एक गांव में कुछ मजदूर पत्थर के खंभे बना रहे थे। उधर से एक संत गुजरे। उन्होंने एक मजदूर से पूछा - यहां क्या बन रहा है ? उसने कहा - देखते नहीं पत्थर काट रहा हूं ? संत ने कहा - हां , देख तो रहा हूं। लेकिन यहां बनेगा क्या ? मजदूर झुंझला कर बोला - मालूम नहीं। यहां पत्थर तोड़ते - तोड़ते जान निकल रही है और इनको यह चिंता है कि यहां क्या बनेगा। साधु आगे बढ़े। एक दूसरा मजदूर मिला। संत ने पूछा - यहां क्या बनेगा ? मजदूर बोला - देखिए साधु बाबा , यहां कुछ भी बने चाहे मंदिर बने या जेल , मुझे क्या। मुझे तो दिन भर की मजदूरी के रूप में सौ रुपए मिलते हैं। बस शाम को रुपए मिलें और मेरा काम बने। मुझे इससे कोई मतलब नहीं कि यहां क्या बन रहा है। साधु आगे बढ़े तो तीसरा मजदूर मिला। साधु ने उससे पूछा - यहां क्या बनेगा ? मजदूर ने कहा - मंदिर । इस गांव में कोई बड़ा मंदिर नहीं था। इस गांव के लोगों को दूसरे गांव में उत्सव मनाने जाना पड़ता था। मैं भी इसी गांव का हूं। ये सारे मजदूर इसी गांव के हैं। मैं एक - एक छेनी चला कर जब पत्थरों को गढ़ता हूं तो छेनी की आवाज में मुझे मधुर संगीत सुनाई पड़ता है। मैं आनंद में हूं। कु
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