रवचन में उन्होंने सेवा - धर्म की महत्ता पर विस्तार से प्रकाश डाला और अन्त में यह निवेदन भी किया कि जो इस राह पर चलने के इच्छुक हों , वह मेरे कार्य में सहयोगी हो सकते हैं। सभा विसर्जन के समय दो व्यक्तियों ने आगे बढ़कर अपने नाम लिखाये। स्वामी जी ने उसी समय दूसरे दिन आने का आदेश दिया। सभा का विसर्जन हो गया। लोग इधर - उधर बिखर गये। दूसरे दिन सड़क के किनारे एक महिला खड़ी थी , पास में घास का भारी ढेर रखा था। किसी राहगीर की प्रतीक्षा कर रही थी कि कोई आये और उसका बोझा उठवा दे। एक आदमी आया , महिला ने अनुनय - विनय की , पर उसने उपेक्षा की दृष्टि से देखा और बोला - ‘‘ अभी मेरे पास समय नहीं है। मैं बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य को सम्पन्न करने जा रहा हूँ। ’’इतना कह वह आगे बढ़ गया। थोड़ी ही दूर पर एक बैलगाड़ी दलदल में फँसी खड़ी थी। गाड़ीवान् बैलों पर डण्डे बरसा रहा था पर बैल एक कदम भी आगे न बढ़ पा रहे थे। यदि पीछे से कोई गाड़ी के पहिये को धक्का देकर आगे बढ़ा दे तो बैल उसे खींचकर दलदल से बाहर निकाल सकते थे। गाड़ीवान ने कहा - ‘‘ भैया ! आज तो मैं मुसीबत में फँस गया हूँ।

कठोर से कठोर व्यक्ति में भी नरम हृदय होता है kathor se kathor vyakti mein bhi naran hriday hota hai

काशी के एक संत के पास एक छात्र आया और बोला- गुरुदेव , आप प्रवचन करते समय कहते हैं कि कटु से कटु वचन बोलने वाले के अंदर भी नरम हृदय हो सकता है। मुझे विश्वास नहीं होता। संत यह सुनकर गंभीर हो गए। उन्होंने कहा- मैं इसका जवाब कुछ समय बाद ही दे पाऊंगा। छात्र लौट गया। एक महीने बाद वह फिर संत के पास पहुंचा। उस समय संत प्रवचन कर रहे थे। वह लोगों के बीच जाकर बैठ गया। प्रवचन समाप्त होने के बाद संत ने एक नारियल उस छात्र को दिया और कहा- वत्स , इसे तोड़कर इसकी गिरी निकाल कर लोगों में बांट दो। छात्र उसे तोड़ने लगा। नारियल बेहद सख्त था। बहुत कोशिश करने के बाद भी वह नहीं टूटा। छात्र ने कहा- गुरुदेव , यह बहुत कड़ा है। कोई औजार हो तो उससे इसे तोड़ दूं। संत बोले - औजार लेकर क्या करोगे ? कोशिश करो टूट जाएगा। छात्र फिर उसे तोड़ने लगा। इस बार वह टूट गया। उसने उसकी गिरी निकालकर भक्तों में बांट दी और एक कोने में बैठ गया। एक-एक करके सभी भक्त चले गए। संत भी उठकर जाने लगे तो छात्र ने कहा-गुरुदेव , अभी तक मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं मिला। संत मुस्कराकर बोले - तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दिया जा चुका है , पर

दोस्ती की आग dosti ki aag

अली नाम के एक लड़के को पैसों की सख्त ज़रुरत थी । उसने अपने मालिक से मदद मांगी। मालिक पैसे देने को तैयार हो गया पर उसने एक शर्त रखी । शर्त ये थी कि अली को बिना आग जलाये कल की रात पहाड़ी की सबसे ऊँची चोटी पर बितानी थी , अगर वो ऐसा कर लेता तो उसे एक बड़ा इनाम मिलता और अगर नहीं कर पाता तो उसे मुफ्त में काम करना होता । अली जब दुकान से निकला तो उसे एहसास हुआ कि वाकई कड़ाके की ठण्ड पड़ रही है और बर्फीली हवाएं इसे और भी मुश्किल बना रही हैं। उसे मन ही मन लगा कि शायद उसने ये शर्त कबूल कर बहुत बड़ी बेवकूफी कर दी है । घबराहट में वह तुरंत अपने दोस्त आदिल के पास पहुंचा और सारी बात बता दी। आदिल ने कुछ देर सोचा और बोला , “ चिंता मत करो , मैं तुम्हारी मदद करूँगा । कल रात , जब तुम पहाड़ी पर होगे तो ठीक सामने देखना मैं तुम्हारे लिए सामने वाली पहाड़ी पर सारी रात आग जला कर बैठूंगा । तुम आग की तरफ देखना और हमारी दोस्ती के बारे में सोचना ; वो तुम्हे गर्म रखेगी। और जब तुम रात बिता लोगे तो बाद में मेरे पास आना , मैं बदले में तुमसे कुछ लूंगा । ” अली अगली रात पहाड़ी पर जा पहुंचा , सामने वाली पहाड़ी पर आदिल भी

