संत ज्ञानेश्वर ने किया चांगदेव के अहंकार का नाश Sant gyaneshwar ne Kiya changdev ke ahankar ka naash
चांगदेव नाम के एक हठयोगी थे इन्होंने योग सिद्धि से अनेको सिद्धियाँ प्राप्त कर रखी थी तथा मृत्यु पर भी विजय प्राप्त कर ली थी उनकी उम्र 1400 वर्ष हो गई थी। चांगदेव को यश-प्रतिष्ठा का बहुत मोह था। वह अपने आप को सबसे महान मानते थे।
इन्होंने जब संत ज्ञानेश्वर की प्रशंसा सुनी तो उनका मन संत ज्ञानेश्वर के प्रति ईर्ष्या से भर उठा उन्होंने सोचा की 16 वर्ष की उम्र में संत ज्ञानेश्वर क्या मेरे से बड़े सिद्ध हो सकते है ऐसा उनकों मानने में न आया क्योंकि इन्होंने 1400 वर्ष साधना करके मृत्यु को जीता था तथा प्रत्येक जीव जंतु उनके वश में थे तथा एक सोलह साल का व्यक्ति उनसें सिद्धि में बड़ा हो सकता है यह बात उनके गले न उतरी परन्तु जब बार-बार संत ज्ञानेश्वर की प्रशंसा सुनी तो उन्होंने मन में सोचा की संत ज्ञानेश्वर से मिला जाए इसलिए उन्होने संत ज्ञानेश्वर को पत्र लिखने का सोचा।
जब वह पत्र लिखने बैठे तो सोच में पड़ गए कि संत ज्ञानेश्वर को क्या संबोधन करू।
पुज्य ,आदरणीय आदि से संबोधन भी नहीं कर सकते थे क्योंकि वह तो 1400 वर्ष के थे तथा संत ज्ञानेश्वर सोलह वर्ष के तो चिरंजीव भी नहीं लिख सकते थे क्योंकि ज्ञानी पुरूष जिसकी प्रसिद्धि चारो ओर फैली हो उसके लिए यह लिखने पर वह अपना अपमान न समझ बैठे तथा उन्होंने अंत में कोरा कागज ही भेज दिया।
चांगदेव का कोरा कागज देखकर मुक्ताबाई ने जवाब दिया ति तुम 1400 वर्ष के हो गये तथा कोरे के कोरे रह गये।
ऐसा जवाब सुनकर चांगदेव का अहंकार कम हो गया तथा उनके मन में संत ज्ञानेश्वर से मिलने की इच्छा बलवती होने लगी इन्हें अपनी सिद्धियों पर बहुत अभिमान था इसलिए संत ज्ञानेश्वर के सामने अपनी सिद्धियों के प्रदर्शन के लिए शेर की सवारी करके तथा हाथ में सर्प की लगाम लेकर संत ज्ञानेश्वर से मिलने चल पड़े।
रास्तें में जो भी लोग उनको देखते उनकी सिद्धियों की प्रशंसा करते उनकी जय-जयकार करते यह देखकर उनका मन अहंकार से भर उठा।
जब संत ज्ञानेश्वर ने सुना की चांगदेव उनसे मिलने आ रहे है तो उन्होंने सोचा की मेहमान का स्वागत करने के लिए जाना चाहिये। वह प्रातःकाल उठकर पत्थर से बनी चार दिवारी पर बैठकर दातुन कर रहे थे।
उन्होंने संकल्प किया तथा जैसे ही आज्ञा दी पत्थर का चबुतरा सरकने लगा तथा चांगदेव की ओर बढ़ने लगा तथा चांगदेव ने जैसे ही संत ज्ञानेश्वर को पत्थर के चबुतरे की सवारी करते हुए अपनी ओर आते देखा तो उनका अहंकार चुर-चुर हो गया।
उन्होंने सोचा की में तो प्रत्येक जीव जंतु पर अपना वश रखता हूं परन्तु संत ज्ञानेश्वर तो निर्जीव वस्तु को भी वश में कर सकते है ये निश्चित ही मुझसे महान है ।
ऐसा सोचते ही चांगदेव का अहंकार दुर हट गया उनकीं आँखो में आसु बहने लगे मन करूणा से भर उठा। उन्होंने सांप की लगाम को फेंक दिया तथा शेर की सवारी को छोड़कर संत ज्ञानेश्वर के पैर पकड़ लिए।
संत ज्ञानेश्वर ने जैसे ही देखा चांगदेव उनके चरण पकड़कर विलाप कर रहे है उन्होंने उसे गले से लगा लिया । जो सिद्धियाँ चांगदेव ने 1400 वर्षो की योग साधना से प्राप्त कि थी उनसे अधिक सिद्धियों को संत ज्ञानेश्वर ने 16 वर्ष की उम्र में प्रेम व भक्ति के मार्ग पर चलकर प्राप्त किया था ।
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