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मृत्यु आती है तो कोई परिजन आदि काम नहीं आते


पतचरा श्रावस्ती के नगरसेठ की पुत्री थी। किशोरवय होने पर वह अपने घरेलू नौकर के प्रेम में पड़ गई। जब उसके माता - पिता उसके विवाह के लिए उपयुक्त वर खोज रहे थे तब वह नौकर के साथ भाग गई।





दोनों अपरिपक्व पति - पत्नी एक छोटे से नगर में जा बसे। कुछ समय बाद पतचरा गर्भवती हो गई। स्वयं को अकेले पाकर उसका दिल घबराने लगा और उसने पति से कहा – “ हम यहाँ अकेले रह रहे हैं। मैं गर्भवती हूँ और मुझे किसी की सहायता की आवश्यकता है। यदि आप आज्ञा दें तो मैं अपने माता - पिता के घर चली जाऊं ? ”





पति पतचरा को उसके मायके नहीं भेजना चाहता था इसलिए उसने कोई बहाना बनाकर उसका जाना स्थगित कर दिया। लेकिन पतचरा के मन में माता - पिता के घर जाने की इच्छा बड़ी बलवती हो रही थी। एक दिन जब उसका पति काम पर गया हुआ था तब उसने पड़ोसी से कहा – “ आप मेरे स्वामी को बता देना कि मैं कुछ समय के लिए अपने माता - पिता के घर जा रही हूँ । ”





जब पति को इसका पता चला तो उसे बहुत बुरा लगा। उसे अपने ऊपर ग्लानि भी हुई कि उसके कारण ही इस कुलीन कन्या की इतनी दुर्गति हो रही है। वह उसे ढूँढने के लिए उसी मार्ग पर चल दिया। रास्ते में पतचरा उसे मिल गई। पति ने उसे समझाबुझाकर घर वापस लिवा लिया।





समय पर पतचरा को प्रसव हुआ। सभी सुखपूर्वक रहने लगे। पतचरा जब दूसरी बार गर्भवती हुई तब पति स्वयं उसे उसके माता - पिता के घर ले जाने के लिए तैयार हो गया।





मार्ग में जोरों की आंधी - वर्षा होने लगी। पतचरा ने पति से कहा कि वह किसी सुरक्षित स्थान की खोज करे। पति झाड़ियों से होकर गुज़र रहा था तभी उसे एक विषधर सांप ने काट लिया और वह तत्क्षण मृत्यु को प्राप्त हो गया।





पतचरा अपने पति की प्रतीक्षा करती रही और ऐसे में ही उसे प्रसव हो गया। थोड़ी शक्ति जुटाकर उसने दोनों बच्चों को साथ लिया और पति को खोजने निकल पड़ी। जब उसे पति मृत मिला तो वह फूट - फूटकर रोने लगी – “ हाय ! मेरे कारण ही मेरे पति की मृत्यु हो गई ! ”





अब अपने माता - पिता के सिवा उसका कोई न था। वह उनके नगर की और बढ़ चली। रास्ते में नदी पड़ती थी। उसने देखा कि दोनों बच्चों को साथ लेकर नदी पार करना कठिन था इसलिए बड़े बच्चे को उसने एक किनारे पर बिठा दिया और दूसरे को छाती से चिपका कर दूसरे किनारे को बढ़ चली।





वहां पहुंचकर उसने छोटे बच्चे को कपड़े में लपेटकर झाडियों में रख दिया और बड़े बच्चे को लेने के लिए वापस नदी में उतर गई। नदी पार करते समय उसकी आँखें छोटे बच्चे पर ही लगी हुई थीं। उसने देखा कि एक बड़ा गिद्ध बच्चे पर झपटकर उसे ले जाने की चेष्टा कर रहा है। वह चीखी - चिल्लाई , लेकिन कुछ नहीं हुआ।





दूसरे किनारे पर बैठे बच्चे ने जब अपनी माँ की चीखपुकार सुनी तो उसे लगा कि माँ उसे बुला रही है। वह झटपट पानी में उतर गया और तेज बहाव में बह गया। छोटे बच्चे को गिद्ध ले उड़ा और बड़ा नदी में बह गया! उसका छोटा सा परिवार पूरा नष्ट हो गया।