दो दोस्तों की अनसुनी कहानी do doston ki ansuni kahani

एक बार दो मित्र साथ-साथ एक रेगिस्तान में चले जा रहे थे। रास्ते में दोनों में कुछ कहासुनी हो गई। बहसबाजी में बात इतनी बढ़ गई की उनमे से एक मित्र ने दूसरे के गाल पर जोर से तमाचा मार दिया। जिस मित्र को तमाचा पड़ा उसे दुःख तो बहुत हुआ किंतु उसने कुछ नहीं कहा वो बस झुका और उसने वहां पड़े बालू पर लिख दिया... ' आज मेरे सबसे निकटतम मित्र ने मुझे तमाचा मारा ' दोनों मित्र आगे चलते रहे और उन्हें एक छोटा सा पानी का तालाब दिखा और उन दोनों ने पानी में उतर कर नहाने का निर्णय कर लिया। जिस मित्र को तमाचा पड़ा था वह दलदल में फंस गया और डूबने लगा किंतु दूसरे मित्र ने उसे बचा लिया। जब वह बच गया तो बाहर आकर उसने एक पत्थर पर लिखा... ' आज मेरे निकटतम मित्र ने मेरी जान बचाई ' जिस मित्र ने उसे तमाचा मारा था और फिर उसकी जान बचाई थी वह काफी सोच में पड़ा रहा और जब उससे रहा न गया तो उसने पूछा ' जब मैंने तुम्हे मारा था तो तुमने बालू में लिखा और जब मैंने तुम्हारी जान बचाई तो तुमने पत्थर पर लिखा ऐसा क्यों ?' इस पर दूसरे मित्र ने उत्तर दिया , ' जब कोई हमारा दिल दुखाए तो हमें उस अनुभव के बार

अंतर - सौंदर्य Antar - soundarya

श्रमण हरिकेशबल चांडाल कुल में उत्पन्न हुए थे। बचपन में जातिवाद के शिकार हुए। उन्हें संसार से घृणा हुई और वे श्रमण बन गए। एक दिन हरिकेशबल ध्यान में लीन थे। राजकुमारी भद्रा मंदिर में पूजन कर बाहर निकली थी। अचानक भद्रा की नजर हरिकेशबल पर पड़ी। हरिकेशबल का काला - कलूटा शरीर देखकर राजकुमारी घृणा कर बैठी। वह उनकी उज्जवल ता को न पहचान पाई और उन पर थूक दिया। पास खड़ी सहेली ने कहा , ' राजकुमारी ! तुमने यह क्या किया ? इस संत ने जातिवाद की बेड़ियों को तोड़कर मानवता को प्रतिष्ठित किया है। क्षमा मांग लो इनसे , अन्यथा कुछ भी अहित हो सकता है। इनका अनादर उस ज्योति का अपमान है जो इस संत के अंतरर्दीप मैं प्रज्वलित है।' ' हूं ! मैं और क्षमा मांगू इस काले - कलूटे से ! मेरा कुछ भी अहीत नहीं हो सकता। भला यह श्रमण मेरा क्या बिगाड़ लेगा ?' वृक्ष पर बैठा हुआ यक्ष सब कुछ देख - सुन रहा था। हरिकेशबल का अपमान उसके लिए असहृ था। उसने निर्णय लिया , राजकुमारी के गर्व को चकनाचूर करने का तथा संत के अपमान का बदला लेने का। राजमहल पहुंचते ही भद्रा बेहोश हो गई। सारे उपचार निरर्थक गए। राजवैद्य ने कहा ,

मृत्यु का बोध mrutyu ka bodh

एक युवक सद्गुरु बायजीद के पास वर्षों से जाया करता था। वह आश्चर्यचकित था , उनके पवित्र आचरण को देखकर । एक दिन उसने पूछ लिया , ' भंते ! मैं वर्षों से आपको देख रहा हूं । अब तक मुझे आपमें एक भी दोष दिखाई नहीं दिया । मन में इस बात का विश्वास है कि आखिर एक इंसान इतना निर्दोष और पवित्र कैसे हो सकता है ? ' बायजीद मौन रहे , लेकिन युवक बार-बार प्रश्न पूछता रहा। पता नहीं क्यों ? एक दिन बायजीद ने युवक की हस्त-रेखा देखी और चेहरे को उदास करते हुए बोले , ' युवक , तेरी उम्र की रेखा कट गई है । कल सुबह सूर्योदय होगा और तुम्हारे जीवन का सूर्यास्त हो जाएगा । ' युवक घबराकर तत्काल खड़ा हो गया। उसने कहा , ' मुझे घर जाने दें। सद्गुरु ने मुस्कुराते हुए कहा , ' वत्स ! इतनी जल्दी क्या है ? कल सुबह होने को अभी काफी देर है। बैठो , तुम्हें तुम्हारे प्रश्न का उत्तर भी दे देता हूं । ' युवक ने कहा , ' कृपया रहने दें उत्तर को । मेरे तो हाथ - पैर कांप रहे हैं और आंखों के सामने धुंध छाई रही है । ' उधर बायजीद की भविष्यवाणी से उसके परिवार में सन्नाटा छा गया। सभी को ज्ञात था कि बायज

शब्दों का भी अपना सामर्थ्य होता है shabdon ka bhi apna Samarth hota hai

एक दिन रात्रि में रामकृष्ण प्रवचन दे रहे थे। काफी लोग इकट्ठे थे सभा में। उन्होंने ओम् पर चर्चा शुरू कर दी। वे ध्वनि - विज्ञान पर प्रकाश डालने लगे । प्रवचन के बीच एक पंडित बोला , ' ठहरें , आप इतनी देर से ओंकार शब्द की महिमा गाए जा रहे हैं। शब्दों में क्या रखा है ? ओंकार तो एक शब्द है। उससे आत्म-ज्ञान कैसे संभव है ? ' उसने अनेक शास्त्रों के उदाहरण दिए। आधे घंटे तक वह बोलता गया। इसी बीच रामकृष्ण हटात् बोले , ' चुप रह उल्लू के पट्ठे ! अब अगर एक शब्द भी बोला तो ठीक ना रहेगा । ' रामकृष्ण ने गाली दी और पंडित तमतमा गया। शरद ऋतु थी , पर वह पसीना - पसीना हो गया। उसकी आंखें क्रोध से लाल हो गई , पर चारों और रामकृष्ण के भक्त बैठे थे , अतः वह बोल न पाया। राम कृष्ण पुनः ओंकार की व्याख्या करने लगे। दस मिनट पश्चात् उन्होंने उसी पंडित की ओर इशारा कर कहा , ' पंडित , माफ करना। गाली तो मैंने इसलिए दी थी ताकि तुम्हें बोध हो सके कि शब्द का भी अपना सामर्थ्य है । तुम तो बिल्कुल ही तमतमा गए और मरने - मारने पर उतारू हो गए । हकीकत तो यह है कि मेरे भक्त मौजूद हैं , अन्यथा तुम मेरी हड्डियां ह

सीमा पंथ की , संप्रदाय की और जाति की , Seema pant ki , samprday ki aur jaati ki ,

राजा ने संतो और महंतों के लिए एक दिन विशेष भोज का आयोजन किया। भोजन उपरांत राजा ने घोषणा की , ' मैं अपने नगर के बाहर प्रबुद्ध पुरुषों का एक उपनिवेश बसाना चाहता हूं । राजधानी के बाहर , झील के पीछे जंगल में जो जितनी भूमि घेरना चाहे , घेर ले और अपनी चार -दीवारी बना ले । जो जितनी भूमि घेर पाएगा , वह उसी की हो जाएगी । यह भी स्मरण रहे कि जिसका घेरा जितना बड़ा होगा , वही राजगुरु के पद पर प्रतिष्ठित होगा। ' सभी संत और ज्ञानी अपनी-अपनी घेराबंदी करने लगे। आकांक्षा थी , राजगुरु बनने की। सबने अपनी सारी धनराशि घेराबंदी करने में खर्च कर दी । नियत दिन पर स्वयं राजा उनके बीच गया। कहा , ' ब्राह्मणों ! किसका घेरा ज्यादा बड़ा है ? सूचित करें । मैं उसको राजगुरु बनाना चाहता हूं । ' अचानक ब्राह्मणों की टोली में से संत सारस्वत उठे और कहने लगे , ' जितने लोगों ने जमीन की घेराबंदी की है , उनमें सबसे बड़ा घेरा मेरा है। ' नो केवल राजा अपितु सभी ज्ञानी संत उनके वक्तव्य को सुनकर आश्चर्यचकित हुए। उनकी गरीबी से कोई भी अपरिचित न था । वस्त्रों के नाम पर उनके पास मात्र एक लंगोटी थी । लोग यह भी ज