वह विलाप करती हुई अपने पिता के घर को चल दी। रास्ते में उसे अपने नगर का एक यात्री मिल गया जिसने उसे बताया कि नगरसेठ का परिवार अर्थात उसके माता - पिता और सभी भाई - बहन कुछ समय पहले घर में आग लग जाने के कारण मर गए। यह सुनते ही पतचरा पर दु:खों का पहाड़ टूट पड़ा। उसे तनमन की कोई सुध ना रही। वह पागल होकर निर्वस्त्र घूमने लगी।





उसके मुख से ये ही शब्द निकलते – “ पति मर गया। बड़ा बेटा डूब गया। छोटे को गिद्ध खा गया! माता - पिता और भाई - बहनों को चिता भी नसीब नहीं हुई ! ”





ऐसे ही विलाप करती निर्वस्त्र घूमती - फिरती पतचरा को सभी अपमानित और लांछित करके यहाँ से वहां भगा देते थे।





जेतवन में भगवान बुद्ध धर्मोपदेश दे रहे थे। पतचरा अनायास ही वहां आ गई। उपस्थितों ने कहा – “ अरे , ये तो पागल है! इसे यहाँ से भगाओ ! ” बुद्ध ने उन्हें रोकते हुए कहा – “ इसे मत रोको। मेरे पास आने दो। ” पतचरा जब बुद्ध के कुछ समीप आई तो बुद्ध ने उससे कहा – “ बेटी , अपनी चेतना को संभाल। ” भगवन को अपने समक्ष पाकर पतचरा को कुछ होश आया और अपनी नग्नता का बोध हो आया। किसी ने उसे चादर से ढांक दिया।





वह फूट - फूटकर रोने लगी – “ भगवन , मेरे पति को सांप ने डस लिया और छोटे - छोटे बच्चे मेरी आँखों के सामने मारे गए। मेरे माता - पिता , बंधु - बांधव सभी जलकर मर गए। मेरा अब कोई नहीं है। मेरी रक्षा करो। ”





बुद्ध ने उससे कहा – “ दु:खी मत हो। अब तुम मेरे पास आ गई हो। जिन परिजनों की मृत्यु के लिए तुम आंसू बहा रही हो , ऐसे ही अनंत आंसू तुम जन्म - जन्मांतरों से बहाती आ रही हो। उनसे भरने के लिए तो महासमुद्र भी छोटे पड़ जायेंगे। तेरी रक्षा कोई नहीं कर सकता। जब मृत्यु आती है तो कोई परिजन आदि काम नहीं आते। ”





यह सुनकर पतचरा का शोक कुछ कम हुआ। उसने बुद्ध से साधना की अनुमति माँगी। बुद्ध ने उसे अपने संघ में शरण दे दी। धर्म के परम स्रोत के इतने समीप रहकर पतचरा का दु:ख जाता रहा।





वह नित्य ध्यान व ज्ञान की साधना में निपुण हो गई। एक दिन स्नान करते समय उसने देखा कि देह पर पहले डाला गया पानी कुछ दूर जाकर सूख गया , फिर दूसरी बार डाला गया पानी थोड़ी और दूर जाकर सूख गया , और तीसरी बार डाला गया पानी उससे भी आगे जाकर सूख गया। इस अत्यंत साधारण घटना में पतचरा को समाधि क सू्त्र मिल गया।





“ पहली बार उड़ेले गये पानी के समान कुछ जीव अल्पायु में ही मर जाते हैं , दूसरी बार उड़ेले गये पानी के समान कुछ जीव मध्यम वयता में चल बसते हैं , और तीसरी बार उड़ेले गये पानी के जैसे कुछ जीव अंतिम वयस में मरते हैं। सभी मरते हैं। सभी अनित्य हैं। ”





ऐसे में पतचरा को यह भान हुआ जैसे अनंत करुणावान प्रभु बुद्ध उससे कह रहे हैं –





“ हां ,पटाचारे ,समस्त प्राणी मरणधर्मा हैं। ” इस प्रकार पतचरा उन बौद्ध साधिकाओं में गिनी गई जिनको निःप्रयास ही एक जीवनकाल में ही निर्वाण प्राप्त हो गया।


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