आत्मा ही मेरी पूंजी है और परमात्मा ही मेरा अंतर - सुख है atma hi meri punji hai aur parmatma hi Mera Antar sukh hai

नगरवासी सो कर उठे थे। कि उन्हें एक अद्भुत घोषणा सुनाई दी , ' संसार के लोगों ! दुनिया में सुखों की अनमोल भेंट दी जा रही है। जो व्यक्ति इस अचूक अवसर का लाभ उठाना चाहे वह आज अर्ध - रात्रि में अपने दु:खों को कल्पना की गठरी में बांधकर गांव के बाहर नदी में फेंक आए और लौटते समय जिन सुखों की कामना करता हो , उन्हें उसी गठरी में बांधकर सूर्योदय से पूर्व घर लौट आए। एक रात्रि के लिए पृथ्वी पर यह कल्प - वृक्ष का अवतरण है। ' जैसे-जैसे रात करीब आने लगी , नास्तिक भी आस्तिक होने लगे। कोई भी व्यक्ति इस अवसर को खोना नहीं चाहता था। सभी अपने दु:खों की गठरियां बांधने लगे। सभी चिंतित थे यह सोचकर कि कहीं कोई दु:ख बांधने से छूट न जाए। आधी रात होते-होते नगर के सभी घर खाली हो गए। असंख्य के लोग चींटियों की तरह झुण्ड बनाए हुए अपने - अपने दु:खों की गठरियां बांधकर चले जा रहे थे। सभी ने दु:खों की गठरियों को नदी में फेंका और सुखों को बांधने लगे। सुख तो असंख्य किंतु समय अल्प था। जिसे जितने सुख याद आए , उतने ही सुख उन्होंने अपनी गठरियों में बांध लिए। भोर होते - होते हुए नगर में पहुंचे। आकाशवाणी सही निकली। ज

लाचार मनुष्य की सहायता ना करना पशुता है lachar manushya ki sahayata Na Karna pashuta hai

यह एक सच्ची घटना है। छुट्टी हो गयी थी। सब लड़के उछलते - कूदते , हँसते - गाते पाठशाला से निकले। पाठशाला के फाटक के सामने एक आदमी सड़क पर लेटा था। किसी ने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया। सब अपनी धुन में चले जा रहे थे। एक छोटे लड़के ने उस आदमी को देखा , वह उसके पास गया। वह आदमी बीमार था , उसने लड़के से पानी माँगा। लड़का पास के घर से पानी ले आया। बीमार ने पानी पीया और फिर लेट गया। लड़का पानी का बर्तन लौटा कर खेलने चला गया। शाम को वह लड़का घर आया। उसने देखा कि एक सज्जन उसके पिता को बता रहे हैं कि ‘आज , पाठशाला के सामने दोपहर के बाद एक आदमी सड़क पर मर गया। ’ लड़का पिता के पास गया और उसने कहा - ‘बाबूजी! मैंने उसे देखा था। वह सड़क पर पड़ा था। माँगने पर मैंने उसे पानी भी पिलायाथा। ’ इस पर पिता ने पूछा , ‘‘ फिर तुमने क्या किया।’’ लड़के ने बताया - ‘‘ फिर मैं खेलने चला गया। ’’ पिता थोड़ा गम्भीर हुए और उन्होंने लड़के से कहा - ‘ तुमने आज बहुत बड़ी गलती कर दी। तुमने एक बीमार आदमी को देखकर भी छोड़ दिया। उसे अस्पताल क्यों नहीं पहुँचाया ? डरते - डरते लड़के ने कहा - ‘ मैं अकेला था। भला , उसे अस्पताल कैसे ले जात

पहचान pahchan

एक भक्त सांई से रोज प्रार्थना करता था , ' बाबा एक दिन मेरे घर भोजन करने की कृपा करें। ' बाबा रोज टाल देते थे। एक दिन भक्त के विशेष आग्रह पर उन्होंने स्वीकृति दे दी। कहा , ' मैं शाम छह बजे तुम्हारे घर पहुंच जाऊंगा , पर तुम चुक मत जाना। ' शाम के छह बज गए। भक्त प्रतीक्षा में ही बैठा रहा , लेकिन सांई नहीं आए थोड़ी देर में भक्त के द्वार पर हाथ में लकड़ी लिए वृद्ध पहुंचा। उसने भक्त से भोजन कि याचना की। भक्त ने कहा , 'नहीं , भोजन सांईं के लिए है , तुम्हें नहीं मिलेगा। ' वृद्ध भिखारी ने काफी याचना की , लेकिन भक्त कुछ भी देने को तैयार न हुआ। रात ढल गई , लेकिन सांई भोजन करने नहीं आए। दूसरे दिन भक्त ने आकर सांई को उलाहना दिया , ' बाबा ! मैं प्रतीक्षा में बैठा रहा किंतु आप नहीं आए। ' सांई ने कहा ' मैं तो आया था किंतु तुम चूक गए। मैंने मांगा , पर तुम इंकार कर गए। ' भक्त सारी बात समझ गया। उसने कहा , ' बाबा , भूल हो गई। आज जरूर पधारें। मैं आपके इंतजार में रहूंगा। ' सांई ने ' हां ' कर दी। भक्त ने भोजन में विविध पकवान बनाए और वह अपने घर के

सत्य और शांति की खोज Satya aur shanti ki khoj

दार्शनिक मौलुंकपुत्र तथागत बुद्ध के पास गया और पूछा , ' क्या ईश्वर है ? बुद्ध ने कहा , ' तुम्हारे प्रश्न का उत्तर अवश्य दूंगा , पर पहले यह बताओ कि यह तुम्हारी बौध्दिक उपज है या सत्य जानने का प्रयास। ' मौलुंकपुत्र ने कहा , ' बौद्धिक खुजलाहट बहुत कर चुका हूं। अब तो सत्य से साक्षात्कार करना चाहता हूं। ' ' तो फिर तुम क्या कुछ दांव पर लगा सकोगे ?' बुद्ध ने प्रश्न - सूचक लहजे में पूछा। मौलुंकपुत्र ने कहा , ' मैं सब कुछ लगा दूंगा दांव पर क्योंकि जैसे आप क्षत्रियपुत्र हैं , वैसे ही मैं भी क्षत्रियपुत्र हूं ! क्षत्रिय , क्षत्रिय को चुनौती न दे। बुद्ध बोले , ' मौलुंकपुत ! चुनौती मेरा जीवन है। क्या ईश्वर है ? अगर इस प्रश्न का समाधान पाना है तो दो वर्ष तुम्हें मौन रखना पड़ेगा , यहीं पर ; तब तक न कोई प्रश्न और न ही कोई समाधान। जब दो वर्ष पूर्ण हो जाएंगे मौन को , तो मैं स्वयं ही पूछ लूंगा और तुम्हारे प्रश्न का समाधान दे दूंगा। क्या तुम तैयार हो ? ' ' क्या दो वर्ष तक निरंतर मौन ? मौलुंकपुत्र पहले तो चौंका। पर बाद में कहने लगा , 'भगवान , अगर आप जान

अपने अंदर के वीतराग को जगाए Apne andar ke vitraag ko jagay

संत रांका अपरिग्रही और अकिंचन माने जाते थे। परिवार के नाम पर केवल एक पत्नी थी। पति - पत्नी दोनों जंगल में जाते , लकड़ियां काटते और उन्हें बैचकर अपनी आजीविका चलाते थे। वर्षा - ऋतु थी । पांच - छह दिन तक निरंतर पानी बरसा। वे दोनों लकड़ियां काटने न जा सके। छह दिन तक दोनों को भूखा रहना पड़ा। सातवें दिन वर्षा थमी और वे दोनों लकड़ियां काटने के लिए रवाना हुए। रांका आगे - आगे जा रहे थे। सौ - फुट पीछे उनकी पत्नी चल रही थी। रांका ने देखा की राह के किनारे अशर्फीयों से भरी हुई एक थैली पड़ी थी। सोचा , ' मैं तो अंकिचन हूं अतः कहीं यह सोना मेरी पत्नी को प्रलोभित न कर दे। ' उन्होंने अशर्फीयों पर मिट्टी डालने शुरु कर दी। वे मिट्टी डाल ही रहे थे कि उनकी पत्नी उनके पास पहुंच गई , पूछा , ' यह क्या कर रहे हैं आप ? ' रांका ने कहा , ' यहां अशर्फीयों की एक थैली पड़ी थी। सोचा , कहीं तुम्हें वह विचलित न कर दे। इसीलिए इम्हें मिट्टी से ढंकने लग गया था। ' पत्नी हंसने लगी और रांका उसकी और नजर उठाकर देखने लगे। पत्नी ने कहा , ' तुम अकिंचन कहलाते हो और मिट्टी को मिट्टी से ढांकते हो ? 

रामेश्वरम का अभिषेक rameshwaram ka Abhishek

संत एकनाथ काशी से रामेश्वरम् की ओर जा रहे थे। साथ में और भी संत थे। सभी संत अपने - अपने कंधों पर शिवलिंग पर चढ़ाने के लिए गंगाजल ले जा रहे थे। कुछ दिनों तक चलने के बाद मार्ग में मरुस्थल आया। मरुस्थल में एक गधा प्यास से तड़प रहा था। सभी संत झुंड बनाकर वहां खड़े हो गए। वे प्यासे गधे के लिए संवेदना प्रकट करने लगे पर वह केवल शाब्दिक संवेदना थी। एकनाथ सबसे पीछे चल रहे थे। वह भी वहां पहुंचे। देखा कि सब लोग गधे के लिए 'बेचारा ' ' बेचारा ' कह रहे हैं , पर पानी कोई नहीं पिला रहा है। एकनाथ गधे के पास गए और अपनी कावड खोलने लगे उसे पानी पिलाने के लिए। संतो ने एकनाथ का हाथ पकड़ा और कहा , ' एकनाथ ! यह क्या कर रहे हो ? इतनी दूर से रामेश्वरम् तीर्थ पर चढ़ाने के लिए जल लेकर आए हो , और उसे यहां ढुलका का रहे हो। यों तो तुम्हारी सारी मेहनत बेकार चली जाएगी। ' एकनाथ मुस्कुराए और बोले , ' संतो ! मुझे तो रामेश्वरम् के भगवान की इस प्यासे प्राणी में ही दिखाई दे रहे हैं। संत और कुछ कहते , उससे पहले ही एकनाथ यह कहते हुए गधे को अपनी कावड़ का गंगाजल पिलाने लगे और सोचने लगे कि मेरी

अंतिम रात antim Raat

भगवान बुद्ध निर्वाण के करीब थे। शिष्य आनंद की आंखों से आंसू झर रहे थे। उन्हें कुछ दूरी पर अंधेरा दिखाई दे रहा था। आनंद ने बुद्ध की रोशनी में थी अब तक यात्रा की थी। सुबह - शाम , रात - दिन एक क्षण भी वे बुद्ध से दूर ना हुए थे। तीस वर्ष ऐसे साथ रहे , जैसे उनकी छाया। निर्वाण की घड़ी को करीब देख बुद्ध ने सभी भिछुओं को एकत्र होने का निर्देश दिया। सांझ ढलने के करीब थी। सभी भिछु जैतवन में एकत्र थे। अर्हत् ने धीमी आवाज में कहा , ' बिछुओं ! आज की रात मेरे लिए अंतिम रात है। अगर कुछ पूछना है तो पूछ लो। ' सभी भिछु प्रज्वलित दीप थे। वे परम अनुगृह से भरे थे , अत: शांत रहें। अर्हत् ने देखा , सभी बिछुओं को गहन शांति में , अहोभाव में। पर आनंद विचलित हो गए। उन्हें ऐसा लगा मानो ज्योति हाथ से छिटक रही है , सहारा छूट रहा है। उन्होंने कहा , ' बन्ते ! आप यह क्या कह रहे हैं ? कृपया ऐसी बात ना कहें। ' बुद्ध ने कहा , ' आनंद ! विदाई का क्षण तो आता ही है। तुम प्रकाश में जीना चाहते हो। आनंद ! अब तक का प्रकाश उधार का था , अब स्वयं प्रकाशवाही बनो। देखो उन्हें जो ज्योति - स्वरूप हो गए हैं। शांत ब